– लक्ष्मीकान्त सिंह
शिक्षा के मूल दृष्टिकोण
साधारणतया शिक्षा के दो पक्ष/दृष्टिकोण होते हैं। प्रथम यह है कि शिक्षा प्रतिभा विकास की प्रक्रिया हैं, अर्न्तनिहित गुणों के प्राकट्य और संवर्धन की प्रक्रिया है। इस प्रकार बालक की अर्न्तनिहित प्रतिभा, प्रकृति एवं प्रवृत्ति के लिये प्रयास या प्रक्रिया शिक्षा का प्रथम और प्रमुख उद्देश्य है।
शिक्षा का दूसरा पक्ष है, उसकी पर्यावरणीय अथवा वातावरणीय अर्थात परिवेशीय अनुकूलता। शिक्षा ऐसी चाहिये जो बालक को अथवा व्यक्ति को अपने परिवेश के साथ अनुकूलता बनाने में सहायता करे और प्राप्त सीखों के द्वारा अपने परिवेश/पर्यावरण की सामाजिक आवयकताओं के साथ अनुकूलन हेतु व्यक्ति की पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता बढ़े। यहाँ परिवेश अथवा पर्यावरण अपने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त है। गाँव, शहर, समाज, देश यहाँ तक कि सम्पूर्ण वैश्विक परिस्थितियाँ इसके परिक्षेत्र में आती हैं। वातावरण के साथ समर्थ संगति (compatibility) ही शिक्षा को सार्थकता प्रदान करती है, जिससे सामाजिक संचेतना आती है और समाज शिक्षा को एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक ले जाने में सक्षम होता है।
इस प्रकार जहाँ प्रथम पक्ष वैयक्तिक-शिक्षा अर्थात किसी व्यक्ति विशेष के आन्तरिक क्षमताओं के विकास के साथ उसके विचार, दिशानिर्देश, विषयवस्तु और सामाजिक आयामों के विकास और संवर्धन का कार्य निर्धारण करता है वहीं दूसरा पक्ष सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप सामाजिक मूल्यों/गुणों की निरन्तरता बनाये रखने हेतु जोर देता है। इस प्रकार यदि प्रथम पक्ष वैयक्तिक है तो दूसरा पक्ष सामाजिक संचेतना का।
यहाँ शिक्षा के एक तीसरे पक्ष की भी संकल्पना की जा सकती है, जो इन दोनों पक्षों के मध्य संतुलन और सामंजस्य की बात करता है। शिक्षा ऐसी चाहिये जो समय-समय पर समाज की आवश्यकताओं, परिवर्तनों और विभिन्न सम्बद्ध क्षेत्रों सम्बन्धी ज्ञान का अनुश्रवण और आंकलन कर वैयक्तिक अर्न्तनिहित और अर्जितज्ञान के बीच एक समायोजन बैठाये। अर्न्तनिहीत प्रतिभा के विकास की अनन्त संभावनायें है, किन्तु यह परिवेशीय उपयोगिताओं के उपयोग के अनुरूप चाहिये। तभी शिक्षा समुचित कहलायेगी। यदि कोई व्यक्ति स्वत: स्फूर्त धरातल के विध्वंस की शक्ति अर्जित करता है और उसी से आनन्दित होता है तो उसे समुचित शिक्षा (Proper Education) नहीं कहा जा सकता। सही शिक्षा इसे स्वीकार नहीं करेगी और परिवेशीय प्रतिबद्धता के अनुसार ही स्वीकार्य होगी।
परिवेश-संगतता
यदि सामाजिक ज्ञान को गंगा और वैयक्तिक ज्ञान को यमुना कहें तो दोनों के संगम (Confluence) के उपरान्त बहने वाली अपेक्षाकृत संयत बहाव वाली धारा ही वास्तव में सरस्वती अर्थात शिक्षा/ज्ञान/विद्या है। ज्ञान का सतत् प्रवाह ही शिक्षा या सरस्वती है जो समय, परिवेश और विभिन्न सामाजिक अर्न्तविहित सामाजिक स्थितियों के साथ साम्य बैठाते हुये समवायी। वैयक्तिक ज्ञान के सतत् प्रवाह को व्यवस्थित करती है। प्रवाहमान ज्ञान ही सही शिक्षा है अर्थात समय और परिस्थिति के अनुसार शास्वत सामाजिक मूल्यों के चतुर्दिक परिवर्तनशील ज्ञानार्जन शिक्षा को बलवती बनाता है। अपने सन्दर्भ में परिवेश-संगतता (Environment Compatibility) का तात्पर्य है।
- सम्पूर्ण विश्व के साथ सुसंगत रहते हुए आवश्यक विज्ञान और तकनीकी का विकास।
- पृथ्वी के साथ / परिवेश के साथ सुसंगत होने हेतु पेड़-पौधे और प्राणि समूह (FLORA AND FAUNA) की चिन्ता हो।
- समाज के साथ सुसंगत हेतु सामाजिक बुराइयों दहेज, शोषण, नशाखोरी, भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प चाहिये।
- शिक्षा पर दायित्व है कि वह अपना परिवेश गाँव, नगर तथा पास-पड़ौस अनिवार्य रूप
से साफ-स्वच्छ और व्यवस्थित बनाने में सक्षम हो।
- शिक्षा को उत्पादकता वृद्धि मूलक और रोजगार परक होना होगा। ऐसा होने पर सामाजिक मूल्य स्वत: संरक्षित हो सकेंगे।
एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि समुचित संवाद एंव सुग्राही संचार होना चाहिये। इसके लिये प्रारम्भिक ज्ञान अपनी भाषा में तथा प्रभावी व्यापार हेतु अन्यान्य भाषाओं का भी आवश्यक ज्ञान हो। यह देश की एकता, सहृदयता और संप्रभुता के लिये भी परम आवश्यक है। अत: उचित स्तर पर द्विभाषा, त्रिभाषा के अध्ययन अध्यापन की भी समुचित व्यवस्था हो।
प्रस्तुत आलेख को और उद्देश्यपूर्ण और प्रभावी तथा सारगर्भित बनाने हेतु हम कहना चाहेंगे कि शिक्षा समाज सेवा और समाज सुधार के लिये संकलित होनी चाहिये।
विद्यालयी छात्र-छात्राओं द्वारा सड़क और भवन निर्माण में प्रयुक्त हो रही खराब ईंटे, मिलावटी सीमेन्ट आदि का विरोध करने पर ठेकेदार द्वारा सुधार करना, सड़क के मेन होल के चारों और विद्यालय पूर्व व बाद में छात्राओं के 15-15 मिनट के धरने से उसका ठीक होना, समय-समय पर नशाखोरी और ड्रग्स के रोकथाम हेतु रैली निकालना, गाँव-गाँव, मोहल्लों में जाकर स्वच्छ जल पीने हेतु आग्रह ओर ब्लीचिंग पाउडर तथा लाल दवा (पोटेशियम परमेगनेट) बाँटना, साक्षरता अभियान में भाग लेना। ये उदाहरण है जो बताते है कि अपने छात्र समाज सेवा हेतु कितने उपयोगी हो सकते हैं इससे उनके अन्दर स्वत: स्फूर्त सेवा का भाव, चारित्रिक-सम्बल और दायित्व-बोध का बीजारोपण होगा। अत: शिक्षा के साथ-साथ औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप से ऐसे पाठ्यक्रम या पाठ्येत्तर गतिविधियाँ जोड़ी जानी चाहिये।
बालकों को इस प्रकार की प्रेरणाप्रद शिक्षा हेतु शिक्षकों को भी तैयार और तत्पर होना होगा। यही नहीं पुरानी पीढ़ी को भी रूढ़ियों को छोड़कर समय के साथ बदलने के लिये तैयार होना होगा।
बालक-बालिकाओं में अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक, घर परिवार, गाँव-नगर प्रदेश और देश के प्रति गर्व की भावना भरने का भरसक प्रयास किया जाना चाहिये। इस हेतु समुचित कार्यक्रम, गतिविधियाँ और देश-समाज की समस्याओं पर सम्मेलन-गोष्ठी तथा नाटिकायें आदि का समाहरण शिक्षा में होना चाहिये। स्वच्छता, स्वालम्बन के कार्य, कृषि कार्य, ग्राम दर्शन जैसे कार्यक्रम आयोजित कर उन्हें सामाजिक सरोकार के कार्यों हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए।
सभी बालक-बालिकाओं को अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण सैन्य अभ्यास, आत्मरक्षण, समाजसेवा, श्रमदान, स्काउटिंग तथा योग जैसे सामाजिक दायित्व के कार्य और कार्यक्रमों का शिक्षण रूचि अनुसार अनिवार्य होना हितकर होगा, जिससे सामाजिक सरोकार और सामाजिक संचेतना का उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा।