सावधान, इस युगल से!

 – दिलीप वसंत बेतकेकर

कुछ समय पूर्व की ही घटना है… समाचारपत्र में छपी थी… एक युगल के सम्बन्ध में…! वह युगल लोगों को लुभावने, फायदेमंद सौदे बताकर उनसे बड़ी राशि वसूल कर नौ दो ग्यारह हो गये। इस प्रकार के अनेक युगल विविध प्रकार से लोगों को फंसाकर भाग जाते हैं। कुछ पकड़े जाते हैं और कुछ पकड़ से बच जाते हैं।

परन्तु ऐसे युगल से भी अधिक खतरनाक, धोखेबाज़, युगल सर्वत्र अस्तित्व में रहते हैं। यह युगल अत्यंत सफाई से, चुपके से केवल लोगों के घर में ही नहीं वरन् उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी आदत बन जाते हैं। उनका केवल आर्थिक नुकसान ही नहीं, वरन् कभी भी भरपाई न होने वाला नुकसान वे करते हैं। ऐसे युगल की पहचान करना कठिन ही है…

पति का नाम है श्रीमान ‘आलस्य’ और उनकी पत्नी हैं ‘श्रीमती चिंता’! दोनों ही अपने शिकार की तलाश में रहते हैं, मौका मिलते ही घर में घुस जाते हैं। छोटे-बड़ों के सिर पर हाथ रखते हैं और नदारद हो जाते हैं। भस्मासुर का हाथ सिर पर आने से व्यक्ति भस्म हो जाते थे किन्तु इस दम्पत्ति की तो बात ही न्यारी है। इनका हाथ सिर पर रखने से भस्मसात तो नहीं परन्तु पल-पल, कण-कण समाप्त होता रहता है वह व्यक्ति!

इस ग्रीष्मावकाश में मुम्बई से मेहमान आये थे। उनके साथ उनके दो बच्चे थे, छोटा वाला था कोई ढाई-तीन साल का! कहने लगा, “मम्मा, मुझे आलस्य आ रहा है, क्या करूँ?” उस तीन साल के बालक के शब्द सुनकर मैं दंग रह गया! इतनी छोटी उम्र में अभी से आलस्य है तो आगे क्या होगा? उसका ‘आलस्य’ शब्द सुनकर मैं सतर्क हो गया और अधिक सावधानीपूर्वक वार्तालाप सुनने लगा। ध्यान में आया कि ‘आलस्य’ शब्द अनेक लोगों द्वारा उच्चारित होता सुना है। कभी अपने मुख से भी निकला होगा- संभव है – परन्तु इस बात की अनुभूति होने से उसे सुधारने का अवसर अर्थात प्रथम पायदान कह सकते हैं। शारीरिक परिश्रम के कारण हुई थकान, थोड़ा आराम करके अथवा उचित नींद लेकर मिटा सकते हैं। चिंता, तनाव, भावनाओं की मन में उथल-पुथल थकान के मुख्य कारण हैं। ‘आलस्य’ आने लगा अथवा निरंतर अनुभव होने लगा तो वह एक गंभीर विचारणीय मसला बन जाता है। कारण ‘आलस्य’ के साथ ही अनेक अनचाही बातें आक्रमण करती हैं। आलस्य का अर्थ मूड बिगड़ना। उसका विपरीत प्रभाव शरीर पर पड़ने से स्वास्थ्य बिगड़ता है और कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

वास्तव में शरीर थकता अथवा आलस्य नहीं करता, मन थकता है। मैं थक गया, मुझे आलस्य आ रहा है, ऐसा मन को अनुभव होता है और परिणामस्वरूप शरीर थकान अनुभव करता है, अलसाता है। इस संदर्भ में अनेक प्रयोग किये गये और उससे आश्चर्यजनक परिणाम देखने में आये हैं।

प्रसिद्ध मनोचिकित्सक जोसेफ बारमॅक द्वारा प्रयोग करके सिद्ध किया गया कि ‘आलस्य’ ही थकान निर्मित करता है। जब कभी किसी व्यक्ति को आलस्य अनुभव होता है तब उसके शरीर का रक्तचाप और शरीर द्वारा शोषित प्राणवायु ऑक्सीजन का परिमाण कम हो जाता है। यदि वह व्यक्ति किसी अन्य विषय में रुचि दिखाना प्रारंभ करता है और उसमें उसे आनन्द की अनुभूति होती है, तब उसकी चयापचय क्रिया की गति में वृद्धि होती है।

आलस्य की अर्धांगिनी चिंता आलस्य के साथ ही उपस्थित हो जाती है। संस्कृत सुभाषितकार ने एक मार्मिक वर्णन किया है –

चिता चिन्तासमाप्रोत्तफा बिन्दुमात्रां विशेषतः।

सजीवं दहते चिन्ता निर्जीव दहते चिता।।

अर्थात् चिता और चिंता, इन दो शब्दों में केवल एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही अंतर है। चिता व्यक्ति को एक बार ही जलाती है किन्तु चिंता जीवन भर निरंतर जलाती रहती है। चिंता करने से प्रश्न हल तो नहीं होते, किन्तु प्रश्न और उलझनें बढ़ती ही हैं, दुःख वृद्धिगत होता है।

चिन्तनेनैधते चिन्तात्विन्धनेनैव पावकः।

नश्य त्यचिन्तनेनैव विनेन्धनमिवानलः।।

अर्थात् अग्नि में ईंधन डालने से जैसे अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, उसी प्रकार चिंता से चिंता (दुःख) वृद्धिगत होता है।

कुछ लोगों में ऐसी धारणा है कि अधिक परिश्रम से मृत्यु हो जाती है, परन्तु यह भ्रम है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चार्ल्स ह्यूजेस के अनुसार, “व्यक्ति कार्य की अधिकता से कभी मरता नहीं है, वे मरते हैं व्यर्थता से।”

ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा जिसे कष्ट, समस्या, संकट, प्रश्न आदि बिल्कुल न हों? मराठी में स्वामी समर्थ रामदास द्वारा रचित पद है, जगी सर्वसुखी असाकोण आहे”? प्रत्येक को कुछ न कुछ समस्याएँ होती हैं। इसीलिये निराश होकर, चिंतामग्न होकर हताशा से सिर घुटनों के बीच घुसाकर बैठे रहना उचित है? वरिष्ठजन कहते हैं, “चिंता मत करो,” चिन्ता करने से समस्याएं दूर नहीं होती! मार्ग प्रशस्त नहीं होते!

“In every life there is some trouble. Why you worry, you make it double.”

ये कथन सत्य ही है। चिन्ता, फिक्र से समस्याएं मिटती नहीं, वरन् अधिक उग्र रूप धारण कर लेती हैं।

‘टाइम’ मासिक में एक सैनिक के बारे में एक लेख प्रकाशित हुआ था। वह जवान जख्मी हो गया था और उसके गले में अनेक जगह विस्फोटक के टुकड़े फंसे हुए थे। सात बार ब्लड ट्रान्सफ्रयूजन किया गया। उसने डॉक्टर्स से लिखकर पूछा, “मैं जीवित रहूंगा क्या?” डॉक्टर ने कहा, “हाँ”! फिर उसने लिखकर पूछा- “क्या मैं बोल सकूंगा?” डॉक्टर ने फिर कहा, “हाँ”! फिर उसने लिखा- “मैं क्यों बेकार में चिन्ता कर रहा हूँ!”?

शोधार्थियों के अनुसार व्यक्ति कभी न घटित होने वाली बातों पर 40 प्रतिशत चिन्ता करता है। जो बातें व्यतीत/घटित हो चुकी हैं और जिनके बारे में अब कुछ होना संभव नहीं है, ऐसी बातों पर 25 प्रतिशत चिन्ता करता है। 15 प्रतिशत चिन्ता स्वयं के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में रहती है और 10 प्रतिशत चिन्ता अन्य बेकार की बातों की रहती है। वास्तव में चिन्ता करनी चाहिये शेष 10 प्रतिशत बातों की। अर्थात् 90 प्रतिशत चिन्ता तो व्यर्थ की बातों की ही रहती है।

पूज्य गोंदवलेकर महाराज ने चिन्ता के सम्बन्ध में एक बहुत अच्छा मार्गदर्शन किया है। “कल की चिन्ता के कारण हमें आज की रोटी स्वादहीन लगती है। जिसने भगवंत को अपना लिया उसे कोई भी चिन्ता नहीं है। भगवंत के द्वारा ही हमें चिन्ता से मुक्ति मिलती है।”

हम चिन्तामुक्त क्यों नहीं होते इस संदर्भ में वे कहते हैं, “चिन्ता ने हमें नहीं घेरा है, अपितु हमने ही चिंता को कसकर पकड़ रखा है, इसीलिये हम उससे मुक्त नहीं हो पाते।”

निरन्तर चिन्तामग्न रहने की अपेक्षा हम यह सावधानी रखें कि यह धोखेबाज, चालबाज़ युगल हमारे आसपास ही न आ पाये तो उचित होगा।

बाय्, बाय्, मिस्टर ‘आलस्य’ और मैडम ‘चिंता’!!

(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)

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