शिशु शिक्षा 38 – संस्कार एवं चरित्र निर्माण

✍ नम्रता दत्त

बाल मनोविज्ञान के अनुसार बालक का 85 प्रतिशत विकास छः वर्ष की अवस्था से भी पूर्व हो जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के दस्तावेज में भी इसका उल्लेख किया गया है और बाल्यावस्था में इस विकास का माध्यम अनुभव आधारित, क्रिया आधारित, खोज आधारित अथवा खेल खेल में बताया है। यही अनौपचारिक शिक्षा है।

वास्तव में तो सामान्यतः शिक्षा का अर्थ संस्कार के रूप में ही लिया जाता है। वे संस्कार जो सर्वे भवन्तुः सुखिनः और वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव को जागृत करें। इतने भारी भरकम शब्दों का भाव क्या बालक 6 वर्ष की अवस्था में समझ पाता है यदि नहीं तो मनोवैज्ञानिक ऐसा क्यों कहते हैं और यदि हां तो यह कैसे सम्भव है?

संस्कार कोई टॉफी नहीं, जो बालक को खिला दी जाए, वह कोई एनर्जी बुस्टर भी नहीं जो दूध में घोल कर पिला दिया जाए। फिर यह संस्कार 85 प्रतिशत तक बालक में कैसे विकसित होंगे। किन किन क्षेत्रों में उसे संस्कारित करें कि उसका व्यक्तित्व प्रतिभाशाली बने और वह सर्वे भवन्तुः सुखिनः की उक्ति को पूर्ण कर सके। आइए संक्षेप में विचार करते है।

संस्कार एवं चरित्र निर्माण के लिए चार पक्षों पर विचार करना होगा –

  1. पूर्वजों का परिचय एवं उनसे प्रेरणा लेना – पूर्वज का अर्थ है जो हमसे पूर्व में रहे हैं, जिन्होंने राष्ट्र, समाज अथवा परिवार के लिए कुछ साकारात्मक परिवर्तन का कार्य किया है एवं अपनी परम्पराओं के संरक्षण के लिए त्याग, समर्पण तथा बलिदान किया है जैसे- भक्त प्रहलाद, लव-कुश, फतेह सिंह, जोरावर सिंह, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु नानक देव, राजा राम मोहन राय, रानी लक्ष्मीबाई, सावित्रीबाई फुले आदि आदि …….। ऐसे महापुरुषों (पूर्वजों) के चित्र दिखाकर, इनके नाम बताकर, इनकी कहानियां एवं गीत सुनाकर खेल-खेल में उनके जीवन की घटनायें बताना ही अनौपचारिक रूप से संस्कार एवं चरित्र निर्माण की शिक्षा देना है। ज्ञानेन्द्रियों (आंख और कान) से लिया गया यह अनुभव बालकों के भावी जीवन को साहस, बुद्धिमता, त्याग, समर्पण एवं गौरवमयी जीवन जीने के संस्कार देता है।

मैं अपनी एक परिचिता से मिलने गई, परिवार उस समय घरेलू सामान (राशन) खरीद कर लाया था और उसको यथा स्थान रखने की व्यवस्था कर रहा था। राशन का कुछ सामान (आटा और दालें आदि) अलग से निकाल कर उन्होंने एक बैग में भर दिया। मित्र बोली कि कल जब मैं मन्दिर जाऊंगी तो ले जाऊंगी। उसने कहा कि हर छह मास में वह ऐसा करती हैं। पहले गांव में रहते थे खेती का अनाज आता था तो सबसे पहले मन्दिर में भेजते थे। अब खेत तो बंटाई पर दे रखे हैं वहां से फसल लाने में खर्च अधिक लगता है, इसलिए हर छह मास में हम यहीं से अनाज खरीद कर मन्दिर में दे देते हैं। कुल की परम्परा तो बनी रहती है। मेरी सास करती थी तो मैं करती हूँ, मुझे देखकर ये बच्चे भी सीख जायेंगे, उम्मीद है कि आगे यह भी ऐसा ही करेंगे।

  1. संस्कृति परिचय – प्रत्येक देश का अपना जीवन दर्शन (जीवन जीने के नीति नियम) होता है और इसी जीवन दर्शन को शिक्षा/संस्कारों से जीवित रखा जाता है। इन सतत् चलने वाले संस्कारों से ही संस्कृति बनती है। भारतीय संस्कृति सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन है। भारत विश्व गुरु रहा है। छोटे बालक को यह सब संस्कार सीखाने के लिए वातावरण देना पङता है। वातावरण के वायुमंडल का प्रभाव उसको प्रभावित करता है। छोटी छोटी बातें बङा प्रभाव डालती हैं। छोटे छोटे श्लोक, सूत्रों और मंत्रों का उच्चारण उसे संस्कारित करता है। अतः ऐसे श्लोक, सूत्रों और मंत्रों का उच्चारण कराना चाहिए जैसे-
  • भारत मेरा देश है।
  • मेरा जीवन मेरे प्राण, भारत माता पर बलिदान।
  • भारत माता की जय।
  • धरती हमारी माता है, गाय हमारी माता है, गंगा हमारी माता है।
  • मातृ देवो भव्, पितृ देवो भव्, आचार्य देवो भव्।
  • वसुधैव कुटुम्कम्।
  • सर्वे भवन्तु सुखिनः।
  • अन्न ब्रह्म है। ईश्वर को भोग लगाकर ही भोजन खाएं, जितना खायें, उतना ही लें, झूठा न छोङे।
  • हम सबको ईश्वर ने बनाया है।
  • जल ही जीवन है, इसे बेकार न करें।
  • ‘पुस्तक’ मां सरस्वती का स्वरूप है, उसे पैर न लगाएं।
  • ईश वन्दना, शांति पाठ, गायत्री मंत्र, भोजन मंत्र आदि।

भारतीय जीवन दर्शन से जुङे ऐसे अनेक बिंदु हो सकते हैं। घर एवं विद्यालय में इनका वातावरण बनाना चाहिए। इन बिन्दुओं से जुङे गीत, कहानी, नाटक, कला, पपेट्स शो आदि भी किए जा सकते हैं। दीवारों की साज सज्जा भी इनके अनुरूप कर सकते हैं।

  1. सद्गुण एवं सदाचार – दूसरों के प्रति मन में अच्छे भावों को रखना सद्गुण तथा व्यवहार से दूसरों के प्रति अच्छे आचरण को सदाचार कहते हैं। यह सदगुण और सदाचार बालकों को उपदेश से सिखाना असम्भव है। ये केवल स्वयं के आचरण से ही प्रेम और आनन्द के वातावरण में ही सिखाए जा सकते हैं। ये सदगुण और सदाचार हैं जैसे-
  • अपनी एवं अपने आसपास की सफाई रखना। कूङा कूङेदान में फेंकना।
  • खाने की वस्तु को बांटकर खाना। खिलौने बांटकर खेलना।
  • अपनी बारी की इंतजार करना।
  • किसी दूसरे की वस्तु को न लेना। आवश्यकता पङने पर पूछ कर लेना, काम हो जाने पर धन्यवाद के साथ वापिस देना।
  • सामान को व्यवस्थित रखना।
  • दूसरों की सहायता करना।
प्रेम, दया, करुणा, परोपकार, स्नेह, सम्मान आदि गुणों की लम्बी सूची बन सकती है। बालक अनुकरण करके ही सीखता है, अतः उसे प्रेम और सौहार्द से सिखाएं।
  1. देशभक्ति – वैसे तो उपरोक्त संस्कार भी देश भक्ति ही सिखाते हैं बशर्ते कि यह कृतिशील/व्यवहार में हो। फिर भी स्वदेशी वस्तुओं से प्रेम, प्रकृति/पर्यावरण का संरक्षण, राष्ट्रीय त्यौहारों एवं महापुरुषों की जयन्तियों पर देश की गौरवमयी बातों को गीत, कहानी, वार्तालाप, नाटक और वेश-भूषा (फैंसी शो) तथा महापुरुषों के छोटे छोटे नारे बोलकर देशभक्ति के भाव का जागरण करना चाहिए। देखकर, सुनकर, बोलकर बालक के चित्त पर चित्र बनता है और इसी चित्र से उसका चरित्र बनता है।

इस श्रृंखला के अगले सोपान में बालक की क्षमताओं के विकास के संदर्भ में चर्चा करेंगे।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

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