शिशु शिक्षा 36 – जीवन का घनिष्ठतम अनुभव (परिवार/आचार्य शिक्षण)

✍ नम्रता दत्त

शिशु शिक्षा पर विशेष महत्व एवं चिन्तन का कारण है उसका समग्र विकास जो कि इस अवस्था में 85 प्रतिशत हो जाता है। इस समग्र विकास/व्यक्तित्व विकास को दो भागों में बांटकर समझा जा सकता है –

  1. व्यक्तित्व/ व्यष्टिगत/ पंचकोशात्मक विकास (अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनन्दमयकोश)।
  2. समष्टिगत (परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व), सृष्टिगत (पर्यावरण) और परमेष्ठिगत (परमात्मा, इस सम्पूर्ण सत्ता को बनाने वाला)।

गत सोपानों में अनौपचारिक शिक्षा क्या और क्यों पर विचार किया था। इस सोपान में अनौपचारिक शिक्षा ‘कैसे’ पर विस्तार से विचार करेंगे। उपरोक्त समग्र विकास हेतु बालक के मसितष्क का 85 प्रतिशत विकास पठन और लेखन/ भाषण के द्वारा सम्भव नहीं बल्कि इसका आधार अनौपचारिक शिक्षा द्वारा संस्कारों का निर्माण करना है। उल्लेखनीय है कि अनौपचारिक शिक्षा को हम शिशु की प्रारंभिक अवस्था में देखभाल मान सकते हैं जो कि बाल्यावस्था में जाकर औपचारिक शिक्षा का आधार बनेगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी इसको (ECCE) सीखने की नींव कहा गया है। तो आइए जीवन की नींव से ही प्रारम्भ करते हैं –

जीवन का घनिष्ठतम अनुभव

इस जीवन की प्रारम्भिक अवस्था क्या है, जिसका ज्ञान एवं ध्यान हमें सीखने/शिक्षा में सहयोगी हो सकता है। शिक्षा पेट भरने का साधन नहीं अपितु जीवन जीने की कला है। इसलिए कहा जाता है – सा विद्या या विमुक्तये।

  1. पंचमहाभूत तत्वों का परिचय

यह तन जिसमें आत्मा निवास करती है, पंचमहाभूत तत्वों से बना है। जैसे मिट्टी से बना घङा मिट्टी में ही मिल जाता है, वैसे ही पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) से बना यह तन पांच तत्वों में ही मिल जाता है। परन्तु इस तन के माध्यम से किए गए कर्मों के संस्कार, इसमें स्थित आत्मा (जो कि अजर, अमर और अविनाशी है) अपने साथ ले जाती है। अगले जन्म में यही संस्कार उसके पूर्व जन्म के संस्कार कहलाते हैं। सृष्टि के पांचों तत्व हमारे तन/शरीर में विद्यमान होते हैं।

जैसे मिट्टी, रेत, कंकङ-पत्थर और धातु आदि पृथ्वी तत्व से बने हैं वैसे ही शरीर की मांसपेशियां, हड्डियां आदि भी पृथ्वी तत्व से बने हैं। शरीर में बहने वाला खून, पसीना और मल-मूत्र आदि जल का रूप हैं, आंखों के तेज और जठराग्नि में अग्नि तत्व होता है, श्वास-प्रश्वास, रक्त का प्रवाह, हृदय की धङकन, मल-मूत्र का त्याग सब वायु के ही कारण सम्भव है और शरीर में जो भी स्थान खाली है, वहां आकाश तत्व विद्यमान होता है जैसे – गला (वाणी तंत्र), श्वास नलिका और कान आदि।

इन पांच तत्वों से न केवल यह शरीर बनता है, इन पांच तत्वों से ही पांच ज्ञानेन्द्रिय भी बनती हैं और इन्हीं के माध्यम से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए इन पंचमहाभूतों का परिचय एवं इनके गुणधर्मों के बारे में बताना ही जीवन का घनिष्ठतम अनुभव देना है।

अभिभावक और आचार्य को इसके महत्व की गहनता को समझना चाहिए क्योंकि शिक्षा/सीखने के लिए यह शरीर और ज्ञानेन्द्रियां ही मुख्य साधन (Main Tools) हैं और ये दोनों पंचमहाभूत से ही बने हैं। शिशु अवस्था में चित्त की सक्रियता के कारण इनके माध्यम से लिए गए अनुभव सीधे ही आत्मा के संस्कार बन जाते हैं। शिशु जैसा देखेगा (ज्ञानेन्द्रिय आंख द्वारा), जैसा सुनेगा (ज्ञानेन्द्रिय कान द्वारा) वैसा ही अनुकरण करेगा। ऐसा ही अन्य ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभवों के द्वारा ही संस्कार बनते हैं।

  1. पदार्थो के गुणधर्म का परिचय

माता के गर्भ में 9 मास तक रहने के कारण शिशु को माता से ही सर्वाधिक प्रेम, स्नेह और सुरक्षा का अनुभव होता है, उसी तरह इन पंचमहाभूतों से बना होने के कारण वह इनके बीच में रहने से ही आनन्द की अनुभूति करता है। मिट्टी-पानी में खेलना, खुली हवा में घूमना, आकाश में सूरज-चांद-तारों और उङते पक्षियों को देखना उसे भाता है। ये सब प्राकृतिक रूप से उसके स्वभाव में शामिल होता है और इन्हीं सबसे तो उपरोक्त समग्र विकास की पूर्ति होनी है। अज्ञानता वश हम इन सबके सान्निध्य से उसे रोकने का प्रयास करते हैं, जबकि हमें तो खेल खेल में उसके इस आनन्द से उसे उचित सीखने का वातावरण देना चाहिए।

उदाहरण के लिए पंचमहाभूतों के कुछ गुणधर्म –

  • सूखी मिट्टी कठोर होती है, पर गीली मिट्टी कोमल होती है।
  • मिट्टी पानी को सोख लेती है, पर पत्थर नहीं सोखता।

  • दो पत्थरों को रगङने से चिंगारी निकलती है।

  • पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है।

  • तेल डालने से आग जलती है, पर पानी डालने से आग बुझ जाती है।

  • गोल चीज लुङकती है, पर चपटी नहीं।

  • पानी को जिस बर्तन में डालो, वैसा ही रूप ले लेता है।

  • पानी में कुछ चीजें डूब जाती हैं और कुछ चीजें तैरती रहती हैं।

  • आग हवा के कारण ही जलती है और हवा के कारण ही बुझ भी जाती है, क्यों और कैसे ?

  • खुले और खाली बन्द कमरे मे आवाज गूंजती है।

यह सब भौतिक विज्ञान, इस भौतिक जगत से ही जुङा हुआ है। ऐसे ही अनेक गुणधर्मों का अनुभव केवल गतिविधियों के द्वारा अनौपचारिक रूप से इसी आयु में देना ही अनिवार्य है क्योंकि यही आयु सीखने की नींव कहलाती है। इस आयु में पढ़ना और लिखना तो उसको आता ही नहीं और मात्र भाषण से अनुभव लेना सम्भव नहीं। इसीलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने भी क्रिया आधारित एवं खोज आधारित शिक्षा की शिक्षण विधियों (Padagogy) को सीखाने का माध्यम बताया है।

यह अनुभव केवल प्री-स्कूल/शिशुवाटिका में ही नहीं बल्कि घर में भी दिये जा सकते हैं। इसलिए अभिभावकों को भी इसका ज्ञान होना जरूरी है। शिशुवाटिका में भी इन अनुभवों को कराने के लिए सामग्री से सुसज्जित प्रयोगशाला की आवश्यकता होती है। शिशुवाटिका की आचार्य दीदी को भी समय समय पर अभिभावकों को गतिविधियों एवं उससे होने वाले विकास के बारे में बताना चाहिए।

  1. ललित कलाओं का रसास्वादन

कला के बिना मनुष्य पशु के समान माना जाता है। शिशु अवस्था में शिशुओं की चित्रकारी के शौक को कौन नहीं जानता। घर की दीवारें हों या भाई-बहन की पुस्तक-कापियां, शिशुओं की चित्रकारी से अछूती नहीं रहती।

किसी संस्कार पत्रिका के लेखन के लिए मेरा किन्हीं सज्जन के घर जाना हुआ। उनका लगभग 3 वर्ष का पोता मोहित उनके पास था क्योंकि उनकी बहू विद्यालय में पढ़ाने गई हुई थीं। मोहित को व्यस्त करने के लिए उन्होंने एक कागज और पेंसिल दे दी। मोहित ने कागज पर कुछ गोल गोल और आङी-तिरछी रेखायें बनाकर अपने माता-पिता, बङे भाई तथा दादा जी के चित्र बनाए। अब वह बोर होने लगा तो उन्होंने यूटयूब पर बच्चों की कविताएं चला दीं। मोहित मस्त होकर नाच-नाच कर कविता गाने लगा। हमारा कार्य भी लगभग खत्म हो गया, तो दादा जी ने उसे कहानी सुनाने के लिए कहा। मोहित ने पूरे हाव-भाव के साथ कहानी सुनाई। अभी मोहित की माँ भी विद्यालय से वापिस आ गई थीं। उन्होंने आते ही हमारे लिए भोजन पकाना शुरू किया। परन्तु मोहित अपनी माँ के साथ खेलना चाहता था। माँ ने उसे थोङा सा आटा दिया और कहा कि कल जैसे चिङिया बनानी सिखाई थी, वैसी बनाओ। मोहित तो प्रसन्न…। उसने आटे से चिङिया और सांप आदि बनाए।

मोहित की माँ शिशुवाटिका की आचार्य थीं। शिशु के मनोविज्ञान और उसके विकास को भली प्रकार जानती थीं। उन्होंने दादा जी को भी यह सब बता रखा था। यही सब तो ललित कलाएं हैं। चित्र बनाना, गीत गाना, कहानी सुनाना, बातें करना, नाटक करना, खिलौने बनाना आदि। खेल खेल में मोहित आनन्द से ये सभी कलायें सरलता और सहजता से सीख रहा था। मोहित की माँ जैसी जागरूकता प्रत्येक अभिभावक में होनी चाहिए।

ऐसी गतिविधियों से शिशु में सृजनशीलता का संस्कार आता है। ऐसा सृजनशील बालक कभी विसर्जन (तोङ-फोङ /हानि) नहीं कर सकता। यही तो है जीवन का घनिष्ठतम अनुभव।

समग्र विकास की इस कङी का शेष भाग अगले सोपान में …….. ।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

और पढ़ेंशिशु शिक्षा 35 – अनौपचारिक शिक्षा क्या, क्यों और कैसे?

Facebook Comments

One thought on “शिशु शिक्षा 36 – जीवन का घनिष्ठतम अनुभव (परिवार/आचार्य शिक्षण)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *