भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 77 (शासनाधीन शिक्षा के दुष्प्रभाव)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

हमारे देश में अंग्रेजों के आने तक शिक्षा कभी भी शासन के अधीन नहीं रही। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा को शासन के अधीन कर दिया और  शिक्षा पर  शासन के नियम लागू होना और इन नियमों का पालन करना अनिवार्य हो गया। अंग्रेजी नियम भारतीय स्वभाव एवं समाज रचना के विपरीत थे। इनका पालन करने के फलस्वरूप अनेकानेक दुष्प्रभाव हुए और आज भी हो रहे हैं।

अनिवार्य शिक्षा का नियम

भारत सरकार का नियम है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के बालक व बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य है। इस नियम के अनुसार उक्त आयुवर्ग के बालक-बालिकाओं को विद्यालय भेजना अनिवार्य है। यदि कोई अभिभावक अपने बालक को विद्यालय न भेजे तो उस अभिभावक पर बालक को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने का अपराध लगता है। इसलिए वह अपने बालक को विद्यालय भेजने के लिए विवश हो जाता है। हम सब भी उस अभिभावक को कोसने लगते हैं कि तुम कैसे पिता हो? अपने ही बालक को शिक्षा से वंचित रख रहे हो। किन्तु हमें उसकी विवशता समझ में नहीं आती।

अब तनिक भारत की समाज रचना का स्मरण करें। भारत में  सभी काम-धन्धे एक व्यक्ति के नहीं सम्पूर्ण परिवार के होते थे। कुम्हार का पुत्र कुम्हारी का काम, लुहार का पुत्र लुहारी का काम, सुनार का पुत्र सुनारी का काम और किसान का पुत्र किसानी का काम करता था। इसका लाभ यह था कि ऐसे सारे काम-धन्धे करने वाले कारीगरों को अपने सहयोगी घर में ही मिल जाते थे। इन बालकों को काम सीखने का उत्तम अवसर सहज में मिल जाता था और कुछ ही वर्षों में वे उस काम में पारंगत हो जाते थे। बेरोजगारी की कोई समस्या नहीं थी। सरकार को इन्हें कुशल कारीगर बनाने में एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ता था।

शासन के इस अनिवार्य शिक्षा के नियम के कारण कारीगर और उनके बच्चे संकट में पड़ जाते हैं। कारीगरों को विश्वस्त सहायक नहीं मिलते। पढ़-लिख कर कुम्हारपुत्र कुम्हारी का, किसानपुत्र किसानी का, सुनारपुत्र सुनारी का तथा लुहारपुत्र लुहारी का काम करना ही नहीं चाहता। परिणामस्वरूप कारीगरों के काम-धन्धे चौपट हो जाते हैं। आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ कारीगरी की उत्कृष्टता, व्यवसाय का गौरव तो समाप्त होता ही है, सामाजिक ताना-बाना भी नष्ट हो जाता है।

शासन से स्वतंत्र ज्ञान अमान्य

शासन के नियंत्रण में रहकर विद्यार्थी 9 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करता है, तब भी उसे ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं आता। विज्ञान पढ़ने के उपरांत भी उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं होता। फिर भी परीक्षा पास कर लेता है, और उसे शिक्षित होने का प्रमाणपत्र मिल जाता है।

दूसरी ओर कोई विद्यार्थी शासन मान्य विद्यालय में तो नहीं गया परन्तु कुल परम्परा में रहते हुए उसने शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। किसी ने विश्वविद्यालय में प्रवेश तो नहीं लिया परन्तु किसी योग्य नाड़ी वैद्य की सेवा में रहते हुए चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त कर लिया, परम्परा से चलती आई प्रसूति विषयक परिचर्या में विशेषज्ञता प्राप्त कर ली तथा वह वनौषधियों का भी उत्तम ज्ञाता बन गया। किसी श्रेष्ठ मुनि के सान्निध्य में रहकर एक ब्रह्मचारी आसन प्राणायाम करते करते समाधि अवस्था तक पहुँचा और मनुष्य शरीर की आन्तरिक रचना एवं मनुष्य के स्वभाव को जान गया, तब भी वह शासन की मान्यता में अशिक्षित ही है। ऐसे विद्यार्थी अपनी विद्या का उपयोग पैसे कमाने के लिए तो कर ही नहीं सकते, समाज की सेवा में भी अपनी विद्या का उपयोग नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो वह कानून की दृष्टि में एक अपराधी बन जाता है। शिक्षा शासन के अधीन होने के कारण अयोग्य को योग्य व योग्य को अयोग्य मान लिया जाता है।

शासकीय तंत्र व ज्ञान स्वभाव से विरोधी हैं

शासकीय तंत्र का तथा ज्ञान का स्वभाव एक-दूसरे का विरोधी है। तंत्र के नियम, नियमों के अर्थ करने की पद्धति, नियम भंग होने पर चलने वाली कार्यवाही और दंडविधान ये सब यांत्रिक होते हैं। जबकि शिक्षा स्वैच्छा, स्वतंत्रता, सेवाभाव और दायित्वबोध से चलने वाली प्रक्रिया है। तंत्र पूर्णतया अमानवीय है जबकि शिक्षा पूर्णतया मानवीय है। दोनों का कोई मेल नहीं है। अमानवीय तंत्र मानवीय गतिविधियों को नियंत्रित करता है। जिससे मानवीय के अमानवीय हो जाने की पूर्ण संभावना रहती है। अनुभव कहता है कि ऐसा ही होता है। मानवीय गतिविधियाँ अमानवीय ही नहीं विकृत भी हो जाती हैं।

शासन का कार्य समाज की सभी व्यवस्थाओं की सुरक्षा करना है, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करना है। उनके सुचारू संचालन में सहायता करना है, न कि व्यवस्थाओं को अपने नियंत्रण में लेकर उनका संचालन करना है। शिक्षा शासन को दायित्व बोध करवाने तथा उनका निर्वहन कैसे करना, यह सिखाती है। शासन अपने मार्गदर्शक शिक्षा को ही नियंत्रित कर अपनी ही हानि कर रहा है।

कल्याणकारी योजनाओं की दुर्गति

शासन शिक्षा के क्षेत्र में अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चलाता है। परन्तु शासन द्वारा चलाए जाने के कारण वे योजनाएँ अकल्याणकारी स्वरूप धारण कर लेती हैं। साक्षरता अभियान, सर्वशिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन, निशुल्क शिक्षा, निशुल्क पाठ्यपुस्तकें तथा निशुल्क गणवेशादि के वितरण की योजनाएँ मूलरूप से तो कल्याणकारी योजनाएँ ही हैं, परन्तु अमानवीय तंत्र के फलस्वरूप उनकी दुर्गति हो जाती है। न तो व्यवस्था होती है, न वे कल्याण कर पाती हैं और न शिक्षा मिल पाती हैं। ऐसी विसंगति निर्माण होती है।

शासन में बैठे हुए शिक्षा को नियंत्रित करने वाले लोग स्वयं अधिकृत रूप में अशिक्षित हों तब भी व्यवस्था को कोई आपत्ति नहीं होती। लोकतंत्र में अशिक्षित या बहुत कम शिक्षित नेताजी शिक्षा मंत्री बनते देखे गए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में ज्ञान, समझ या भावना निर्णायक नहीं होते, जनमत ही निर्णायक होता है। इस जनमत को राजनीतिक दल युक्ति-प्रयुक्ति अपनाकर अपने पक्ष में कर लेते हैं। इस प्रकार सत्ता प्राप्त करने वालों को नियंत्रण का अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है।

“बिना शिक्षा के लोकतंत्र में एक अपरिमित दम्भ होता है।” यह एक फ्रेंच विद्वान का अभिमत है। अपने देश की स्थिति को देखकर यह अभिमत सत्य सिद्ध होता है। विकृत और विपरीत शिक्षा के चलते लोकतंत्र के लाभ तो मिलते नहीं, अपितु हानि सर्वत्र दिखलाई पड़ती है।

न्याय की देवी विवेकशून्य है

किसी भी गलत कार्य के लिए कानून द्वारा दंडविधान का प्रावधान है, परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि इसका विपर्यास ही दिखाई देता है। न्याय के देवता के चक्षु विवेकी होने चाहिए, परन्तु उसके अंधे होने का यह स्वाभाविक परिणाम है। न्याय की देवी अंधी है, इसका निहितार्थ है कि वह पक्षपात नहीं करती। किन्तु अंधी होने से वह विवेकशून्य हो जाती है। जैसे, लकड़ी काटने का यंत्र लकड़ी काटता है परन्तु लकड़ी के स्थान पर मजदूर का हाथ आ जाता है तो वह हाथ को भी काट देता है। यंत्र का काम काटना है, चाहे लकड़ी हो या हाथ हो वह तो काटेगा। उसमें यह विवेक नहीं है कि मुझे हाथ नहीं काटना है। न्याय की अंधी देवी का न्याय भी लक्षित न होने से ऐसा ही होता है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में शासक व प्रशासक को शस्त्र, शास्त्र और शील से सम्पन्न होना अनिवार्य बताया है। सुरक्षा के लिए शस्त्र का व व्यूह रचना का ज्ञाता, परम्परा को जानने तथा बुद्धिमान होने के लिए शास्त्र का ज्ञाता और प्रजा का कल्याण कर सके ऐसी सद्बुद्धि के लिए शील सम्पन्न होना अनिवार्य माना गया है। परन्तु वर्तमान शासन नियंत्रित व्यवस्था में इस बात की घोर उपेक्षा हो रही है।

शासक की तुलना में शिक्षक कम प्रभावी

शिक्षा शासन के अधीन होने से शासन का स्थान उच्च व शिक्षा का स्थान निम्न हो गया है। ज्ञान विषयक, संस्कार विषयक सूत्रों का उल्लेख एक शिक्षक करता है तो उसका प्रभाव कम होता है, परन्तु वही बात एक शासक कहता है तो वह अधिकृत माना जाता है। जनमानस पर शासन का प्रभाव अधिक होता है।

सत्ता के प्रभाव के कारण कोई शिक्षक यदि विधायक, सांसद, मंत्री अथवा राष्ट्रपति बन जाता है तो स्वयं को गौरवान्वित मानता है। उसने अपने जीवन में बहुत अधिक प्रगति कर ली, ऐसा लोग भी मानते हैं। मंत्री अपना मंत्री पद छोड़कर शिक्षक बनना नहीं चाहता, क्योंकि समाज में मंत्री को बड़ा और शिक्षक को छोटा माना जाता है।

विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति शासकीय होती है। शासन के विधान के अनुसार काम करने वाले राज्यपाल या राष्ट्रपति विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं। यह व्यवस्था शासन की सर्वोपरिता सिद्ध करती है। कोई भी कुलपति या प्रधानाचार्य अपने अनुगामी की नियुक्ति नहीं कर सकता। इसी प्रकार एक शिक्षक अपने शिक्षकत्व के आधार पर किसी शिक्षा संस्थान का संचालन नहीं कर सकता। संचालन करने के लिए उसे शिक्षक होते हुए भी संस्था का अध्यक्ष या मंत्री होना अनिवार्य होता है। शोध संस्थानों के निदेशक के ऊपर भी सचिव और अध्यक्ष होते हैं। कुलपति, निदेशक और प्रधानाचार्य शासन के अध्यक्ष व मंत्री के द्वारा नियुक्त कर्मचारी मात्र होते हैं, भले ही उनका पद व वेतन ऊँचा हो।

भगीरथ प्रयत्न करने होंगे

पराधीन भारत में अंग्रेजी शासन और प्रजा एक दूसरे के विरोधी थे। प्रजा मुक्त होना चाहती थीं जबकि अंग्रेजी शासन उन्हें गुलाम ही बनाए रखना चाहता था। मुक्ति चाहने वाली प्रजा को गुलाम बनाये रखने के लिए की गई व्यवस्था देश के स्वतंत्र होने के बाद भी यथावत चल रही है। ऐसा होना बिल्कुल अस्वाभाविक है परन्तु ऐसा ही है, यह वास्तविकता है। स्वाधीनता के पश्चात शिक्षा व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से भिन्न स्वतंत्र व स्वायत्त होनी चाहिए थी। परन्तु ऐसा हुआ नहीं, इसीलिए आज अनेक संकट पैदा हुए हैं। केवल इतना ही नहीं तो संकटों को दूर करने वाली शिक्षा स्वयं संकटग्रस्त है। “सा विद्या या विमुक्तये” का सन्देश देने वाली शिक्षा ही बन्धन में पड़ी है। अतः शिक्षा को शासन के बन्धनों से मुक्त करवाना शिक्षा क्षेत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए भारतीय शिक्षा प्रेमियों को भगीरथ प्रयत्न करने होंगे, तभी भारतीय शिक्षा पुनः स्वतंत्र व स्वायत्त होगी और तभी वह मुक्ति दिलाने वाली बन पायेगी।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 76 (भारत की शिक्षा भारतीय नहीं है)

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