– डा. रवीन्द्र नाथ तिवारी
प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान तथा विचार की समृद्ध परम्परा के साथ-साथ भारतवर्ष शिक्षा के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करता आया है तथा प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति ने मानवता के कल्याण में अप्रतिम योगदान दिया है। विश्व प्रसिद्ध तक्षशिला, नालंदा, बल्लभी, विक्रमशिला, काशी, कश्मीर और उज्जैन इत्यादि विश्वविद्यालय, शिक्षा के विश्वविख्यात केन्द्र रहे हैं। इन विश्वविद्यालयों में भारत ही नहीं अपितु तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया और श्रीलंका जैसे देशों के विद्यार्थी ज्ञानार्जन हेतु आते थे। देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल थे, जो कि हायर लर्निंग इंस्टीट्यूट का प्रतिनिधित्व करते थे।
आयातित तथा घृणा एवं संकीर्ण मानसिकता के साथ थोपी गई अंग्रेजों द्वारा आधुनिक शिक्षा प्रणाली से भारतीय प्राचीन शिक्षण पद्धति सर्वाधिक प्रभावित हुई है। देश में 54 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 411 राज्य विश्वविद्यालय, 123 मानद् विश्वविद्यालय और 287 निजी विश्वविद्यालय हैं। ग्लोबल यूनिवर्सिटी की नई रैंकिंग में टॉप 300 में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है जबकि प्राचीन काल में भारत का शिक्षा के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान था। उच्चतर शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय हेतु एक नया और भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से पूरा करने का अभिनव प्रयास परिलक्षित होता है।
जैसे-जैसे भारत, ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था और समाज की ओर बढ़ता जा रहा है, भारतीय युवाओं की उच्चतर शिक्षा की ओर रुचि बढ़ती जा रही है। 21वीं सदी को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण उच्चतर शिक्षा का उद्देश्य, अच्छे चिंतनशील बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनात्मक व्यक्तियों का विकास होना चाहिए। विद्यार्थियों के समग्र विकास के लिए पूर्व विद्यालय से उच्चतर शिक्षा तक सीखने के प्रत्येक चरण में कौशल और मूल्यों में समन्वय होना चाहिए। उच्चतर शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तिगत रोजगार के अवसरों का सृजन करना ही नहीं बल्कि अधिक जीवंत और सामाजिक रूप से जुड़े हुए सहकारी समुदायों के साथ मिलकर सामंजसय पूर्ण सुसंस्कृत उत्पादक अभिनव प्रगतिशील और समृद्ध राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना है।
भारत की वर्तमान में प्रचलित उच्चतर शिक्षा प्रणाली में कई समस्याएं विद्यमान हैं, जैसे-गंभीर रूप से खंडित उच्चतर शैक्षिक पारिस्थितिक तंत्र, संज्ञानात्मक कौशल के विकास और सीखने के परिणाम, विषयों का एक कठोर विभाजन, विद्यार्थियों को बहुत पहले ही विशेषज्ञ और अध्ययन के लिए संकीर्ण क्षेत्रों की ओर ढकेल देना, सीमित पहुंच, सीमित शिक्षक, तदर्थवाद, संस्थागत स्वायत्तता योग्यता आधारित कैरियर प्रबंधन और संकाय, अधिकांश विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शोध कार्य पर कम बल, विषयक शोध निधियों की कमी, उच्चतर शिक्षा संस्थानों में गवर्नेंस और नेतृत्व क्षमता का अभाव, एक प्रभावी विनियामक प्रणाली इत्यादि हैं। इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उच्चतर शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल बदलाव और नए जोश के संचार के लिए उपयुक्त चुनौतियों को शामिल किया गया है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से वर्तमान उच्चतर शिक्षा प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन सुझाए गये हैं जैसे- उच्चतर शिक्षा व्यवस्था की ओर बढ़ना, जिसमें विशाल बहु-विषयक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों का निर्माण हो सके, प्रत्येक जिले में या उसके पास कम से कम एक और पूरे भारत में अधिकतर उच्च शिक्षा संस्थाएं (एचईआई) जो कि स्थानीय भारतीय भाषाओं में शिक्षा या कार्यक्रमों का माध्यम प्रदान कर सकें। अधिक से अधिक बहु-विषयक स्नातक शिक्षा को बढ़ावा देना, संकाय और संस्थागत स्वायत्तता को बढ़ावा देना, विद्यार्थियों के अनुभव में वृद्धि के लिए पाठ्यचर्या, शिक्षण शास्त्र मूल्यांकन और विद्यार्थियों को दिए जाने वाले सहयोग में आमूलचूल परिवर्तन, शिक्षण, अनुसंधान और सेवा के आधार पर योग्यता नियुक्तियों, उत्तम अनुसंधान, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सक्रिय रूप से अनुसंधान की नींव रखने के लिए एक अलग से राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना, शैक्षणिक और प्रशासनिक स्वायत्तता वाले उच्चतर शिक्षा के सभी एकल नियामक द्वारा लचीला लेकिन स्थायित्व प्रदान करने वाला विनियमन का गठन, शिक्षण सामग्री की उपलब्धता और उस तक पहुंच कराना इत्यादि मूल उद्देश्य हैं।
उच्चतर शिक्षा के बारे में मुख्य जोर उच्चतर शिक्षा संस्थानों को बड़े एवं बहु-विषयक विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और एचईआई कालेजों में स्थानांतरित करके उच्चतर शिक्षा के विखंडन को समाप्त करना है। भारत को बहुमुखी प्रतिभा वाले योग्य और अभिनव व्यक्तियों को बनाने के लिए इस परंपरा को वापस लाने की आवश्यकता है जिसमें कई देश पहले से ही शैक्षिक और आर्थिक रूप से इस दिशा में परिणत हो रहे हैं। उच्चतर शिक्षा के इस उद्देश्य के साथ खासकर एक नई विचारधारा और समाज की जरूरत होगी जिसमें एक उच्चतर शिक्षा संस्थान अर्थात एक विश्वविद्यालय या एक कॉलेज का गठन शामिल है। विश्वविद्यालय से अभिप्राय एक ऐसा बहुविषयक संस्थान जो उच्चतर स्तरीय अधिनियम के लिए उच्चतर श्रेणी के शिक्षण सूत्र और सामुदायिक भागीदारी के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम चलाता हो। उच्चतर शिक्षा में तीन तरह के संस्थान शामिल होंगे। पहला उच्च स्तरीय शोध कराने वाला विश्वविद्यालय, दूसरा शिक्षण ग्रहण कराने वाला विश्वविद्यालय और तीसरा ऑटोनॉमस कॉलेज जोकि एक स्वायत्त डिग्री देने वाला कॉलेज (एसी) होगा। यह उच्चतर शिक्षा के बड़े बहु विषयक संस्थान को संदर्भित करेगा जो कि स्नातक की डिग्री प्रदान करेगा और मुख्य रूप से स्नातक शिक्षण पर केंद्रित होगा। सभी प्रकार के संस्थानों में उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और शिक्षण अधिगम समान होंगे क्योंकि इस प्रक्रिया में समय लगेगा। सभी उच्चतर शिक्षा संस्थान 2030 तक बहु-विषयक संस्थान बनने की योजना बनाएंगे और फिर धीरे-धीरे छात्रों के नामांकन संख्या बढ़ाएंगे। 2040 तक सभी वर्तमान उच्चतर शिक्षा संस्थानों का उद्देश्य अपने आप को बहु-विषयक संस्थानों के रूप में स्थापित करना होगा।
वंचित क्षेत्रों में पूर्ण उपलब्धता, न्यायसंगत और समावेश के लिए उचित संख्या में उच्चतर शिक्षा संस्थान स्थापित और विकसित किए जाने की योजना है। श्रेष्ठ गुणवत्तापूर्ण उच्चतर शिक्षा संस्थान सार्वजनिक और निजी दोनों को विकसित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे तथा इनके निर्देश का माध्यम भारतीय भाषा या द्विभाषिक होगा। इसका मूल उद्देश्य उच्चतर शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 2018 में 26.3 प्रतिशत से बढ़ाकर वर्ष 2035 तक 50 प्रतिशत करना है।
देश के विभिन्न उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में भाषा, साहित्य, संगीत, दर्शन भारत, विद्या कला, नाट्य कला, नृत्य शिक्षा, गणित, सांख्यिकी सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, खेल, अनुवाद एवं व्याख्या और अन्य ऐसे विषयों के विभागों को बहु-विषयक भारतीय शिक्षा और वातावरण को प्रोत्साहित करने के लिए स्थापित और मजबूत बनाने की योजना है। इन विषयों में सभी स्नातक उपाधि कार्यक्रमों में क्रेडिट दिया जाएगा। मूल्य आधारित शिक्षा यथा मानवीय नैतिक, संवैधानिक तथा सार्वभौमिक मानवीय मूल्य जैसे कि सत्य अनेक आचरण, शांति प्रेम, अहिंसा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नागरिक मूल्य और जीवन कौशल सेवा तथा सामुदायिक कार्यक्रमों में सहभागिता का समग्र शिक्षा को अभिन्न अंग बनाने की योजना है।
डिग्री कार्यक्रमों की अवधि और संरचना में महत्वपूर्ण बदलाव किए जाएंगे। स्नातक की उपाधि की अवधि 3 या 4 वर्ष की होगी। जिसमें उपयुक्त प्रमाण पत्र के साथ निकास के कई विकल्प होंगे, उदाहरण के तौर पर व्यवसायिक तथा पेशेवर क्षेत्र सहित किसी भी विषय अथवा क्षेत्र में एक वर्ष पूरा करने पर सर्टिफिकेट या दो वर्ष पूरा करने पर डिप्लोमा या तीन वर्ष के कार्यक्रम के बाद स्नातक की डिग्री, चार वर्षीय स्नातक प्रोग्राम, जिसमें बहु-विषयक शिक्षा को बढ़ावा देने की योजना है। एक अकादमिक क्रेडिट बैंक स्थापित किया जाएगा जो अलग-अलग मान्यता प्राप्त उच्चतर शिक्षण संस्थाओं से प्राप्त क्रेडिट को डिजिटल रूप से संकलित करेगा, ताकि प्राप्त क्रेडिट के आधार पर उच्चतर शिक्षण संस्थान द्वारा डिग्री दी जा सके। यदि छात्र एचईआई द्वारा निर्दिष्ट अध्ययन के अपने प्रमुख क्षेत्रों में एक कठोर शोध परियोजना को पूरा करता है तो उसे चार वर्षीय कार्यक्रम में शोध सहित डिग्री भी प्रधान की जा सकती है।
उच्चतर शिक्षण संस्थानों को विभिन्न प्रारूपों में स्नातकोत्तर कार्यक्रमों को मुहैया कराने की छूट होगी। समग्र और बहु-विषयक शिक्षा के लिए आईआईटी, आईआईएम की तर्ज पर बहु-विषयक शिक्षा और शोध विश्वविद्यालय नामक मॉडल सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना करने की योजना है। इन विश्वविद्यालयों का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में उच्चतम वैश्विक मानकों को अर्जित करना होगा। यह देश भर में बहु-विषयक शिक्षा के उच्चतम मानक भी स्थापित कर सकेंगे और विद्यार्थियों के बीच नवाचार को बढ़ावा देने के लिए उच्चतर शिक्षण संस्थान विशिष्ट हैंडहोल्डिंग तंत्र विकसित करेगा। एनआरएफ उच्चतर शिक्षण संस्थाओं अनुसंधान प्रयोगशालाओं और अन्य अनुसंधान संगठनों में इस तरह के एक जीवंत अनुसंधान और नवाचार संस्कृति को सक्षम करने और समर्थन करने में मदद करने के लिए प्रयासरत रहेगा।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि समग्र एवं बहु-विषयक शिक्षा की ओर अग्रसर होने का संकल्प उच्चतर शिक्षा में स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी एक बहु-विषयक संस्थान का सर्वोत्तम उदाहरण है, मदन मोहन मालवीय जी की इस बहु-विषयक संकल्पना को अन्य विश्वविद्यालयों में मूर्तरूप देने में हम सफल नहीं रहे। आज इस बात की नितान्त आवश्यकता है कि हम अतिशीघ्र बहु-विषयक संस्थानों की ओर अग्रसर हों तथा अन्तर विषयक शोध को बढ़ावा देना होगा। विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति में तदर्थवाद की प्रवृति को अति शीर्घ समाप्त करना होगा तथा ऐसे शिक्षक जो कई वर्षों से सेवा दे रहे हैं, उन्हें नियमित करने हेतु अति शीघ्र कदम उठाये जाने होंगे, जब तक संस्थानों में प्राध्यापकों की नियमित नियुक्ति नहीं होगी, तब तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निहित उद्देश्यों की पूर्ति करना आसान नहीं होगा। संस्थानों में शोध संस्कृति को बढ़ावा देना होगा। प्राध्यापकों को शैक्षणिक एवं अनुसंधान के अतिरिक्त गैर-शैक्षणिक कार्यों में संलग्न नहीं करने का संकल्प लेना होगा। शिक्षा के समवर्ती सूची में होने के कारण केन्द्र के साथ-साथ सभी राज्यों की महत्वपूर्ण भूमिका इसके क्रियान्वयन में होगी, तभी हम बहुविषयक संस्थान के स्थापना कर शोध एवं नवाचार की संस्कृति को बढ़ाते हुए विश्व के सर्वश्रेष्ठ देश में शामिल होकर मानवता के कल्याण हेतु मार्गदर्शन करने में सक्षम होंगे।
(लेखक शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.) में भू-विज्ञान विभागाध्यक्ष है।)
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शिक्षा बाल केंद्रित हो। शिक्षा नागरिक मूल्य और जीवन कौशल सेवा तथा सामुदायिक कार्यक्रमों में सहभागिता का समग्र शिक्षा का अभिन्न अंग बन सके।
बहुत ही ज्ञानवर्द्धक जानकारी है।