– नम्रता दत्त
गत सोपान में पूर्व गर्भावस्था की संक्षिप्त जानकारी से यह बात ध्यान में आई कि गर्भधारण के लिए किस प्रकार की पूर्व तैयारी की आवश्यकता है। सम्पूर्ण सावधानियों के साथ सभी बातों का ध्यान रखते हुए गर्भाधान संस्कार के पश्चात् मात्र गर्भ धारण करने पर ही श्रेष्ठ संतान प्राप्ति का कार्य पूर्ण नहीं हो जाता। जिस श्रेष्ठ आत्मा को आह्वान करके गर्भ में बुलाया है, तो नौ माह उसके रहने के स्थान (गर्भ) एवं आसपास के परिवेश को भी श्रेष्ठ बनाना होगा।
चिकित्सा विज्ञान ने भी इस बात को स्वीकारा है कि गर्भाशय में विकसित होता शिशु गर्भावस्था में माता पिता से विचार और ज्ञान ग्रहण करता है।
गर्भाधारण करने तक माता-पिता (भावी) का परस्पर सहयोग आवश्यक है। परन्तु गर्भाधारण करने के पश्चात् माँ की भूमिका बढ़ जाती है और पिता की भूमिका, माता के संरक्षण मात्र की रह जाती है। भावी पिता का यह दायित्व है कि वह अपनी पत्नी को समूचित पोषण प्रदान करे। इसके अतिरिक्त पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों का भी यह दायित्व है कि वे सगर्भा को शांति एवं सहयोगपूर्ण व्यवहार का संरक्षण दे। प्रेम, सुरक्षा, सौहार्द से ही सगर्भा आनन्दित रहेगी और यह आनन्द ही शिशु के विकास एवं शिक्षा का आधार बनेगा।
गर्भावस्था की नौ मास की यात्रा में शिशु को जो शिक्षा प्राप्त होती है वह किसी भी विश्वविद्यालय में भी प्राप्त नहीं हो सकती। इतिहास इस बात का साक्षी है। अष्टावक्र और अभिमन्यु जैसे उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं। सामान्यतः हम जब महापुरूषों की जीवनियां पढ़ते हैं तो उनमें उनके माता पिता के स्वभाव और संस्कारों की भी चर्चा की जाती हैं। इसी बात से सिद्ध होता है कि माता पिता के स्वभाव और संस्कारों का प्रभाव शिशु पर अधिकांधतः गर्भावस्था में ही पड़ता है।
माता भुवनेश्वरी देवी ने बालक नरेन्द्र के जन्म से पूर्व भगवान शिव की उपासना की। यह बालक ही आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द बना। भुवनेश्वरी देवी एक आध्यात्मिक नारी थीं और आध्यात्मिकता के इस स्वरूप की अनुभूति बालक नरेन्द्र को सर्वप्रथम अपनी माता के सानिध्य से ही प्राप्त हुई। दूसरों की स्वतंत्रता एवं भावनाओं का सम्मान करना, सत्यनिष्ठ होना, ब्रह्मचर्य का पालन करना उनके व्यक्तित्व की पहचान बने। इन सभी साकारात्मक नैतिकता को उन्होंने विशेष तौर पर माता एवं पारिवारिक परिवेश के कारण ही प्राप्त किया।
गर्भ में आत्मा का सर्वप्रथम सचेतन सम्बन्ध माता से ही जुड़ता है। अतः शिशु की ग्रहणशीलता की तीव्रता को ध्यान में रखते हुए माता को ही विशेष पुरूषार्थ एवं साधना करनी है।
इस सोपान में माता का आहार विहार और विचार शिशु को किस प्रकार प्रभावित करते हैं उसी का संक्षिप्त अध्ययन करेंगे।
प्रथम मास – स्त्री और पुरुष के संयोग से गर्भ की स्थापना होती है। इसी क्षण से गर्भ का विकास होना प्रारम्भ हो जाता है। प्रथम दस दिन गर्भ प्रवाही अवस्था में होता है। अतः पंचमहाभूत तत्वों में से ‘जल’ तत्व की प्रधानता होती है। आठवें दिन मिश्री के दाने जितना भू्रण अपना स्थान निश्चित कर लेता है परन्तु अंग अव्यक्त होते हैं। चौदहवें दिन मस्तिष्क का प्रथम न्युरॉन सैल तैयार हो जाता है और फिर प्रति मिनट ढाई लाख न्युरॉनस तैयार होते हैं। यह है प्राकृतिक वर्कशॉप, जहाँ बिना ध्वनि के इतनी तीव्रता से कार्य चलता है।
प्रथम बार मां बनने के कारण शारीरिक और मानसिक स्थिति कुछ परेशानी एवं भय से भरी हुई होती है। बार बार मचली/उबकाई आने से शरीर में थकान सी महसूस होती है। परन्तु मां बनना सौभाग्य की बात है, ऐसा विचार करके सहनशक्ति को बढाते हुए प्रसन्न रहना चाहिए। परिवार को सहयोग, संरक्षण एवं हौंसला देना चाहिए।
गाय का दूध, पतली सी खीर/खिचङी, नारियल का पानी आदि ऐसे खाद्य पदार्थ लेने चाहिए जो सरलता से पचाए जा सके। क्रोध पर नियंत्रण रखें। विचार एवं भावनाएं सात्विक रखें। इसके लिए श्रेष्ठ एवं प्रेरक साहित्य पढ़ें।
द्वितीय मास – द्वितीय मास पूर्ण होने तक अंग-प्रत्यंग निश्चित आकार धारण कर लेते हैं। गुप्तांग के चिन्ह भी दिखने लगते हैं। हृदय प्रति मिनिट 150 बार धङकता है। स्थूल पिंड (शरीर) में सूक्ष्म शरीर (आत्मा) की प्रवेशता से जीवात्मा का स्वरूप तैयार हो जाता है। अब पंचमहाभूत तत्वों में जल के साथ साथ ‘वायु’ तत्व भी सम्मिलित होता है।
शारीरिक और मानसिक स्थिति लगभग प्रथम मास जैसी ही रहती है। माता और जीवात्मा में शनै शनै दैहिक सामंजस्य बैठना प्रारम्भ होने लगता है।
सुबह शाम के भोजन के अतिरिक्त सूखे मेवे एवं दूध से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए। शिशु की इन्द्रियां अब विकसित हो रही हैं इसलिए श्रेष्ठ सुनना, श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ साहित्य पढना तथा गर्भ की रक्षा के लिए मंत्र पाठ एवं प्रार्थना करनी चाहिए।
तृतीय मास – गर्भ का स्पष्ट मानव स्वरूप सूक्ष्म रूप में दिखाई देने लगता है। हाथ, पैर, अंगुलियां, नाखून और गुलाबी त्वचा सब बन जाते हैं। गर्भ की चेतना, गर्भिणी को होने लगती है। लिंगभेद स्पष्ट दिखाई देता है। अब पंचमहाभूत तत्वों में जल एवं वायु के साथ साथ ‘पृथ्वी’ तत्व की वृद्धि होती है।
शारीरिक और मानसिक स्थिति में सुधार आने लगता है क्योंकि अब गर्भ और माता में सामंजस्य आ जाता है। उबकाई आनी बन्द हो जाती है। गर्भ के स्पंदन से माता आनन्द विभोंर होती है। कर्णेन्द्रिय (कान/सुनने की क्षमता) अब सक्रिय हो जाती है। अतः उसे श्रेष्ठ संगीत सुनाना, मंत्र सुनाना, उससे वार्ता करना आदि क्रियाएं करनी चाहिए।
इस समयावधि से गर्भ का विकास तेज गति से होने लगता है। अतः विटामिन, प्रोटीन एवं खनिज तत्वों की भरपूरता वाला भोजन करना चाहिए। गाय का दूध, घी, शहद एवं मुरब्बा आदि का सेवन माता को करना चाहिए।
इस समय में मस्तिष्क की रचना होती है। अतः माता को अपने मन और मस्तिष्क को साकारात्मक भावों से भरपूर रखना चाहिए। क्रोध, ईर्ष्या अथवा नाकारात्मकता का प्रभाव न केवल उसके मस्तिष्क पर पङता है अपितु उसकी शारीरिक वृद्धि पर भी पङता है।
चौथा मास – चौथे मास में गर्भ/शिशु के हृदय की धङकन साफ सुनाई देती है। उसकी सभी इन्द्रियां विकसित हो जाती हैं। माता जो भोजन खाती है उसके स्वाद की अनुभूति वह कर सकता है और अपने स्वाद को भी वह माता की इच्छा के रूप में व्यक्त करता है। इसीलिए माता का मन खट्टा-मीठा आदि खाने का करता है।
गर्भ के स्थिर हो जाने के कारण माता अब भयमुक्त सा अनुभव करती है। शिशु के प्रति वात्सल्य एवं प्रेम की अनुभूति का सागर हिलोरे लेने लगता है। माता के इस स्नेह एवं प्रेम से ही शिशु औरों को प्रेम करना सीखता है।
माता को तेज मसाले आदि नहीं खाने चाहिए। संतुलित एवं सात्विक भोजन का सेवन ही करना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त में उठना, ईश वन्दना करना, खुली हवा में घूमना, व्यायाम करना, संगीत सुनना, साहित्य पढ़ना, मंत्रोच्चारण करना/श्रवण करना गर्भ से संस्कारित संवाद करना आदि माता की दिनचर्या का हिस्सा होना चाहिए।
शेष अगले सोपान में ……………..।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
और पढ़ें : शिशु शिक्षा – 7 – पूर्व गर्भावस्था
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख। गर्भवती माता को अवश्य पढ़ना चाहिए और इस ज्ञान का लाभ लेना चाहिए।