लोकमान्य तिलक जी द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’ एक अद्भुत साहित्य कृति

 – डा. आशिष मुकंद पुराणिक

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने जीवन काल में शिक्षा, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, अध्यात्म आदि ऐसे अनेक विषयों पर प्रस्तुतीकरण किया है। अन्तरिक्ष विज्ञान पर भी ‘ओरायन’, ‘द आर्किटेक्ट होम इन वेदास’ आदि ग्रंथों के आधार पर अपने अध्ययन और विचार द्वारा एक नई दिशा निर्माण की है। २०वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में जब भारतीय तत्वज्ञान और जीवन पद्धति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गलत तरीके से समझा और देखा जा रहा था तब “भारतीय दर्शन और पौराणिक ग्रंथों के मूल्य का विश्लेषण सबके सामने आए और भारतीय ग्रंथों का आधार वैज्ञानिक है”, ये पूरे जगत की समझ में आए इस हेतु से अनेक ग्रंथों के लेखक के रूप में ये उनकी पहचान बहुत कम लोग जानते हैं। लोकमान्य तिलक आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने ‘गीता रहस्य’ नाम का एक वृहद ग्रन्थ मांडले  कारावास के दौरान लिखा और भगवद्गीता का कर्मयोगी अर्थ सबके सामने लाए।

श्रीमद्भगवद गीता पर अनेक संस्कृत अथवा देशी भाषाओं में अनुवाद सर्वमान्य निरूपित है। फिर भी ‘गीता रहस्य’ ग्रन्थ क्यों प्रकाशित हुआ? आरम्भ के कुछ पृष्ठों में तिलक महाराज ने कुछ ऐसी बातों का प्रतिपादन किया जिसके आधार पर गीता रहस्य का महत्व अपने आप में पूरा विषय हो जाता है। लोकमान्य तिलक जी का लेखन इतना स्तरीय और बिना पूर्वाग्रह के है कि वे स्वयं तिलक महाराज इस बात का उल्लेख करते हैं कि भगवद्गीता की अनेक टीकाएँ लिखी गई है उनमें भगवद्गीता को कर्मयोग न बताते हुए उसके कर्म योग के दृष्टिकोण को झूठा साबित करने का भी प्रयास अनेक ग्रंथों में या लेखों में किया गया है। केवल भारतीय नहीं बल्कि विदेशी लेखको के लेखन का भी उल्लेख तिलक महाराज ने अपनी प्रस्तावना तथा पहले प्रकरण में किया है। भगवद्गीता को मोक्ष प्रधान या निवृत्ति प्रधान मानकर अनेक विस्तृत लेखन किए गए, पर तिलक महाराज का कहना है कि भगवद्गीता कर्म प्रधान है। गीता में ‘योग’ शब्द ही कर्मयोग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ। महाभारत, वेद, उपनिषद तथा अन्य हिन्दू ग्रंथों का आधार लेकर श्रीमदभगवद गीता का सम्पूर्ण कर्मयोग दर्शन तिलक महाराज ने इस ग्रंथ में किया है। टीकाकारों के विविध मतों का संग्रह कर उसकी अपूर्णता सकारण दिखलाना जिससे उनके भ्रम पाठकों के मन से दूर हो जाएं, इस विचार से लोकमान्य तिलक महाराज ने श्रीमदभगवद गीता के ऊपर ‘गीता रहस्य’ ग्रंथ लिखा।

गीता रहस्य की प्रस्तावना में लोकमान्य तिलक जी कहा है कि मैंने गीता के अनेक संस्कृत भाष्य, टीकाएँ और अनेक विद्वानों के मराठी तथा अंग्रेजी में लिखे विवेचन पढ़े, किन्तु मन की शंकाओं का समाधान नहीं हुआ। अपने स्वजनों के साथ युद्ध को महान कुकर्म मानकर दुखी हुए अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करने वाली गीता में ब्रह्मज्ञान व मोक्ष मार्ग का विवेचन कैसे हो सकता है यह समझ नहीं आ रहा था। किन्तु जब समस्त टीकाओं और भाष्यों को लपेट कर रख दिया, और विचारपूर्वक स्वयं गीता का कई बार पारायण अध्ययन किया, तब बोध हुआ।

गीता रहस्य के प्रारंभ में तिलक महाराज ने उद्धृत किया है कि उनको श्रीमदभगवद गीता कर्मयोग शास्त्र क्यों लगा? इसका विवरण देते हुए तिलक महाराज ने आदि शंकराचार्य जी से लेकर अनेक अलग-अलग सिद्धांतों का आधार लिया है और मूलतः धर्म विचार को समाज के सामने लाने का प्रयास किया है।

श्रीमद् शंकराचार्य का जन्म संवत ८४५ (शक ७१०) में हुआ था। बत्तीसवें वर्ष में उन्होंने गुहा प्रवेश किया। श्री शंकराचार्य अलौकिक विद्वान् थे। उन्होंने श्रुति स्मृति विहित वैदिक धर्म की रक्षा के लिए भरत खंड की चारों दिशाओं में चार मठ बनाकर, वैदिक धर्म को कलियुग में पुनर्जन्म दिया।

शंकराचार्य के कथन के बारे में तिलक महाराज ने कहा है कि मनुष्य की आँख से दिखने वाले सम्पूर्ण जगत की अनेकता असत्य है, इन सबमें एक ही शुद्ध नित्य परब्रह्म विद्यमान है, और उसी की माया से, मनुष्य की इन्द्रियों को इन वस्तुओं में भिन्नता का आभास होता है। मनुष्य की आत्मा भी मूलतः परब्रह्म स्वरुप ही है, जिसे आत्मन कहा गया है। आत्मा और परब्रह्म की एकात्मता का अनुभवसिद्ध पूर्ण ज्ञान हुए बिना कोई भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। यह अद्वैतवाद है। एक शुद्ध, बुद्ध, नित्य और मुक्त परब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी वस्तु स्वतंत्र और सत्य नहीं है। जो भिन्नता द्रष्टिगोचर होती है, वह मानवीय दृष्टि का भ्रम या माया निर्मित आभास मात्र है। माया भी कोई स्वतंत्र या सत्य वस्तु नहीं है, वह भी मिथ्या है। यही उक्त सिद्धांत का तात्पर्य है।

तत्व ज्ञान निरूपण में शंकराचार्य ने इसके आगे भी मंतव्य व्यक्त किया, जिसके अनुसार चित्त शुद्धि के द्वारा ब्रह्म और आत्मा में एक्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए गृहस्थाश्रम के कर्म आवश्यक हैं, किन्तु अंत में उन सब कर्मों का त्याग कर संन्यास लिए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। सब वासनाओं और कर्मों से छूटे बिना ब्रह्मज्ञान की पूर्णता संभव नहीं। इस दूसरे सिद्धांत को निवृत्ति मार्ग कहते हैं। सब कर्मों का संन्यास करके ज्ञान ही में निमग्न रहने के कारण इसे ‘संन्यास निष्ठा’ अथवा ‘ज्ञाननिष्ठा’ कहते हैं।

तिलक महाराज बताते है की शंकराचार्य के २५० वर्ष बाद श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत मत प्रस्थापित किया। वे भागवत धर्मी थे। उनका मत था कि शंकराचार्य जी के माया मिथ्यात्व और अद्वैत सिद्धांत, दोनों गलत हैं। जीव, जगत और ईश्वर – ये तीन तत्व यद्यपि भिन्न हैं, तथापि जीव याने चित और जगत याने अचित, ये दोनों एक ही ईश्वर के शरीर हैं। ईश्वर शरीर के सूक्ष्म चित्त-अचित्त से ही स्थूल चित्त अर्थात अनेक जीव और स्थूल अचित्त अर्थात जगत की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने तत्व ज्ञान की द्रष्टि से विशिष्टाद्वैत तथा आचरण की द्रष्टि से मुख्यतः वासुदेव भक्ति पर जोर दिया। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत मत के बदले विशिष्टाद्वैत तथा संन्यास के स्थान पर भक्ति को प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया। तिलक महाराज की दृष्टि से इन दोनों मतों में कोई अधिक अंतर नहीं है। रामानुजीय मत में भी कर्माचरण से चित्त शुद्धि से ज्ञान प्राप्ति उपरांत प्रेमपूर्वक निस्सीम वासुदेव भक्ति का उपदेश एक प्रकार से निवृत्ति मार्ग ही है।

अद्वैत मत द्वारा माया को मिथ्या कहने के स्थान पर वासुदेव भक्ति को ही सच्चा मोक्ष साधन बताने वाले विशिष्टाद्वैत के बाद सामने आया। उसका मत था कि परब्रह्म और जीव को कुछ अंशों में एक, और कुछ अर्थों में भिन्न मानना असंगत है, अतः दोनों को सदैव ही भिन्न मानना चाहिए। इस मत के प्रवर्तक श्री मध्वाचार्य जी थे। उनके गीता भाष्य में उल्लेख है कि निष्काम कर्म भी केवल साधन है, भक्ति ही अंतिम निष्ठा है। भक्ति की सिद्धि हो जाने के बाद कर्म करना या न करना एक ही बात है।

रामानुज और मध्वाचार्य के उपरांत वैष्णवपंथी श्री वल्लभाचार्य जी जिन्हें महाप्रभुजी भी कहा जाता है, जिन्होंने अपनी ८४ बैठकों द्वारा समाज का मार्गदर्शन किया, उन्होंने माना कि माया रहित शुद्ध जीव और परब्रह्म और ईश्वर एक ही वस्तु हैं, दो नहीं । इसलिए उन्हें शुद्धाद्वैती कहा गया। उनको सिद्धांत कुछ ऐसे है, जैसे जीव अग्नि की चिंगारी के समान ईश्वरीय अंश है और मायात्मक जगत मिथ्या नहीं है। माया परमेश्वर की इच्छा से उससे विभक्त हुई एक शक्ति है, अतः मायाधीन जीव को ईश्वर की कृपा से ही मोक्षज्ञान संभव है। इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन भगवत् भक्ति ही है। इस मार्ग वाले परमेश्वर के अनुग्रह को ‘पुष्टि’ कहते हैं, इसलिए यह पंथ ‘पुष्टिमार्ग’ भी कहलाता है।

कर्म करने की आवश्यकता और महत्व बताते समय तिलक महाराज ने कुछ आधार और उदाहरण दिए हैं। सबसे पहले गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की कुछ भिन्न परिभाषा दी है। उनका उपदेश है कि इन्द्रियों और मन की वृत्तियों का नाश करने के स्थान पर उन्हें अपने अधीन रखना चाहिए –

न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवत्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।

अर्थात सुखों के उपभोग से विषय वासना की तृप्ति तो नहीं होती, किन्तु विषय वासना निरंतर उस प्रकार बढ़ती हैं, जैसे अग्नि की ज्वाला घृत से बढ़ती है।

महाभारत में कहा गया  – असंतोषस्य नास्त्यन्तः तुष्टिस्तु परमं सुखं। अर्थात् असंतोष का अंत नहीं है, संतोष ही परम सुख है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उत्कर्ष का प्रयत्न ही न किया जाए। यदि हम असंतोष का पूर्णतः नाश कर डालेंगे तो न केवल इस लोक में वरन परलोक में भी हमारी दुर्गति होगी। भर्तृहरि ने कहा है- यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ। अर्थात् यश के लिए रूचि या इच्छा अवश्य होना चाहिए।

भर्तृहरि ने आगे कहा – मानसि च परितुष्ट कोSर्थवान को दरिद्रः। अर्थात् मन के प्रसन्न होने पर क्या अमीरी और क्या दरिद्रता।

भगवद्गीता में कहा गया – आत्मनिष्ठ बुद्धि की प्रसन्नता से जो सुख मिलता है वही श्रेष्ठ और सात्विक सुख है। मनु संहिता के चौथे अध्याय में कहा गया –

यत्कर्म कुर्वतोSस्य स्यात परिशोअंतरात्मनः।

यत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत।।

अर्थात् वह कर्म प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए, जिसके करने से हमारी अंतरात्मा संतुष्ट हो और इसके विपरीत कर्म छोड़ देना चाहिए।

याज्ञवल्क्य जी ने भी कहा –

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधम प्राहूः साक्षात धर्मस्य लक्षणं।।

अर्थात् वेद, स्मृति, शिष्टाचार और अपने आत्मा को प्रिय होना धर्म के चार मूल तत्व हैं।

मन के सद्रश बुद्धि भी शरीर का धर्मं है। पूर्व कर्म के अनुसार, पूर्व परम्परानुसार या आनुवंशिक संस्कारों के कारण अथवा शिक्षा आदि अन्य कारणों से बुद्धि कम या अधिक सात्विक, राजसी या तामसी हो सकती है। यही कारण है कि कोई बात एक को ग्राह्य तो दूसरे को अग्राह्य लगती है।

गीता के अठारहवें अध्याय में एक ही बुद्धि के तीन भेद कहे गए हैं –

प्रवृत्तिं च निवृत्तिम च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्विकी।।

अर्थात् सात्विक बुद्धि वह है, जिसे इसका ज्ञान है – कौन सा काम करना, और कौन सा नहीं, किस बात से डरना चाहिए और किससे नहीं, किसमें बंधन है और किसमें मोक्ष।

यथा धर्ममधर्मं च कार्य च अकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।

अर्थात् धर्म और अधर्म, करणीय और अकरणीय का निर्णय किये बिना जो बुद्धि केवल भला किया करती है, वह राजसी है।

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वाथान विपरीतांश्च बुद्धिः या पार्थ तामसी।।

अर्थात् अधर्म को ही धर्म मानने वाली अथवा सब बातों का विपरीत निर्णय करने वाली बुद्धि तामसी कहलाती है।

जिस प्रकार एक मनुष्य कोई काम करने के पहले यह विचार कर लेता है कि उसे वह काम करना है या नहीं, और करना है तो किस प्रकार करना है, उसी प्रकार परमात्मा को इच्छा हुई और उन्होंने विचार किया – ‘बहु स्याम प्रजायेय’ अर्थात् हमें अनेक होना चाहिए – उसके बाद सृष्टि उत्पन्न हुई । सांख्यमत के अनुसार जिस प्रकार मनुष्य को कुछ काम करने की बुद्धि पहले होती है, उसी प्रकार प्रकृति को भी अपना विस्तार करने की बुद्धि होती है, किन्तु प्रकृति अचेतन या जड़ होने से उसे अपनी बुद्धि का ज्ञान नहीं रहता। आधुनिक सृष्टि शास्त्रज्ञ भी अब स्वीकारने लगे हैं कि गुरुत्वाकर्षण, लौह चुम्बक का आकर्षण तथा अपसारण आदि जड़ प्रकृति में दिखाई देने बाले गुणों का मूल कारण ठीक बतलाया नहीं जा सकता। आधुनिक वैज्ञानिकों के उक्त मत पर ध्यान देने से सांख्य मत का यह विचार आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होता कि प्रकृति में पहले बुद्धिगुण का प्रादुर्भाव होता है। अव्यक्त प्रकृति में निर्मित होने वाली यह बुद्धि भी प्रकृति के ही समान सूक्ष्म होती है किन्तु उसके समान अव्यक्त नहीं होती – मनुष्य को इसका ज्ञान हो सकता है।

बुद्धि के बाद उत्पन्न होने वाले प्रथकता के गुण को ही ‘अहंकार’ कहते हैं। ‘मैं-तू’ के पृथकता सूचक शब्द ही अहंकार का प्रतीक होते हैं। प्रकृति में भी उत्पन्न होने वाले इस अहंकार के गुण का प्रगटीकरण पारे के जमीन पर गिरने के बाद बनने वाली छोटी छोटी गोलियां हैं। पेड़ पत्थर पानी एकरूप प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, भेद केवल इतना है कि चैतन्य न होने के कारण उन्हें ‘अहम्’ का ज्ञान नहीं होता, या यूं कहें कि मुंह न होने से वे कह नहीं सकते। सारांश यह कि अभिमान या अहंकार का तत्व सब जगह समान ही है। अहंकार बुद्धि का ही एक भाग है। अतएव संख्याओं ने निश्चित किया कि अहंकार बुद्धि के बाद का गुण है।

लोकमान्य ने कुल ४ भाग और १५ प्रकरणों मे विस्तृत रूप से हर एक संवाद या तत्व को सांख्यशास्त्र, न्यायशास्त्र, वैशेषिकशास्त्र, योगशास्त्र, मीमांसाशास्त्र, वेदांतशास्त्र इन ६ शस्त्रों के आधार पर समग्र रूप से सब के सामने रखा है। कई जानकार ये कहते है कि तिलक महाराज द्वारा लिखे गए इस ग्रंथ की भाषा समझने में कठिन है पर इतनी आसान भाषा में इतने कम शब्दों में इतना सारा ज्ञान लिखना ये बात आसान नहीं होती। तिलक महाराज द्वारा लिखे हुए गीता रहस्य की महत्ता कम शब्दों में लिखना भी इतनी सरल बात नहीं है।

(लेखक बृहन्महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पुणे में सहायक प्राध्यापक एवं उपप्राचार्य, डेक्कन एज्युकेशन सोसायटी में व्यवस्थापन परिषद सदस्य तथा विद्या भारती पश्चिम महाराष्ट्र के प्रांत कोषाध्यक्ष है।)

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