शिशु शिक्षा 39 – क्षमताओं का विकास

✍ नम्रता दत्त

शिशु के जीवन के प्रारम्भ्कि पांच वर्ष सीखने की नींव के वर्ष होते हैं। पांच वर्ष की यह सीख/शिक्षा सम्पूर्ण जीवन की नींव का कार्य करती है। नींव मजबूत होगी तो भवन (जीवन) मजबूत होगा। अतः इस अवस्था में शिशु के विकास को समझकर ही उसे सही वातावरण दिया जा सकता है। सामान्यतः माता-पिता/परिवार के सदस्य शिशु को छोटा समझ कर उसे अपने ढंग से सिखाने का प्रयास करते हैं। परन्तु शिशु का महज शरीर ही छोटा है, उसकी अन्तःप्रेरणा बहुत बङी है। इसी के कारण वह एक साधक/योगी है। इस अन्तःप्रेरणा के कारण ही वह माँ की गोद से अपने पैरों पर चलना, स्वयं भोजन खाना, अपने भावों को हाव भाव के साथ व्यक्त करना (भाषा) आदि आदि …..सीखता है अर्थात् हाथ, पैर और वाणी की कर्मेन्द्रियों साधने का अखण्ड प्रयास करता है। शिशु की अन्तःप्रेरणा के बिना यह सब कार्य माता-पिता अनेकों प्रयास के बाद भी नहीं सीखा सकते। यह सब ही शिशु की कर्मेन्द्रियों के विकास की क्षमताएं हैं। कुछ क्षमताएं प्रत्यक्ष रूप से विकसित होती हैं जैसे शारीरिक एवं प्राणिक क्षमताएं (वृद्धि और विकास) और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से विकसित होती हैं जैसे, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक (अन्तःकरण को प्रभावित करने वाली) क्षमताएँ। इस सोपान में 3 से 5 वर्ष तक के शिशु की क्षमताओं के विकास की ही संक्षिप्त बात करेंगे। ये क्षमताएं पांच प्रकार की होती हैं –

  1. शारीरिक क्षमताएं, 2. प्राणिक क्षमताएं, 3. मानसिक क्षमताएं, 4. बौद्धिक क्षमताएं और 5. आध्यात्मिक क्षमताएं। इन क्षमताओं का विकास ही व्यक्तित्व विकास का एक पक्ष है, दूसरा पक्ष व्यष्टि से परमेष्ठि है। इसे व्यक्तित्व का पंचकोशीय विकास भी कहते हैं। आइए इन्हें क्रमशः समझते हैं –
  2. शारीरिक क्षमताएं अर्थात् अन्नमयकोश – शारीरिक क्षमताओं को सहजता से देखा और मापा जा सकता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिखाई देतीं हैं। इस विकास को देखने के लिए माता-पिता को निम्न पक्षों के प्रति सजग रहना चाहिए –
1.1 वृद्धि – सामान्यतः शिशु की वृद्धि माता-पिता के वंशानुक्रम के अनुसार ही होती है। आयु के अनुसार उसकी ऊंचाई एवं वजन आदि को मापना चाहिए। –
1.2 बल – शिशु बहुत व्यस्त रहता है। स्व-विकास की अन्तःप्रेरणा के अनुसार वह कार्य ढूंढ ही लेता है। इन कार्यों को करने में उसे बल की आवश्यकता होती है। उसकी सक्रियता और निष्क्रियता ही इसका मापदण्ड है।
1.3 लोच – विभिन्न अंगों एवं जोङों को हिलाने डुलाने में सहजता का अनुभव करना ही लोच और स्वस्थता की निशानी है।
1.4 कुशलता – हाथ, पैर आदि से जुङे कार्यों को व्यवस्थित रूप से उचित गति से करना और अपने भावों को सही व्यक्त करना (भाषा) ही कुशलता का विकास है।
1.5 निरामयता – शरीर के आन्तरिक अंग (पाचन, रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास आदि) ठीक से कार्य करते हों तो शिशु की शारीरिक क्षमताएं उचित दिशा में विकसित हो रही हैं।
1.6 तितिक्षा – सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास और थकान आदि को सहन करने की शक्ति को ही तितिक्षा कहते हैं। बल एवं निरामयता के कारण ही तितिक्षा का विकास होता है।

घर में बना आयु के अनुरूप पौष्टिक भोजन, शान्त वातावरण में सुखद बिस्तर पर ली गई भरपूर नींद, घर में किए गए घरेलू कार्य एवं मैदान में किए गए खेल आदि के रूप में किये गये व्यायाम से शारीरिक क्षमताओं का विकास होता है।

अनौपचारिक शिक्षा – वैसे तो शारीरिक विकास के उपरोक्त मापदण्डों के अनुसार वृद्धि और विकास होना ही शारीरिक विकास है परन्तु इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों को सही दिशा देना (अनुभव प्राप्ति हेतु) और प्राप्त अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए कर्मेन्द्रियों को सही वातावरण देना ही अनौपचारिक शिक्षा है। उदाहरण के लिए श्वेता अपने तीन वर्ष के बेटे और पांच वर्ष की बेटी को अपने साथ मन्दिर लेकर जाती है और जैसे पूजा अर्चना वह स्वयं करती है वैसे ही बच्चों को भी करने को कहती है। अतिथियों के आने पर वह स्वयं उन्हें सादर वंदन करती हैं और बच्चों को भी करने को कहती है। बच्चे जो भी आँख से देखते और कान से सुनकर अनुभव करते हैं वे उसकी अभिव्यक्ति अपनी कर्मेन्द्रियों (हाथ और वाणी) से करते हैं। अतः पहले करके दिखाना और फिर करने का मौका/वातावरण देना ही अनौपचारिक शिक्षा है। हाथ (पकङना, फेंकना, उछालना आदि), पैर (चलना, दौङना, कूदना आदि) वाणी (सुनकर, बोलकर और समझकर उचित जवाब देना) जैसी क्षमताओं को विकसित करने के लिए शिशुओं को सम्बन्धित गतिविधियां करने का अधिक से अधिक वातावरण देना चाहिए।

  1. प्राणिक (प्राणमयकोश) और 3. मानसिक क्षमताएं (मनोमयकोश) – तन और मन दोनों की स्वस्थता/विकास प्राणों पर ही निर्भर करता है। इसलिए प्राण केवल जीवित रहने का माध्यम ही नहीं है। प्राण बलवान नहीं तो बच्चा किसी को जोर से पुकार नहीं सकता। प्राण संतुलित न हों तो वह धीमे से कान में बात कह नहीं सकता। बीमार मनुष्य चिढचिढा हो जाता है अर्थात् उसका मन खराब रहता है ये हमने प्रत्यक्ष देखा है। साहसिक कार्य करने के लिए प्राण एकाग्र होना आवश्यक है। निर्भयता का गुण मन का होता है परन्तु निर्भयता प्राण बलवान होने से ही आती है। प्राण ही तन और मन को चलाने की ऊर्जा है। अतः प्राण बलवान, संतुलित और एकाग्र होंगे तो तन स्वस्थ और मन शान्त, एकाग्र और संवेदनशील/भावुक होगा। अतः बच्चे को अनावश्यक भय न दिखायें। इन सब क्षमताओं के विकास के लिए शिशु को कार्य करने का अवसर दें जैसे- रंग भरना, कोलाज बनाना, मिट्टी के खिलौने बनाना, ईंटों पर चलना, बाल्टी में गेंद फेंकना, अनुकूल ऊंचाई से कूदना, वजन उठाकर चलना, आदि। ऐसी गतिविधियों से शरीर, प्राण और मन तीनों की ही क्षमताएं विकसित होंगी।

अगले सोपान में बौद्धिक (विज्ञानमयकोश) और आध्यात्मिक (आनन्दमयकोश) क्षमताओं के विकास की चर्चा करेंगे।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)

और पढ़ें : शिशु शिक्षा 38 – संस्कार एवं चरित्र निर्माण

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