शिशु शिक्षा 16 (नव दम्पति शिक्षण 1 – संतान माता पिता का चयन करती है)

 – नम्रता दत्त

जामनगर (गुजरात) के दम्पत्ति श्रीमती स्वाति एवं श्रीमान हर्षिल शाह के परिवार में एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम आन्या रखा गया। संयोगवश उसी समय स्वाति की जेठानी मनीषा ने भी एक पुत्र मयंक (काल्पनिक नाम) को जन्म दिया। आन्या, मयंक से वजन में, कद में तो अधिक है ही व्यवहार में भी श्रेष्ठ है, ऐसा उनके सम्बन्ध एवं सम्पर्क में आने वालों को भी अहसास होता है। मयंक अकसर बीमार हो जाता है जबकि आन्या को कभी दवाई नहीं लेनी पङती। कारण है कि आन्या के माता पिता ने श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए गर्भ धारण के नीति नियमों का पालन किया जबकि मयंक के माता पिता को इस विषय में कोई विशेष ज्ञान था ही नहीं।

यह तो सुनिश्चित ही है कि शिक्षा शिशु के जन्म से भी पूर्व तब प्रारम्भ हो जाती है जब दम्पति (पति-पत्नी) भावी माता पिता बनने का विचार/संकल्प करते हैं। इस बात से यह बात पक्की है कि माता पिता बनने से पूर्व ही पति और पत्नी को भी यह जानने की जरूरत है कि श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति कैसे होती है? श्रेष्ठ आत्मा का आह्वान कैसे किया जा सकता है और उसको श्रेष्ठ संस्कार देने के नीति नियम क्या हैं अर्थात् परिवार को भी शिक्षा देने की जरूरत है। शिक्षा का पहला केन्द्र ‘घर’ और पहली गुरु ‘माता’ को ही कहा जाता है क्योंकि बच्चा सबसे पहले माता के सम्पर्क में ही आता है। गर्भ के नौ महीने बच्चा माता के सानिध्य में ही रहता है।

प्रख्यात शिक्षण संस्था के डायरेक्टर श्री कमलजीत सिंह बजाज ने चार वर्ष की बालिका अदिति में यह विशेषता पाई कि उसकी ग्रहणशक्ति अन्य बच्चों से तेज है। वह जैसे ही किसी भी बात को सीखती है उसे वह अपने सहपाठियों को बङी अच्छी तरह से समझाकर सीखाती है। डायरेक्टर कमलजीत सिंह को उसकी केस हिस्ट्री जानने की उत्सुकता हुई और उन्होंने अदिति के माता-पिता से भेंट की। अदिति की माता डिम्पल एवं पिता राकेश शाह जी ने उन्हें गर्भ संस्कार एवं गर्भ के दौरान पालन किए हुए नीति नियमों के विषय में बताया और कहा कि हमारे आहार विहार और व्यवहार का प्रभाव ही अदिति में दिखाई देता है। माता पिता बनने की ट्रेनिंग उन्होंने ‘समर्थ भारत’ प्रकल्प (जामनगर) से ली। यह प्रकल्प 0 से 5 वर्ष के बच्चों के माता-पिता को ट्रेनिंग देता है कि बच्चे के जन्म से पहले एवं बाद में उसकी देखभाल कैसे करनी है।

मनीषियों ने कहा है –

जननी जने तो भगत जन, या दाता या सूर।

नहीं तो जननी बांझ रहे, व्यर्थ गंवाए नूर।।

इस धरनी को ‘रत्न’ माता की कोख से ही मिलते है। इस सृष्टि पर मात्र मनुष्य ही ईश्वर की ऐसी श्रेष्ठ रचना है जो स्वयं श्रेष्ठ एवं संस्कारित जीवन जी सकता है और सोच-विचार एवं व्यवहार से श्रेष्ठ सन्तान को जन्म दे सकता है।

वैदिक परम्पराओं एवं सामाजिक मान्यताओं के आधार पर विवाह सूत्र में बंधे दम्पति को ही संतान को जन्म देने की स्वीकृति प्राप्त होती है। विवाह का यह बन्धन सामाजिक ऋणों (मातृ ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण) से मुक्ति के लिए ही बांधा जाता है। बच्चे के जन्म के समय हम मात्र भौतिक/स्थूल शरीर (पांच तत्वों से बनी काया) की सुन्दरता अथवा रूप रंग को ही देखते हैं परन्तु महत्व उस सूक्ष्म शरीर (5 कर्मेन्द्रियां, 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 तन्मात्राएं, मन, अहंकार और चित्त) का है जिसने उस स्थूल शरीर का आश्रय लिया है। ‘प्रकृति’ इन दोनों शरीरों का कारण है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर (आत्मा) शरीर से अलग हो जाता है स्थूल देह को मृत देह कहकर हम अन्तिम संस्कार कर देते हैं। परन्तु सूक्ष्म शरीर (आत्मा) कभी नहीं मरता। यह नए स्थूल शरीर को धारण कर पुनः जन्म ले लेता है। अतः कर्मों के फल इस सूक्ष्म देह (आत्मा) में ही रहते हैं और पुर्नजन्म में अच्छी/बुरी भोगना भोगते हैं। यह कर्म अथवा संस्कार जन्म जन्मांतर कटते और बनते रहते हैं। अतः सूक्ष्म शरीर (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेने के लिए ऐसे माता पिता का चयन करना चाहती है जहां उसकी पूर्व जन्म की अपूर्ण इच्छायें पूर्ण हो सकें। अतः श्रेष्ठ सूक्ष्म शरीर (आत्मा) को अपने गर्भ में धारण करने के लिए स्त्री और पुरुष को सुपात्र बनना पङता है।

जिस प्रकार घर की सफाई और साज सज्जा करके प्रतिष्ठित व्यक्ति को घर बुलाया जाता है ठीक उसी प्रकार स्वयं की आन्तरिक एवं बाह्य सफाई करके और सुसंस्कारों से स्वयं को सजाकर श्रेष्ठ आत्मा को गर्भ में बुलाने का पात्र बन श्रेष्ठ आत्मा का आह्वान करना पङता है। श्रेष्ठ पात्र बनने पर ही, श्रेष्ठ आत्मा स्वतः आकर्षित होती है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया है।

श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए?

  1. पिता के 14 पीढियों के तथा माता के 5 पीढियों के संस्कार संतान में आते है। अतः परम्परागत श्रेष्ठ संस्कारों वाली पीढी से वर-वधू का चयन करना श्रेष्ठकर होता है।
  2. पति-पत्नी को गर्भाधान से पहले कम से कम 3 महीने और अधिकतम एक वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन तथा प्रार्थना द्वारा उत्तम बनना चाहिए।
  3. पति पत्नी में परस्पर प्रेम, श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए।
  4. श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए दोनों में विचार एवं पुरूषार्थ की समानता होनी चाहिए।
  5. गर्भधारण के बाद माता की भूमिका बढ जाती है। अतः माता की दिनचर्या व्यवस्थित होनी चाहिए। शरीर एवं मन की शुद्धि के लिए नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठना, सूर्य दर्शन करना, हवन करना, योगाभ्यास करना, आहार-विहार और अपने वस्त्रों आदि के प्रति जागरुक रहना चाहिए।
  6. ईश्वर स्मरण, सद् साहित्य का अध्ययन करना, सत्संग एवं सदाचार का पालन करना चाहिए।
  7. चार महीने के गर्भ की सभी इन्द्रियां विकसित हो जाती है। अतः गर्भ में पल रहे बच्चे से संस्कारित संवाद (बातचीत) करना चाहिए। सृष्टि के पंचमहाभूत तत्व, विभिन्न उत्सव-परम्पराओं एवं परिवार की गरिमा के विषय में बच्चे से गर्भ में ही बात करें।
  8. परिवार का वातावरण प्रेम, सौहार्द से भरपूर एवं शांत तथा भक्तिमय बनाना चाहिए।

उपरोक्त नियमों का पालन किसी तपस्वी की भांति तपश्चर्या करके करने से निश्चित रूप से श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति होगी।

गर्भावस्था के संस्कार चिरस्थायी एवं निर्णायक होते हैं। यह आजीवन रहते हैं। एक प्राचीन उक्ति में कहा गया है –

आयुः कर्मं च चितं च विद्या निधनमेव च।

पद्यैतान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।

केवल भारतीय संस्कृति में ही पति पत्नी का सम्बन्ध मात्र दैहिक (केवल शरीर का) नहीं माना गया बल्कि इसे आत्मिक (आत्मा का) कहा गया है। इसीलिए भारत भूमि, देव भूमि कहलाती है।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)

और पढ़ें : शिशु शिक्षा 15 (प्रारंभिक बाल्यावस्था में अनौपचारिक शिक्षा का महत्व)

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