शिशु शिक्षा 17 (नव दम्पति शिक्षण 2 –  गर्भाधान के नीति नियम एवं पूर्व तैयारी)

 – नम्रता दत्त

आध्यात्मिकता की अथाह गहराई को मापने वाले आचार्य रजनीश (ओशो) की विद्वता को देख किसी विद्वान व्यक्ति ने पूछा कि प्रत्येक जीवात्मा को संस्कार माता पिता से ही मिलते हैं जिन्हें हम अनुवांशिकता भी कहते हैं। परन्तु आपके माता पिता तो अनपढ और गंवार से प्रतीत होते हैं। आपने ऐसे माता पिता का चयन किया और आप फिर भी इतने आध्यात्मिक कैसे बने? आचार्य रजनीश ने उत्तर दिया कि “मेरी आत्मा ने श्रेष्ठ माता पिता की खोज दस वर्षों तक की तब मुझे योग्य एवं श्रेष्ठ माता की कोख प्राप्त हुई। वे दोनों पूर्णरूप से शुद्ध, पवित्र, सहज एवं सरल हैं।”

आचार्य रजनीश ने आगे कहा – “मेरे माता पिता को आप गंवार एवं अज्ञानी मानते हैं, परन्तु यदि उनमें ज्ञान नहीं होता तो मुझ में ज्ञान कहां से आता? यह हमारा दृष्टिकोण बन चुका है कि हम दिखने में सहज, सरल लोगों को अज्ञानी और गंवार समझते हैं और बाह्य आडम्बर वालों को हम ज्ञानी समझ लेते हैं।”

उपरोक्त प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए माता पिता का श्रेष्ठ होना भी जरूरी है। उनका स्वभाव निष्छल, आहार सात्विक (किसी प्रकार का कोई व्यसन या नशा आदि करने की आदत न हो), विचार शुद्ध हों, काया निरोगी हो, इन सभी बातों का विशेष ध्यान रखना होगा।

एक व्यक्ति बहुत शराब पीता था। उसकी पत्नी ने जब गर्भधारण किया तब भी वह शराब के नशे में ही था। वे एक मंद बुद्धि बेटी के माता पिता बने। माता पिता जो खाना खाते/पीते हैं उसीसे सप्त धातु (रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि और वीर्य) बनते हैं। जिसके कारण वीर्य/शुक्राणु (पुरुष बीज) एवं रजस (स्त्री बीज) प्रभावित होता है। परिणाम स्वरूप वैसी ही संतान पैदा होती है।

सुप्रजा/श्रेष्ठ संतान प्राप्त करने के लिए हमारे शास्त्रों में नीति नियम बताए गए हैं। उसकी संक्षिप्त चर्चा हम यहां करेंगे।

गर्भाधान के शास्त्रीय नीति नियम

स्त्री के मासिक धर्म के प्रथम रात्रि से अगली 4 रात्रि तक को समागम (इंटरकोर्स) के लिए मना किया गया है। इसके अतिरिक्त एकादशी, त्रयोदशी और अमावस्या में भी इसे निषेध माना गया है। चौथी रात्रि के पश्चात् 16 रात्रि तक गर्भधारण का उपयुक्त समय माना गया है। ऋतुकाल की रात्रियों में भी अंतिम रात्रियां श्रेष्ठ मानी गई हैं।

यह प्राकृतिक प्रक्रिया है कि विषम रात्रि में स्त्री का रजस एवं सम रात्रि में पुरुष का शुक्राणु प्रभावित होता है। अतः विषम रात्रि में पुत्री एवं सम रात्रि में गर्भधारण करने पर पुत्र का जन्म होता है। यदि विषम रात्रि में किसी कारणवश पुत्र ने जन्म लिया तो उसके गुण अथवा आदतें लङकियों जैसी होंगी। ऐसा ही प्रभाव सम रात्रि में जन्मी पुत्री पर भी पङता है।

सप्त धातु को श्रेष्ठ बनाने के लिए पति पत्नी को अधिक से अधिक एक वर्ष और कम से कम तीन महीने का ब्रह्मचर्य पालन, खान-पान की सात्विकता एवं ईश प्रार्थना आदि करना चाहिए। पति पत्नी में से किसी को कोई नशे की आदत हो तो छोङ दें।

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पति पत्नी को एक दूसरे के प्रति विश्वास एवं श्रद्धा हो। परिवार का वातावरण संस्कारक्षम हो। परिवार में बड़ों का मान सम्मान किया जाए।

शास्त्रों में संध्या काल के समय समागम (इंटरकोर्स) करने को मना किया गया है। गर्भाधान (प्रेग्नैंन्सी) के लिए ब्रह्ममुहूर्त का समय उत्तम माना गया है। ब्रह्ममुहूर्त में श्रेष्ठ आत्माएं विचरण करती हैं। गर्भाधान से पहले भी ईश वन्दना और मंत्र जाप आदि करना चाहिए।

गर्भाधान (प्रेग्नैंन्सी) के लिए श्रेष्ठ ऋतु बसन्त और हेमन्त मानी गई है। इससे 3 माह पूर्व ही ब्रह्मचर्य पालन द्वारा गर्भशुद्भि कर लेना चाहिए। गर्भशुद्भि के लिए गर्भाधान संस्कार करना भी श्रेष्ठकर है।

प्रत्येक गर्भधारण से पूर्व स्त्री को 36 बार रजस्वला (मासिक धर्म) हो जाना चाहिए। कहने का आशय है कि दो बच्चों के जन्म में कम से कम 3 वर्ष का अन्तर होना चाहिए। इससे मां और बच्चा स्वस्थ रहेंगे।

गर्भाधान की पूर्व तैयारी

श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए दम्पति को कम से कम तीन माह का ब्रह्मचर्य पालन कर श्रेष्ठ साधना द्वारा पवित्र मनोभूमि एवं स्वस्थ, व्यसन मुक्त शरीर बनाना चाहिए क्योंकि पुरुष की सात पीढी और स्त्री की चार पीढी की कोई भी शारीरिक एवं मानसिक कमी कमजोरी की भावी संतान में आने की पूर्ण संभावना होती है। श्रेष्ठ शरीर में ही श्रेष्ठ आत्मा का प्रवेश होता है।

व्यसन/नशा आदि के साथ-साथ दुर्गुणों (असत्य, क्रोध, लोभ आदि ) का भी त्याग करना चाहिए। तन, मन, धन और अन्न की पवित्रता से वातावरण पवित्र और संस्कारक्षम बनता है। इससे भावी संतान भी पवित्र बनती है।

सम्पूर्ण तैयारी के पश्चात् ईश वन्दना कर श्रेष्ठ आत्मा का आह्वान करना चाहिए। निमंत्रित आत्मा के स्वागत की तैयारी पूरे परिवार को अंतःकरण से करनी चाहिए।

गर्भधारण को नवसृजन के रूप में देखना चाहिए और पति पत्नी को अपने घर को तपस्या स्थली बनाना चाहिए। परस्पर श्रद्धा और विश्वास से एकरस और एकमत हो अपनी संकल्प शक्ति को बीज रूप में धारण करना चाहिए।

गर्भधारण से पहले और बाद में आहार का विशेष ध्यान रखें। अधिक ठंडा, अधिक गर्म, अधिक मसाले, मैदा और उससे बने खाद्य पदार्थ आदि न खाएं। मौसम के फल-सब्जियों का ही उपयोग करें। गाय का दूध और घी का सेवन करें।

गर्भधारण से पहले और बाद में विहार का भी विशेष ध्यान रखें। खुली हवा में सांस लें, सैर करें और प्रणायाम करें। डरावनी फिल्में न देखें, न ही ऐसा साहित्य पढे। श्मशान घाट में न जाएं। सत्संग करें, हवन करें, सद् साहित्य पढे, ईश वन्दना करें। ढीलेवस्त्र पहनें। ऊंची एडी वाली चप्पल न पहनें। समय पर भोजन करें। अकारण देर रात तक न जागें। स्वाध्याय अथवा अपने इष्ट का ध्यान करके ही सोयें।

आज के तकनीकी युग में मनुष्य नए नए प्रयोग करने का साहस एवं परिश्रम करता है। फसल एवं फल-सब्जियों की अच्छी पैदावार कैसे हो?मंगल ग्रह पर जीवन कैसे सम्भव हो सकता है?सारी दुनियां की खबर रखता है। लेकिन श्रेष्ठ संतान कैसे प्राप्त हो इस विषय पर ज्ञान लेना नहीं चाहता। ज्ञान मिल भी जाए तो उस पर काम करना नहीं चाहता। संतान को मात्र भाग्य समझकर ही स्वीकार कर लेते हैं। एक युगल आज जिस श्रेष्ठ/बुरी संतान को जन्म देता है, वह पांच सौ साल में चालीस लाख हो जाती है। तो जरा विचार करें। गर्भधारण से पूर्व एवं पश्चात् के गर्भ के नौ माह किसी विश्वविद्यालय की शिक्षा से भी बडा शिक्षा का केन्द्र हैं। जिस माता पिता ने इस काल अवधि के महत्व को जाना, समझा और कार्य किया उसे बच्चे को संस्कारित बनाने के लिए विशेष मेहनत नहीं करनी पडती।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)

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