भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 84 (व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था के दुष्परिणाम)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

भारतीय शिक्षा का पश्चिमीकरण जिन सिद्धांतों के आधार पर किया गया, उनमें “व्यक्तिकेन्द्री जीवन रचना” प्रमुख सिद्धांत है। व्यक्तिकेन्द्री जीवन रचना से तात्पर्य है कि समाज में जितनी भी व्यवस्थाएँ होती हैं, वे सभी व्यक्ति को इकाई मानकर की जाती हैं। व्यक्ति को इकाई मानकर सभी व्यवस्थाएँ करने का सिद्धांत पश्चिम का है, जो भारतीय सिद्धांत से सर्वथा विपरीत है। भारत में समाज की सभी व्यवस्थाएँ परिवार को इकाई मानकर की जाती रही हैं। परिवार में सम्बन्ध और व्यवस्था दोनों निहित हैं। अर्थात् पारिवारिक सम्बन्ध और परिवार की व्यवस्था ये दोनों पक्ष महत्वपूर्ण हैं।

परिवार इकाई से तात्पर्य

भारतीय समाज व्यवस्था में व्यक्ति को इकाई न मानकर परिवार को इकाई माना गया है। परिवार में एक से अधिक व्यक्ति होते हैं, इसलिए मन में स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि एक से अधिक संख्या इकाई कैसे हो सकती है? व्यक्ति के अनिवार्य काम यथा – खाना, पीना, सोना, नहाना आदि सबके अलग-अलग होते हैं। ये सब मिलकर एक इकाई कैसे हो सकती है, व्यवस्था में यह कैसे सम्भव हो सकता है? भारतीय मनीषियों ने इसे सम्भव कर दिखाया, जो उनकी प्रतिभा का परिचायक है। यह अध्यात्म को व्यवहार में लाने की कुशलता का एक अनुपम उदाहरण है और हमारे चिन्तन का वैशिष्ट्य है।

भारतीय परिवार के केन्द्र बिन्दु होते हैं – पति-पत्नी। पति और पत्नी दोनों अलग-अलग नहीं हैं, दोनों मिलकर एक हैं। इस मूल सिद्धांत को मानकर ही भारत में परिवार की कल्पना की गई है। इसका मूल अध्यात्म संकल्पना में है। अव्यक्त परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ तो सर्वप्रथम स्त्रीधारा व पुरुषधारा में विभाजित हुआ। ये दोनों धाराएँ अपने आप में अपूर्ण हैं, दोनों मिलकर एक होने पर ही पूर्ण होते हैं। इसे ही हम दोनों आत्माओं का मिलकर एक आत्मा होना कहते हैं, यही हमारी एकात्मता है। यह स्त्री और पुरुष की एकात्मता, पति और पत्नी की एकात्मता ही परिवार का केन्द्र बिन्दु है, इसके आधार पर ही परिवार का विस्तार होता है। भारत में सम्पूर्ण समाज रचना इस एकात्मता के आधार पर विकसित हुई है, इसे छोड़ दिया तो सारी रचना ही बिखर जायेगी।

स्त्री मुक्ति का मुद्दा पश्चिम का है

भारत में पश्चिमी शिक्षा ने पति-पत्नी के एकात्म सम्बन्ध पर गहरी चोट की है। अब पति-पत्नी भी यह मानने लगे हैं कि हमारा स्वतंत्र अस्तित्व है। स्त्री स्वतंत्रता के पीछे धारणा यह है कि भारत में स्त्रियों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है, उनका कोई स्वतंत्र मत नहीं होता, उनकी अपनी कोई रुचि नहीं होती, उनका कोई अधिकार नहीं होता। चूँकि भारतीय समाज पुरुष प्रधान है, इसलिए स्त्री का स्थान बहुत गौण है। उसे किसी भी विषय में अपनी बात कहने या निर्णय देने का अधिकार नहीं है। उसके लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है, वह अपने विकास की कल्पना तक नहीं कर सकती।

अंग्रेजों की ऐसी धारणा बनने के दो कारण थे। एक तो यह कि उनके स्वयं के देश इंग्लैण्ड में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। वहाँ उन्नीसवीं शताब्दी तक स्त्रियों को मत देने का अधिकार नहीं था। उसी स्थिति को उन्होंने भारत पर आरोपित कर दिया। दूसरा कारण यह था कि भारतीयों के मनोभाव व व्यवहार उनकी समझ से परे थे। भारत के आत्मीयता के सिद्धांत को समझना उनके वश की बात नहीं थी। क्योंकि आत्मीयता में पहले दूसरों का विचार करना और बाद में स्वयं का विचार करना, यह क्रम रहता है। उदाहरण के लिए पैसा कमाकर लाने वाला घर का मुखिया पहले दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करता है, अन्त में अपने लिए कुछ खर्च करता है। घर में भोजन बनाने वाली माँ पहले सबको खिलाती है और अन्त में स्वयं खाती है। अन्त में भोजन कम बचा है तो उसे कोई दुख नहीं और किसी से शिकायत भी नहीं। यह बात व्यक्तिवादी सोच वाले अंग्रेजों को भला कैसे समझ में आती? इसलिए उन्होंने स्त्री मुक्ति को मुद्दा बनाकर स्त्री व पुरुष को अर्थात् पति व पत्नी को एक दूसरे से स्वतंत्र होने के लाभ उनके मानस में बिठा दिये।

स्त्री-पुरुष समानता

आज भारतीय स्त्रियों को भी उपर्युक्त बन्धनों से मुक्त होना अच्छा लगता है। अब स्त्री के भी अधिकार हैं, पहला अधिकार समानता का अधिकार है। स्त्री वह सब कुछ करना चाहती है जो पुरुष करता है। पुरुष के लिए शिक्षा है तो स्त्री को भी शिक्षा चाहिए। पुरुष नौकरी करता है तो स्त्री को भी नौकरी करनी है। पुरुष पैसा कमाने के लिए घर से बाहर जाता है तो स्त्री भी घर से बाहर जायेगी। पुरुष का बैंक में खाता है तो स्त्री के नाम का भी खाता खुलेगा। घर पुरुष के नाम पर है तो स्त्री के नाम पर भी घर चाहिए। ऐसी कोई भी बात नहीं होगी जो पुरुष करेगा, वह स्त्री नहीं करेगी।

पुरुष की बराबरी करने की बात यहाँ तक जाती है कि जब पुरुष सिगरेट पीता है, शराब पीता है तो स्त्री क्यों नहीं पी सकती, पुरुष अकेला रहता है तो स्त्री भी अकेली रहेगी। पुरुष टी शर्ट-जिन्स पहनता है तो स्त्री भी पहनेगी। जो-जो भी काम एक पुरुष करता है वह सब एक स्त्री भी करेगी। उसे स्वतंत्रता है, वह पुरुष की बराबरी करने का पूरा अधिकार रखती है।

स्त्री का करियर

पुरुष के जैसी शिक्षा प्राप्त करना, पुरुष की तरह व्यवसाय करना, पुरुष की भाँति स्वामित्व का अधिकार रखना, ये सभी बातें स्त्री विकास के लक्षण बन गए हैं। इसे ही आधुनिक भाषा में करियर कहा जाता है। अब स्त्री के लिए गृहणी होना करियर नहीं है, पैसे कमाना करियर है। इस बात का सामान्य स्त्रियों पर इतना अधिक प्रभाव है कि यदि किसी घरेलु स्त्री को पूछा जाए कि तुम क्या करती हो? तो वह यही कहती है कि मैं कुछ नहीं करती, जबकि वास्तविकता यह है कि वह पूरा घर सम्भालती है। पूछने वाला भी नौकरी करने और पैसा कमाने के अर्थ में ही पूछता है और उत्तर देने वाली भी उसी सन्दर्भ में उत्तर देती है। वह भी यह मानकर चलती है कि घर सम्भालना नौकरी करने से बड़ा काम नहीं है। इसलिए आज की सभी स्त्रियाँ करियर के पीछे भाग रही है।

स्त्री को यदि पुरुष जैसा बनना है तो सबसे पहले उसे घर से लगाव छोड़ना होगा। जबकि हमारे यहाँ तो यह मान्यता है कि “गृहिणी गृहम् उच्यते” घर तो गृहिणी का होता है, घर को स्त्री ही चलाती है। पुरुष तो ‘गृहस्थ’ कहलाता है, अर्थात् वह तो घर में रहता है। वह घर के कामों में रुचि नहीं लेता, इन कामों को अपना काम भी नहीं मानता। जब घर के कामों में पुरुष रुचि नहीं लेता तो स्त्री को रुचि क्यों लेनी चाहिए? पुरुष को अपना करियर बनाना है तो स्त्री को भी अपना करियर चाहिए। ऐसी स्थिति में खाना बनाना, घर के काम करना और घर चलाना गौण हो जाता है और नौकरी करना, पैसा कमाना और उस पैसे को अपनी इच्छा के अनुसार खर्च करना, समाज में अपना स्वतंत्र स्थान बनाना जैसे काम मुख्य हो जाते हैं। स्त्रियों ने इसे ही विकास मान लिया है।

अब समाज में भी स्त्रियों के लिए अनुकूल भाषा बोली जाने लगी है। अब स्त्री अबला नहीं रही, वह सबला बन गई है। अब स्त्री के शोषण का युग समाप्त हो गया है। स्त्री भी वे सारे काम कर सकती है, जो एक पुरुष करता है। अब स्त्री भी अफसर बन सकती है, पाइलट बन सकती है, चुनाव लड़ सकती है और प्रधानमंत्री बन सकती है। मात्र इतना ही नहीं, वह इन सभी कामों में पुरुष से आगे बढ़ गई है। अतः पति-पत्नी की एकात्मता के स्थान पर स्त्री-पुरुष की समानता का मुद्दा महत्वपूर्ण हो गया है। पति-पत्नी दोनों मिलकर एक होते हैं, यह अब स्वीकार्य नहीं है।

अब बेटी को भी पढ़ाना है

अब शिक्षा केवल बेटों के लिए नहीं है, बेटी को भी पढ़ाना है। स्त्रियों को अशिक्षित रखने का जमाना लद गया। परन्तु बेटी के लिए अलग शिक्षा नहीं, बेटी भी वही पढ़ेगी जो बेटा पढ़ेगा। बेटी भी वैसे ही पढ़ेगी जैसे बेटा पढ़ता है। अब पढ़ाई व नौकरी दोनों के लिए समान रूप से विकास के अवसर हैं। इसलिए बेटियाँ पढ़ती हैं, बेटों से अच्छा पढ़ती हैं और उन्हें अच्छी नौकरी व अच्छा पैसा भी मिलता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि इतनी अच्छी नौकरी और वेतन मिलने के बाद वह घर के काम कैसे कर सकती है? वह अपने आपको घर में, चूल्हे-चौके में कैसे बाँध सकती है?

इतनी पढ़ाई करने और करियर बनाने में अनेक वर्ष बीत जाते हैं। आयु बढ़ जाती है, फलतः विवाह और करियर का परस्पर विरोध हो जाता है। यदि अच्छा पैसा कमाकर देने वाला करियर है तो विवाह के लिए करियर छोड़ना बेटियों को स्वीकार नहीं है। फिर मैं ही क्यूँ समझौता करूँ? यह प्रश्न भी आता है। इसलिए विवाह हो जाने के उपरान्त भी करियर नहीं छोड़ना और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाए रखना ही मान्य होता है। फिर बच्चों को जन्म देना भी कठिन हो जाता है। परन्तु स्त्री है इसलिए बच्चे को जन्म तो उसे ही देना है। इस कार्य के लिए सरकार की ओर से उसे प्रसूति अवकाश दिया जाता है। जन्म देने के बाद भी उसके पास शिशु के लालन-पालन हेतु समय नहीं है, इसलिए आया आती है, नर्सरी, प्ले स्कूल आदि बातें शुरु हो जाती हैं।

स्त्री अपनी विवशताएँ छोड़े

स्त्री के लिए ये सभी प्रावधान उसकी विवशताएँ ही हैं, परन्तु उसके विकास की अनिवार्यता होने के कारण वह इन्हें विवशता के रूप में नहीं देखती। भले ही वे शिशु के विकास में अवरोधक हों, फिर भी समाज के एक वर्ग के लिए शिशु संगोपन आज एक केरियर बन गया है, जो बहुत पैसे भी देता है। समाज का एक बहुत छोटा वर्ग है जो करियर और विकास के नाम पर घर छोड़ने को विवश हुआ है। परन्तु सारे शिक्षित समाज की मानसिकता यह बन गई है कि इन विवशषताओं में उनको श्रेष्ठता दिखाई देती है।

जहाँ शिक्षा कम है वहाँ स्थिति इसके विपरीत दिखाई देती है। उन स्त्रियों का घर के साथ लगाव अधिक होता है। वे किसी भी स्थिति में अकेली रहना स्वीकार नहीं करती। उनके सामने नौकरी छोड़ने की स्थिति आने पर वे नौकरी छोड़ देती हैं और अपने बच्चे का संगोपन करना अधिक महत्वपूर्ण मानती है। परन्तु अधिकांश समाज के लिए उच्च शिक्षित, उच्च पदासीन और स्वतंत्र व्यक्तित्व स्थापित करने वाली स्त्री ही आदर्श है। अशिक्षित स्त्री घर में रहती है, शिक्षित नौकरी करती है। अशिक्षित घर में चूल्हा-चौका सम्भालती है, शिक्षित ऑफिस में पैन चलाती है। अशिक्षित पति पर निर्भर रहती है जबकि शिक्षित स्वनिर्भर है। शिक्षित स्त्री अपने नाम से जानी जाती है परन्तु अशिक्षित स्त्री पति के नाम से जानी जाती है। अशिक्षित को घर के सारे काम करने पड़ते हैं जबकि शिक्षित स्त्री के घर के काम नौकर करते हैं।

पश्चिम के इस व्यक्तिकेन्द्री विचार का प्रभाव सबसे अधिक स्त्री वर्ग पर हुआ है। और इस विचार के मूल में यही धारणा है कि स्त्री कनिष्ठ है और पुरुष उससे वरिष्ठ है। स्त्रियों का शोषण किया जाता है, उन्हें दबाया जाता है, क्योंकि वह अबला है, बन्धन में है। इसलिए उनका विकास करना है, उन्हें बन्धनमुक्त करना है, उन्हें पुरुष के समान बनाना है। जिस समाज में ऐसा नहीं होता वह समाज अविकसित है। शिक्षा स्त्री का विकास करती है जिससे समाज भी विकसित होता है। ये सब बातें ठीक लगती हैं, परन्तु भारतीय मानस व व्यवस्था के प्रतिकूल हैं। इसलिए विपरीत परिणाम आ रहे हैं? पति-पत्नी की एकात्मता टूट रही है, घर बिखर रहे हैं। परिवार समाज की इकाई है, परिवार कमजोर होंगे तो समाज भी कमजोर होगा। परिवार व समाज का कमजोर होना बहुत बड़ी क्षति है। इस बात की ओर दुर्लक्ष हो रहा है। इसका कारण पश्चिम के व्यक्तिकेन्द्री विचार को अपनाना है। हमें इसके सभी पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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