शिशु शिक्षा 35 – अनौपचारिक शिक्षा क्या, क्यों और कैसे?

✍ नम्रता दत्त

गत सोपान में हमने जाना कि शिशु अवस्था (3 से 5 वर्ष) में शिक्षा का अर्थ पढ़ना-लिखना अर्थात् औपचारिक शिक्षा नहीं अपितु अनौपचारिक शिक्षा द्वारा सीखना होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह अनौपचारिक शिक्षा है क्या, जिससे शिशु का 85 प्रतिशत विकास हो जाता है।

अनौपचारिक शिक्षा क्या और क्यों?

यह 85 प्रतिशत समग्र विकास भी वास्तव में है क्या, यह जानना भी भावी पीढी के निर्माताओं अर्थात माता-पिता और शिक्षकों को समझना अनिवार्य है। तब ही वे इस विकास को करने के लिए क्या करें, ऐसा समझने में सक्षम होंगे।

हम जानते हैं कि आत्मा अजर, अमर और अविनाशी होती है। इसीलिए आत्मा के संस्कार उसमें समाहित रहते हैं। एक आत्मा में पूर्व जन्म के संस्कार लगभग 70 प्रतिशत होते है, मात -पिता से प्राप्त संस्कार 20 प्रतिशत होते हैं और वातावरण से प्राप्त संस्कार 10 प्रतिशत होते हैं। जन्म के समय आत्मा को अपना पूर्व जन्म याद होता है, परन्तु कमेन्द्रियों के विकसित न होने के कारण उसके यह संस्कार उजागर नहीं हो पाते। लेकिन जैसे जैसे उसकी कर्मेन्द्रियां विकसित होने लगती हैं वे संस्कार उजागर होने लगते हैं। उन संस्कारों का उजागर होना भी अत्यन्त अनिवार्य हैं क्योकि ये संस्कार अच्छे और बुरे कैसे भी हो सकते हैं।

गर्भ में माता-पिता के संस्कार उसके पूर्व जन्मों के संस्कार को प्रभावित करते हैं, परन्तु संस्कारों को सही दिशा देने के लिए वातावरण द्वारा संस्कार देना सबसे श्रेष्ठकर है। इस आयु में वातावरण के 10 प्रतिशत संस्कारों के द्वारा भी उसके पूर्व जन्म के 70 प्रतिशत कुसंस्कारों को भी बदला जा सकता है क्योंकि इस आयु में चित्त की सक्रियता के कारण बच्चा नए संस्कारों को तत्काल और स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है।

यदि इन संस्कारों को उजागर होने का अवसर ही नहीं मिला तो वातावरण द्वारा इन्हें सुधारने का अवसर ही नहीं मिलेगा। वातावरण द्वारा श्रेष्ठ संस्कारों का निर्माण करना ही अनौपचारिक शिक्षा/सीखाना है। इसीलिए इस अवस्था में बच्चे को प्रेम, स्नेह और स्वतंत्रता में पालना चाहिए, ताकि उसके पूर्व जन्म के संस्कार सहजता से बाहर आ सकें।

इस समय में जब औपचारिक शिक्षा (पठन-लेखन) के बंधन में हम उसको बांध देते हैं तो ये संस्कार उजागर नहीं हो पाते और इनको उचित दिशा देने का अवसर ही नहीं मिल पाता। संस्कारों को मिली यही दिशा ही उसके चरित्र का निर्धारण करती है और जीवन जीने के दृष्टि देती है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी प्रारम्भ्कि बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ECCE) को सीखने की नींव कहा क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे के मस्तिष्क का 85 प्रतिशत विकास 6 वर्ष से पूर्व ही हो जाता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था (3 से 8) में इसको दो खण्डों में बांटा गया है – देखभाल (3 से 6 वर्ष) और शिक्षा (6 से 8 वर्ष, पूर्व प्राथमिक शिक्षा)। अतः स्पष्ट है कि 3 से 6 वर्ष में जो देखभाल करनी है वही अनौपचारिक शिक्षा कहलाती है और इसी से बच्चे में औपचारिक शिक्षा को ग्रहण करने की पात्रता विकसित होती है। इसमें स्वस्थ शरीर की देखभाल के साथ स्वस्थ संस्कार के प्रति भी देखभाल करना आवश्यक है क्योंकि जन्म से ही प्राप्त ज्ञानेन्द्रियों के साथ-साथ अब उसकी कर्मेन्द्रियों भी विकसित हो रही हैं जिसके कारण वह ज्ञानेन्द्रियों से जैसा भी अनुभव प्राप्त करता है, कर्मेन्द्रियों से तुरन्त उसकी अभिव्यक्ति कर देता है और यही अभिव्यक्ति उसका संस्कार बन जाती है।

जैसे दूध पीने की अवस्था में बच्चे को अन्न नहीं खिलाया जा सकता, वैसे ही 6 वर्ष से पूर्व उसको औपचारिक शिक्षा (पठन-लेखन) नहीं दी जा सकती। अज्ञानता वश ऐसा करने से उसके परिणाम विपरीत ही होंगे (गत सोपान में इसकी चर्चा की गई है)।

वास्तव में यह अवस्था संस्कार ग्रहण करने के लिए उपयोगी होती है क्योंकि इस समय सूक्ष्म बुद्धि की निष्क्रियता (यह 6 वर्ष की आयु में सक्रिय होती है) के कारण चित्त की सक्रियता रहती है और संस्कार चित्त पर ही होते हैं। सुसंस्कारों से सुसज्जित आत्मा ही आलौकित होती है। यह आलोक ही आत्मविश्वास का वाहक बनता है। इन संस्कारों के आधार पर ही चरित्र निर्माण होता है और चरित्र से ही भावी पीढ़ी श्रेष्ठ बनती है। इसीलिए कहा जाता है कि राष्ट्र का धन बैंकों में नहीं, विद्यालयों में होता है। संस्कार के अभाव में शिक्षा निरर्थक सिद्ध होती है। इसके अभाव में ही शिक्षित व्यक्ति भी भ्रष्टाचारी, व्याभिचारी, निर्दयी और स्वार्थी जैसे कुसंस्कारों से ग्रस्त हो जाता है। वह स्वार्थवश समाज एवं देश को छलता है। अतः संस्कारों के निर्माण की इस अवस्था पर सर्वप्रथम सचेत रहने की आवश्यकता है। इनके प्रति सचेत रहने वाले माता-पिता और शिक्षक ही राष्ट्र निर्माता कहलाते हैं।

इसी शिशु/बाल मनोविज्ञान के कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इसे सीखने की नींव कहा है।

जैसे श्रेष्ठ भवन बनाने के लिए मजबूत नींव की आवश्यकता होती है वैसे ही जीवन जीने की कला सीखने के लिए संस्कारों की आवश्यकता होती है। औपचारिक शिक्षा (भाषा एवं  गणित) विषय विशेष का ज्ञान तो भावी स्वाध्याय कर ज्ञान और अर्जित अनुभव को आत्मसात करने के लिए है। परन्तु भावी जीवन जीने की कला का आधार अथवा नींव इसी शिशु अवस्था की देखभाल (राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में वर्णित) अर्थात् संस्कार निर्माण से ही होगी। जैसे कच्ची मिट्टी के बर्तन को भट्टी में पकाने के बाद सुधार नहीं किया जा सकता ऐसे ही इस अवस्था में चूक जाने के बाद सुधार की संभावना बिल्कुल ऐसे ही है जैसे खेती सूखने के बाद वर्षा का होना। इस प्रारम्भिक अवस्था में देखभाल करना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है और शिक्षा के इसके बाद का (ECCE)।

अनौपचारिक शिक्षा कैसे?

निम्नलिखित तीन विषयों एवं उपविषयों में अनौपचारिक गतिविधियों के माध्यम से देखभाल करके हम बच्चे का न केवल समग्र विकास कर सकते हैं बल्कि औपचारिक शिक्षा के लिए पूर्व तैयारी भी कर सकते हैं –

  1. जीवन का घनिष्ठत्तम अनुभव
    • पंचमहाभूत तत्वों का परिचय
    • पदार्थों के गुणधर्म का परिचय
    • ललित कलाओं का रसास्वादन
    • सजीव सृष्टि का परिचय
    • मानव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध
  1. संस्कार एवं चरित्र निर्माण
    • पूर्वजों का परिचय एवं उनसे प्रेरणा
    • संस्कृति का परिचय एवं उनसे प्रेरणा
    • सद्गुण एवं सदाचार
    • देशभक्ति
  1. क्षमताओं का विकास
    • शारीरिक विकास
    • प्राणिक विकास
    • मानसिक विकास
    • बौद्धिक विकास
    • चैतसिक विकास

अगले सोपान से हम उपरोक्त विषयों पर क्रमशः चर्चा करेंगे।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

और पढ़ें : शिशु शिक्षा 34 – अनौपचारिक व औपचारिक शिक्षा

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