– वासुदेव प्रजापति
शिक्षा के प्रयोजनों के अन्तर्गत हमने उसके सांस्कृतिक प्रयोजन एवं राष्ट्रीय प्रयोजन को जाना। आज हम शिक्षा के सामाजिक प्रयोजन को जानेंगे। शिक्षा के सामाजिक प्रयोजन को जानने से पूर्व हम नेताजी की समाजनिष्ठा को जानेंगे।
नेताजी की समाजनिष्ठा
आज हर किसी राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता को नेताजी कहा जाने लगा है। किन्तु सही अर्थ में नेताजी तो सुभाष चन्द्र बोस ही थे। भारत का जन-जन, मन से उन्हें अपना नेता मानता था। केवल भारत की जनता ही नहीं अपितु जर्मनी के तानाशाह हिटलर, जापान के तत्कालीन शासक तोजो तथा सिंगापुर, इण्डोनेशिया आदि देशों के शासकों एवं वहाँ के लोगों के दिल भी सुभाष बाबू ने जीते थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि उनके धुर विरोधी अंग्रेज भी उनकी कुछ गुणों के प्रशंसक थे, उनमें से एक गुण था- उनका समाज तथा देश प्रेम। उस समय के अंग्रेज अधिकारियों को उनके देशप्रेम ने सर्वाधिक प्रभावित किया था।
बात है सन् 1924 ई. की। उस वर्ष सुभाष बाबू ने क्रान्तिकारी चितरंजन दास की स्वराज पार्टी से चुनाव लड़ा और जीत गए। इस जीत ने उन्हें कलकत्ता नगर निगम का मुख्य प्रशासनिक अधिकारी बना दिया। इस महत्त्वपूर्ण पद के अधिकारी का वेतन उस समय तीन हजार रुपए प्रतिमाह था। इतना वेतन पाना उस काल में बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि अनेक अंग्रेज अफसरों तक को इतना वेतन नहीं मिलता था।
जब नेताजी इस पद पर आसीन हुए, तब सबसे पहले उन्होंने अपने वेतन में कटौती की। उन्होंने 3000रु. के स्थान पर मात्र 1500रु. प्रतिमाह वेतन लेना स्वीकार किया। उस समय उन्होंने कहा था कि यह वेतन मुझे समाज के लोगों की जेब से एकत्र कर दिया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि समाज का एक-एक व्यक्ति भूख से व्याकुल है। सम्पूर्ण समाज गरीबी से त्रस्त है, देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। ऐसी विकट परिस्थिति में मैं उनके खून-पसीने से कमाए हुए पैसों में से इतना अधिक वेतन कैसे ले सकता हूँ? समाज के साथ एकाकार होने के फलस्वरूप ही वे इतनी बड़ी राशि का त्याग कर पाए।
सूभाष बाबू ने इस भूमिका में भी बहुत ईमानदारी से समाज की सेवा की। उन्होंने कलकत्ता नगर निगम को अमीरों के चंगुल से छुड़वाकर गरीबों का हित करनेवाला निगम बना दिया। पहले निगम अमीर लोगों का अड्डा बना हुआ था, किन्तु अब सुभाष बाबू के आने से उसी निगम में गरीबों की सुनवाई प्रमुखता से होने लगी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का यह पहला सामाजिक दायित्व था, जिसमें वे पूर्णतः सफल हुए। जिस शिक्षा में समाजनिष्ठा की भावना भरी होती है, वही शिक्षा सुभाष बाबू जैसे समाजसेवी निर्माण कर सकती है।
सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण
मनुष्य समाज में रहता है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ मधुर सम्बन्धों के साथ रहना ही उसका सामाजिक जीवन है। यह सामाजिक जीवन भौतिक समृद्धि, सुरक्षा और स्वतंत्रता देने वाला होना चाहिए। ऐसा सामाजिक जीवन बनाने के लिए उसने विभिन्न व्यवस्थाओं का निर्माण किया है, विभिन्न शास्त्रों को बनाया है और अपना सामाजिक जीवन व्यवस्थित किया है।
मनुष्य ने भौतिक समृद्धि के लिए उत्पादन की कला सीखी। अनेक वस्तुओं का निर्माण किया, उनके वितरण और उपभोग की व्यवस्था बनाई। वस्तुओं के निर्माण में सहायक यंत्र बनाए। मनुष्य ने भौतिक विज्ञान के शास्त्र बनाए। विज्ञान को उसने केवल जिज्ञासा पूर्ति तक सीमित नहीं रखा अपितु अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बनाया।
भारतीय चिंतन के अनुसार तंत्रज्ञान का अध्ययन विज्ञान के साथ गौण रूप से और मनोविज्ञान तथा मन को नियंत्रित करने वाले धर्मशास्त्र के साथ मुख्य रूप से करना चाहिए।
धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है
मनुष्य ने चिंतन करके अपने जीवन को समझने का प्रयत्न किया। अपनी समझ को व्यवस्थित करने हेतु चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार वर्ण और अनेक जातियों की रचना की। इन सबके व्यवहार के नियमों की व्याख्या करने वाला धर्म शास्त्र बनाया। वास्तव में यह धर्मशास्त्र ही समाजशास्त्र है। भारत के मनीषियों ने इसे मानव धर्मशास्त्र नाम दिया और इस मानव धर्मशास्त्र को ही स्मृति कहा। मानव धर्मशास्त्र कहकर हमारे पुरखों ने इसे केवल भारतीयों तक सीमित नहीं रखा अपितु सम्पूर्ण विश्व मानवों के व्यवहार हेतु प्रस्तुत किया।
समाज को चिरंजीवी बनाया
मानव सम्बन्धों को आध्यात्मिक आधार देने हेतु कुटुम्ब व्यवस्था बनाई। एक स्त्री व पुरुष को पति-पत्नी बनाने के लिए विवाह संस्कार एवं विवाह संस्था की रचना की। एकात्मता को परिवार भावना का स्वरूप दिया और परिवार भावना का विस्तार वसुधैव कुटुंबकम् अर्थात् सम्पूर्ण विश्व ही मेरा परिवार है, ऐसा उदार अन्तःकरण विकसित किया। इस परिवार भावना को राज्य संस्था, वाणिज्यसंस्था वह शिक्षासंस्था का केन्द्रवर्ती तत्त्व बनाया।
काल की गति व प्रभाव तथा प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझकर सारे व्यवहार शास्त्रों को परिवर्तनक्षम रखा। भेदों को स्वाभाविक मानकर उनमें विविधता और सुन्दरता को देखा और व्यवहार में भेदों को नहीं वरन समदृष्टि को आधार बनाया। बाहर से दिखाई देने वाले भेदों में आन्तरिक एकत्व का प्रतिपादन किया और समाज को चिरंजीवी बनाया। समाज को चिरंजीवी बनाने वाले मूल तत्त्वों को पहचानना भारतीय मनीषा की एक विशेषता है। इन सभी सामाजिक व्यवस्थाओं का यहाँ उल्लेख करने का उद्देश्य यही है कि इस चिरंजीवी भारतीय समाज व्यवस्था को प्रत्येक भारतीय के हृदय व बुद्धि में उतारने के लिए शिक्षासंस्था को बनाया गया है। इसलिए शिक्षा समाजनिष्ठ होनी चाहिए।
समाजनिष्ठ शिक्षा की कार्य–योजना
शिक्षा को समाजनिष्ठ बनाने के लिए शिक्षकों को ही पहल करनी होगी। भारतीय परम्परा में ऐसा विचार सदैव शिक्षकों ने किया है और समाज ने उनका साथ दिया है। वेदिक काल में वसिष्ठ और विश्वामित्र से लेकर चाणक्य तक के प्रमुख आचार्य इसके उदाहरण हैं। अतः आज भी शिक्षकों को ही पहल करनी होगी और समाज का सहयोग लेकर समाज के लिए उपयोगी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी।
शिक्षा को समाजोपयोगी बनाने के लिए एक कार्य योजना बनानी होगी, इस योजना के कुछ चरण अधोलिखित हो सकते हैं –
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शिक्षकों को सबसे पहले आज की नौकरी वाली व्यवस्था से बाहर निकलनाहोगा। आज के युवाओं को यह सिखाना होगा कि अर्थार्जन के लिए नौकरी नहीं करना। अर्थार्जन के लिए भौतिक वस्तुओं के उत्पादन का काम करना चाहिए।
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भारतीय समाज का नियंत्रक तत्त्व धर्म है। अंग्रेजी राज में धर्म को बदल करअर्थ कर दिया गया। अब धर्म को पुनः नियंत्रक बनाने के लिए धर्माचार्यों कोआगे आकर शिक्षकों का मार्गदर्शन करना होगा। धर्माचार्यों व शिक्षकों नेमिलकर समाज के सहयोग से शिक्षा का भारतीय ढांचा तैयार करना होगा, जोभारतीय समाज व्यवस्था को पुष्ट करने वाला हो।
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शिक्षा का जो नया प्रारूप तैयार हो उसमें आर्थिक स्वतंत्रता का विचारकरना भी आवश्यक है। केवल शैक्षिक प्रारूप बनाने से काम नहीं चलेगा, हमेंउसके साथ आर्थिक क्षेत्र को भी जोड़ना पड़ेगा अर्थात् शिक्षा को उत्पादन केसाथ जोड़ना होगा।
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युवाओं का रोजगार आज जिस आयु में निर्धारित होता है, उससे बहुत पहलेनिश्चित हो जाना चाहिए। युवा भले ही प्रत्यक्ष अर्थार्जन कानूनन अठारह वर्ष मेंप्रारम्भ करें परन्तु अर्थार्जन की पात्रता कम से कम दस वर्ष पूर्व ही निश्चित होजाना आवश्यक है। अठारह वर्ष तक अर्थार्जन की पात्रता ही निश्चित नहींकरना अत्यन्त अव्यवहारिक है।
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विकेंद्रीकरण के लिए बड़े-बड़े उद्योगपतियों को धर्माचार्य समझाए। शासन की सहायता, विकेंद्रित उत्पादन और आर्थिक स्वतंत्रता की संकल्पना प्रतिष्ठित हों, ऐसी योजना बनानी होगी। आज शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों सरकार कीजिम्मेदारी बन हुए हैं। सरकार को इन दोनों से मुक्त करने के लिए अर्थ पुरुषार्थको समाज आधारित बनाने की आवश्यकता है।
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प्रजा के काम पुरुषार्थ को नियोजित करने के लिए साधु-संतों को आगे आनाहोगा। ज्ञान और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए संन्यासियों को अपनी तपश्चर्या कापुण्य देना पड़ेगा, क्योंकि पुण्य के बिना बड़े कार्य सिद्ध नहीं होते।
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देश में जो धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन चल रहे हैं। इन दोनों प्रकार केसंगठनों को सरकार मुखापेक्षी बनाने के स्थान पर समाजोन्मुखी बनाना होगाऔर समाज को अधिकाधिक दायित्व से युक्त बनाना होगा।
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आज जो व्यक्तिकेन्द्री समाज व्यवस्था रूढ़ हो गई है, उसके स्थान पर कुटुम्बकेन्द्री व्यवस्था बनानी होगी। शिक्षा,धर्म एवं अर्थार्जन का केन्द्र कुटुम्ब कोबनाना होगा। सांस्कृतिक इकाई और आर्थिक इकाई एक साथ हों और परस्परअवलम्बित हों, ऐसी व्यवस्था बनानी होगी।
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शिक्षा क्षेत्र में समाज व्यवस्था को आधार बनाकर अध्ययन और अनुसंधानकरने वाले शोधार्थी तैयार करने होंगे। दूसरी ओर शिक्षाविदों एवं संन्यासियोंको अध्ययन योजना में लगाना होगा। वानप्रस्थियों का तो यह सामाजिकदायित्व पूर्व निर्धारित ही है। आज सेवानिवृत्ति के उपरान्त भी अनेक लोगअर्थार्जन करते हैं, उन्हें अर्थार्जन मोह से निकालकर समाज सेवा में लगानाहोगा।
सार रूप में कहा जाय तो शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन केवल चिंतन का विषय नहीं है, इसे कृति का विषय बनाना होगा। इसे यदि कृति का विषय नहीं बनाया तो पूर्व के दो प्रयोजन-सांस्कृतिक व राष्ट्रीय भी अधूरे रह जायेंगे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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