✍ नम्रता दत्त
श्रृंखला के इस सोपान में शिशु की बौद्धिक क्षमताओं अर्थात् विज्ञानमयकोश एवं आध्यात्मिक क्षमताओं अर्थात् आनन्दमयकोश के विकास पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
- बौद्धिक क्षमताएं अर्थात् विज्ञानमय कोश
बौद्धिक क्षमताओं को शारीरिक क्षमताओं की भांति सहजता से नहीं मापा जा सकता क्योंकि बुद्धि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती। यह मन की भांति अन्तःकरण है। बुद्धि के विकास का आधार वातावरण तो है ही लेकिन इसमें मन (मनोमयकोश) के विकास की विशेष भूमिका होती है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभूति/संवेदना सबसे पहले मन के पास ही जाती है और मन अपनी स्थिति के अनुरूप उस अनुभूति/संवेदना को विचार के रूप में बुद्धि के सम्मुख रखता है। बुद्धि का अर्थ है ज्ञान ग्रहण करना अथवा जानना। ज्ञान को ग्रहण करने के लिए बुद्धि, मन द्वारा रखी गई संवेदना/विचार को कईं कसौटी पर कसती है जैसे- निरीक्षण-परीक्षण, विश्लेषण-संश्लेषण, तर्क-अनुमान आदि के बाद विवेक से निर्णय लेती है। इसलिए मनोमय कोश से अधिक सूक्ष्म विज्ञानमय कोश को माना जाता है।
बौद्धिक विकास के आयाम
१. ग्रहण करने की शक्ति का विकास – मन (संवेदना) और चित (संस्कार) के बीच बुद्धि/विवेक ही सेतु का कार्य करती है। जब निर्मल मन शुद्ध रूप में (निःस्वार्थ, बिना राग द्वेष के निर्भय होकर) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त संवेदनाओं को बुद्धि के समक्ष रखता है तो बुद्धि उसे सही स्वरूप में ग्रहण कर उचित अनुभव/ज्ञान ले पाती है और चित पर श्रेष्ठ संस्कार होता है। इन श्रेष्ठ संस्कारों के कारण ही शिशु चरित्रवान बनता है।
२. धारणा शक्ति का विकास – बुद्धि ने जो अनुभव ग्रहण किया उसे सदैव व्यवहार में धारण भी करना चाहिए। मजबूत धारणा शक्ति के कारण ही वह व्यवहार में उतरता है नहीं तो ग्रहण करने के बाद भी वह बुद्धि में रहता नहीं है।
३. स्मृति का विकास – स्मृति में रहने के कारण ही ग्रहण एवं धारण किया हुआ अनुभव समय एवं आवश्यकतानुसार व्यवहार में प्रयोग में आता है। अतः स्मरण शक्ति का विकास भी बौद्धिक क्षमताओं के विकास का आयाम है।
४. कल्पना शक्ति का विकास – कल्पना की शक्ति के द्वारा बुद्धि कल्पना (आउट ऑफ दी बॉक्स जाकर) द्वारा कुछ समस्याओं का हल करती है। अतः यह भी बौद्धिक क्षमता का आयाम है।
५. निरीक्षण शक्ति का विकास – किसी भी स्थूल क्रिया का सूक्ष्मता से अवलोकन करना ही निरीक्षण कहलाता है जैसे- चिङिया दाना चुग रही है तो चोंच खोलती है, चोंच से दाना उठाती है तो खट की आवाज आती है, हल्की सी आहट होती है तो उङ जाती है आदि आदि।
६. परीक्षण शक्ति का विकास – परीक्षण अर्थात् परखना। परखना अर्थात् स्थूल ज्ञान के प्रयोग से सूक्ष्म की ओर जाना हैं जैसे दो रंगों के मेल से हल्का /गहरा रंग बनाने के लिए किस रंग की मात्रा को घटाया/बढाया जाए।
७. तर्क करना – एक ही कार्य को विभिन्न प्रकार से कैसे-कैसे किया जा सकता है इसका प्रयोग करना ही तर्क शक्ति है जैसे बहुमंजिला इमारत में लिफ्ट से भी चढ़ा जा सकता है और सीढी से भी।
८. अनुमान शक्ति का विकास – विभिन्न स्थिति को देखकर कारण को जानना ही अनुमान शक्ति का विकास है जैसे रसोई से दुर्गन्ध आने पर अनुमान लगाना कि कुछ जल रहा है।
९. विश्लेषण एवं संश्लेषण शक्ति का विकास – किसी पदार्थ या घटना को खण्ड खण्ड में जानना/समझना विश्लेषण कहलाता है जैसे समानता, भेद, तुलना आदि। इसी प्रकार खण्ड खण्ड को समग्रता में जानना संश्लेषण कहलाता है जैसे विविधता में एकता।
उपरोक्त क्षमताओं के विकास के लिए शिशु को वातावरण के द्वारा अभ्यास के अवसर देने होंगे। रोचक गतिविधियों के द्वारा उसके मन को एकाग्र करना होगा। संस्कारित वातावरण से उसके मन को शान्त और व्यवहार को सदाचारी बनाना होगा। उसकी जिज्ञासा को जगाना होगा। यह सब अनौपचारिक/गतिविधि/क्रिया आधारित शिक्षा से ही सम्भव है।
मनोविज्ञान के अनुसार शिशु अवस्था में बुद्धि विकसित नहीं होती यह बाल्यावस्था (6 वर्ष की आयु से…) में होती है। लेकिन यह अवस्था सीखने की नींव होती है अतः इसको बुद्धि विकास की प्रारम्भिक अवस्था कह सकते हैं। चित्त की सक्रियता के कारण इस अवस्था में सात्विक बुद्धि को विकसित किया जा सकता है। इसीलिए इस अवस्था का विशेष महत्व है। इसको औपचारिक शिक्षा के प्रयास में व्यर्थ न करके अनौपचारिक शिक्षा द्वारा समस्त क्षमताओं का विकास करना चाहिए।
- चैतसिक क्षमताएं अर्थात् आनन्दमयकोश
शिशु अवस्था संस्कारक्षम होती है क्योंकि संस्कार चित्त पर होते हैं और इस अवस्था में चित्त अत्यधिक सक्रिय होता है। चित्त अर्थात् आत्मा। बालक को भगवान का स्वरूप माना जाता है क्योंकि उसकी आत्मा निर्मल होती है। उसकी यह निर्मलता आजीवन बनी रहे, यही शिक्षा का लक्ष्य है। अतः उसे ऐसा स्नेह और संस्कार से परिपूर्ण वातावरण देने की आवश्यकता है जिसमें विकार/दोष न हों। संस्कारक्षम वातावरण के कारण उसके पूर्व जन्म एवं अनुवांशिकता के संस्कारों की न्यूनता को भी दूर किया जा सकता है।
चित्त की शुद्धता से ही आनन्द स्वरूप, ज्ञान स्वरूप, शान्ति स्वरूप, प्रेम स्वरूप, सुख स्वरूप, पवित्रता स्वरूप और शक्ति स्वरूप जैसे आत्मिक गुण विकसित होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सृजनशीलता विकसित होती है। यह सृजनशीलता पंचकोशों को पुष्ट करती है। अतः यदि अन्नमयकोश से लेकर विज्ञानमयकोश तक शिशु के विकास का ध्यान उचित देखभाल और वातावरण में किया जाए तो आनन्दमयकोश का विकास स्वतः सरलता से सम्भव है। यह परस्पर चक्रीय प्रक्रिया है। पांचकोशों का विकास ही वास्तव में क्षमताओं का विकास है।
चैतसिक क्षमताओं का विकास ही सफल जन्म-मरण का आधार एवं लक्ष्य है। इसी क्षमता के विकास से शिक्षा, मोक्ष का माध्यम बनती है क्योंकि व्यष्टिगत विकास से परमेष्ठिगत विकास तक की यात्रा आत्मा ने ही करनी है। यह भारतीय जीवन दर्शन की अवधारणा है। कोई व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित उपरोक्त क्षमताओं का विकास ही उसके जीवन का समग्र विकास है। भविष्य में औपचारिक शिक्षा को ग्रहण करने में भी यह विकास सहयोगी होता है।
गीत, संगीत, कहानी, नाटक, खेल, कला आदि की विभिन्न गतिविधियों के द्वारा शिशु अवस्था में इन क्षमताओं का विकास करना एक समृद्ध राष्ट्र एवं विश्व के लिए महत्वपूर्ण है।
ध्यान रहे कि बच्चे व्यक्तिगत नहीं अपितु देश/विश्व की धरोहर हैं और आज के बच्चे ही कल के देश का उज्ज्वल भविष्य हैं।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)
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