नमस्ते वन देवता

✍ गोपाल माहेश्वरी

प्राकृत अपनी सायकिल लेकर प्रातः से ही निकल पड़ा था। शीतलमंद पवन के झकोरे उसके तन मन में स्फूर्ति और आनंद का  संचार कर रहे थे। सायकिल के पैडल एक लय में चल रहे थे मानों वह सायकिल  नहीं चला रहा हो बल्कि उसके पैर किसी संगीतमय धुन पर थिरक रहे हो। नगर की सीमा समाप्त करके सायकिल सीमावर्ती ग्राम की पतली सड़क पर आ पहुँची तो गौमाताओं के एक झुंड ने इस गति को बदला। प्राकृत ने सायकिल हाथ में ले ली और पैदल ही चले लगा। उसने कलाई पर बँधी घड़ी देखी पौने छःबज रहे थे। वह मुस्कुराया शहर तो अभी ऊँघ रहा होगा पर गाँव का हर प्राणी मानों डेढ़ दो घंटे काम कर चुका है और अपने अपने काम में बिना किसी सुस्ती के और न ही किसी हड़बड़ी के अपने काम में ऐसा तल्लीन है मानों भगवान की पूजा कर रहा हो। मनुष्य ही क्या पशु पक्षी तक अपनी धुन में अपने काम में मग्न थे।

चार छः लोगों से राम राम करते वह खेड़ापति हनुमान मंदिर पहुँचा। मंदिर में पुजारी जी हनुमान जी की पूजा कर आरती की तैयारी कर रहे थे। धीरे धीरे गाँव वाले आते जा रहे थे। हनुमान लला को प्रणाम करते शांतभाव से पंक्तियों में बैठते जा रहे थे किसी के लिए कोई स्थान आरक्षित नहीं जो आता पहले वाले के पीछे बैठ जाता। किसी प्रकार की ऊँच-नीच नहीं, भेद भाव नहीं।

मंदिर के परिसर में ही एक अखाड़ा था। मंदिर की गौशाला से प्राप्त मट्ठा यानी छाछ पी-पीकर माखन-सी मुलायम हो चुकी लाल मिट्टी से भरा हुआ। पावन और पवन वहीं कुश्ती लड़ रहे थे । सरसों के तेल की स्वर्णिम झांई और अखाड़े की मिट्टी की पसीने से चिपकी रज प्रातःकालीन लाल किरणों से मिलकर ऐसी दम रही थी मानो साक्षात् हनुमान जी की ही दो प्रतिमाएँ परस्पर मल्लयुद्ध की साधना कर रही हों। प्राकृत के मन में गूंजा ‘अतुलित बल धामं हेमशैलाभदेहं।’ वह मुस्कुरा उठा।

पवन और पावन का अभ्यास पूरा हो चुका था। प्राकृत को देखते ही जय बजरंगी कहते देह से मिट्टी झाड़ते बाहर आ कपड़े पहनने लगे।

सायकिल वहीं छोड़ तीनों पैदल ही गाँव की सीमा पार करते हुए एक पगडंडी पर चलते चलते वनांचल में ऐसे समा गए जैसे शिशु खेलते हुए अपनी माँ की गोद में समाकर उसके आँचल में स्वयं को छुपा लेने का आनंद लेते हैं।

सामने एक अपनी ही मस्ती में बिना रोकटोक एक छोटी नदी कल-कल करती बह रही थी। घुटनों तक पानी के नीचे छोटे बड़े पत्थर साफ दिख रहे थे। बहते पानी ने घिस-घिस कर उनका नुकीलापन समाप्त कर दिया था। वे उसके जल को प्रणाम करके नदी में उतर गए, बीच में पहुँच कर मन भर कर नहाने लगे। एक काले पत्थर से गढ़ी प्रतिमा जैसी काया बाँसुरी बजाती निरंतर आती गई।

“लो आ गए हमारे कान्हा जी। आ जाओ सब बाहर।” प्राकृत बोला। तीनों हँसते हुए बाहर आ गए मानो इस चौथे मित्र की प्रतीक्षा में ही थे। पास आने पर दिखा कान्हा न केवल बाँसुरी बजा रहा है वह चलते हुए ठुमक भी रहा है ये तीनों मित्र भी ठुमकने लगे। कान्हा के पास आते ही सब हँसते हँसते उससे एकसाथ लिपट गए। वहीं एक पुराने बरगद के पेड़ के नीचे उनकी मंडली जमी। डाल पर ही पके एकदम ताजे फलों का छोटा-सा ढेर ही तो लगा दिया था कान्हा ने उनके बीच पर यह कहना कठिन था कि फल अधिक स्वादिष्ट थे या इनकी बातें।

“सच में कान्हा तूने वह कर दिखाया जो कहता था।” पावन ने बोला।

“कुछ विशेष नहीं भाई! वही कर रहा हूँ जो करना ही चाहिए।” अभी कान्हा की भाषा से नहीं लग रहा था कि वह वनवासी है। उसने कमर पर बंधा आधी धोती जैसा कपड़ा उतारा और अपने थैले से कुर्ता पाजामा निकालकर पहन लिया। “चलो चलो देर हो रही है। सब प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”

वे इतने तेजी से चल रहे थे जैसे उड़ रहे हों। आश्चर्य यह कि श्वास एक की भी नहीं फूल रही थी और इसका रहस्य था नियमित योगाभ्यास। चार पाँच तरुण एक छोटे से गाँव की सीमा पर बने गाँव और वन की सीमा पर बने शिव जी के चबूतरे के पास पहले से उपस्थित थे। इन चारों के आते ही सब मंडल बनाकर बैठ गए। प्राकृत बोलने लगा “हम सब गाँवों और वनों से रहने वाले हैं। हमें अवसर मिला और अच्छे विद्यालय में पढ़ने लगे। विद्यालय में यह हमारा अंतिम वर्ष है। अब आगे?”

“आगे क्या, मेरे बापू तो मेरी पढ़ाई से बहुत प्रसन्न हैं कहते हैं चाहे खेत बेच दूँगा पर तुझे बड़े कालेज में भर्ती करवाकर अफसर बनवाऊँगा।” राधे बोला।

“मैं तो अपने घर का इकलौता बेटा हूँ। विज्ञान में बहुत रुचि है। हम तो गाँव का मकान छोड़कर दिल्ली जा रहे हैं क्योंकि मुझे किसी बड़े विश्वविद्यालय के नामी कॉलेज में पढ़ना भी है और माता-पिता मेरे बिना रह भी नहीं सकते।” रमेश बहुत उत्साहित था।

“मुझे तो आरक्षण का लाभ भी मिलेगा भाइयो! वनवासी जो हूँ। कॉलेज में एडमिशन भी पक्का और सरकारी नौकरी भी।” राम्या जैसे कल्पना के पंख लगाए उड़ रहा था।

“मेरे बापू ठहरे गाँव के प्रधान। मुझे जाना है राजनीति में देखना एक दिन झक सफेद कपड़ों में विधायक बन कर राज करूँगा इसी क्षेत्र में।” धीरू की बातें सबसे हटकर थीं।

“भगवान ने हमें अवसर दिया, क्षमताएँ दीं तो हमें आगे बढ़ना ही चाहिए, विकास न किया तो पढ़ाई लिखाई का क्या लाभ?” सुरेश ने कहा तो अधिकांश के सिर सहमति में हिल उठे लेकिन पावन, पवन मौन रहे।

प्राकृत ने कहा “सोचें जरा क्या यही ठीक है? या यह कुछ अधूरा सा विचार है।” जैसे विचारों की गाड़ी के किसी ढलान से उतरते-उतरते बढ़ती गति पर अचानक ब्रेक लगाया हो। क्षणभर सब चौंके।

कान्हा ने मौन भंग किया “सही कह रहे हो सुरेश! भगवान ने अवसर दिया है, बल ,बुद्धि, क्षमताएँ दीं हैं तो विकास करना तो ही चाहिए पर किसका? अपने आप का? बस!”

पावन ने कहा “माता-पिता हमारे बिना नहीं रह सकते हैं तो गाँव का घर छोड़कर दिल्ली चल दें पर क्या गाँव हमारा पालक पिता नहीं, गाँव की माटी हमारी माँ नहीं है? उसका क्या?”

पवन की व्याकुलता भी फूट पड़ी “खेत बेच दो, सरकारी नौकरी करेंगे, अपने गाँव, फालिए के सीधे सादे लोगों पर रौब दाब गाँठेंगे, शासन करेंगे। क्षमा करना, बात कड़वी है पर उन्हें ही लूटेंगे भी शायद इसलिए भगवान ने अवसर दिया है?” उसके स्वर में गहरी पीड़ा और व्यंग था।

“भगवान ने हमें अवसर तो इतना दिया है कि हम भगवान भी बन सकते हैं। आज से लगभग 5100 वर्ष पहले की बात है वन नदी पर्वत से घिरे एक छोटे-से गाँव में पला बढ़ा कृष्ण, अपने गाँव अंचल को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने, अपने नदी, पर्वत, जंगल, गाँव को सुरक्षित और पूज्य बनाने, स्थानीय अर्थव्यवस्था, व्यापार व्यवसाय को ठीक बनाने और अपने समाज की रूढ़ियों को दूर कर संस्कृति को जीवित रखने के काम करता एक दिन इसी समाज में भगवान बन गया। राम तो राजकुमार थे। देश की राजधानी अयोध्या के रहने वाले, बड़े कुल के बड़े घर के बच्चे। अवसर मिला तो विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा के लिए भी गए और वनवास के समय वनों को आतंक मुक्त भी बनाया, लोग उन्हें भगवान मानने लगे।”

“राम और कृष्ण वर्तमान युग के नहीं थे। वह समय और था आज का समय और।” राधे ने तर्क किया।

“अच्छा चलो, तुम्हारी बात मान भी लें तो अभी लगभग डेढ़ सौ वर्षों पहले की ही बात है। अपना देश अंग्रेजों के कुचक्रों से स्वतंत्र होने को लड़ रहा था। एक वनवासी तरुण अपने वनांचल से पढ़ने निकला। महाविद्यालय तक पढ़ कर पुनः लौटा और अपने वनवासी समाज में स्वतंत्रता की ऐसी मशालें जलाईं  कि अंग्रेज थरथरकाँप उठे। वनवासी समाज के इस प्रतिभाशाली तरुण को भी कोई नौकरी मिल सकती थी पर वह गुलाम नहीं बना गुलामी को हटाने में जुट गया। समाज ने उसे इसी युग में भगवान कहा, भगवान बिरसा मुंडा और भी ऐसे कई वननायक हुए हैं।” पवन के मुख पर गौरव की लाली छा गई। उसकी हृदय से निकल रही वाणी का ओज सबको प्रभावित कर रहा था।

“वह अंग्रेजों के विरुद्घ लड़ने का ही समय था, हम तो स्वतंत्र भारत के बच्चे हैं..” रमेश और भी कुछ कहता पर कान्हा ने रोक दिया।

वह बोला “पराधीन थे तब तो अवसर बहुत चुनौतीपूर्ण और सीमित थे। क्या स्वतंत्र होते ही देश की सारी कमियाँ, सारी आवश्यकताएँ, सारी चुनौतियाँ समाप्त हो गईं। अरे भाई! तब तो विनाश से बचने की चुनौती थी अब तो देश के पुनः निर्माण और विकास की उससे भी बड़ी चुनौती है। ऐसे मैं हमें अपनी प्रतिभा अपने वनों, ग्रामों, समाज और देश के लिए समर्पित करना चाहिए कि केवल नौकरी, पैसा, पद और प्रतिष्ठा के लालच में, अपने वन देवता, ग्राम देवता, अपनी धरती माई, अपनी प्रकृति माँ की ओर पीठ करके चल देना चाहिए। आप अपना विचार करने को स्वतंत्र हैं पर मैं तो अपने वन देवता को ही प्रसन्न करूँगा।” कान्हा का गला भर आया। सब जानते थे यह वनवासी छात्र कितना मेधावी है विद्यालय का सबसे प्रवीण छात्र, पर अपना वन नहीं छोड़ता। न उसे अपने वनवासी रहन-सहन, परंपरा, भाषा-बोली को अपनाए रखने में कोई संकोच न था। बस अपनी पढ़ाई लिखाई से वह अपने लोगों के अज्ञान और अपने संस्कारों से अपने लोगों में जड़ जमा चुकी कुछ बुरी बातों को बदलने में रमा रहता। पवन, पावन और प्राकृत जैसे उसके मित्र भी वन, गाँव, नगर के भेद भुला कर उसका सहयोग करते हैं।

आज इन सबको भी समझ में आ चुका था भगवान ने क्या अवसर दिया है उन्हें। अगले रविवार को यह टोली और बड़ी होकर उसी नदी पर मिलेगी। कान्हा को अकेले बाँसुरी नहीं बजाना होगी। रमेश ढोलक भी लाने वाला है। सब एक सुर ताल पर थिरकेंगे। तन ही नहीं मन को भी भिगोएँगे उस छोटी सी नदी के निर्मल जल से। तब कान्हा को और अधिक फल लाना होंगे या हो सकता है ये सब अपने मित्र वृक्षों के डालियों रूपी हाथों से स्वयं ही लेकर फल खाने वन में और अंदर जाकर मनाएँ वन देवता को।

लौटते समय हनुमान मंदिर तक सब साथ आए।

‘दनुजवन कृशानुं ज्ञानीनामग्रगण्यम्’ कोई भक्ति भरे स्वरों में गा रहा था। प्राकृत को एक नया अर्थ साकार होते दिख रहा था इस टोली में। ‘वातजातं नमामि’ तक प्रार्थना का श्लोक आने तक उसकी सायकिल  हवा से बातें कर रहीं थीं ग्यारह बजे से उसकी शाखा टोली की बैठक जो थी।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

और पढ़ें : बेटा नहीं बेटी

Facebook Comments

One thought on “नमस्ते वन देवता

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *