– देवेन्द्र प्रताप सिंह
पुस्तक का नाम : भारतीय शिक्षा मनोविज्ञान के आधार
लेखक : लज्जाराम तोमर
प्रकाशक : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा), Website : www.samskritisansthan.org
संस्करण : द्वितीय संस्करण, युगाब्द 5117, विक्रमी संवत् 2072, सन् 2015
शिक्षा मनोविज्ञान पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं किन्तु भारतीय दृष्टिकोण समाहित करते हुए संभवत: यह प्रथम प्रयास है।
प्राय: यह कहा जाता है कि भारतीय दर्शन तथा पाश्चात्य विज्ञान एक दूसरे के निकट आ रहे हैं। भारतीय दर्शन कल्पना पर आधारित नहीं है अपितु यह विज्ञान ही है। कालांतर में प्रयोग की गई वैज्ञानिक पद्धतियाँ विलुप्त हो गई है। किन्तु उनके निष्कर्ष सूत्रों में आज भी उपलब्ध हैं। मनोविज्ञान भारतीय दर्शन का एक वशिष्ट अंग है तथा शिक्षाशास्त्र का प्रमुख विषय भी है। जिस प्रकार ‘रिलीजन’ धर्म का और ‘कल्चर’ संस्कृति का सामानार्थी नहीं है उसी प्रकार लेखक “फिलॉसफी” को दर्शन का सामानार्थी नहीं मानता है। दर्शन बहुआयामी है तथा मनोविज्ञान उसका एक अंग है।
लेखक ने बड़ी स्पष्टता के साथ पाश्चात्य एवं भारतीय मनोविज्ञान की तुलना की है । भारतीय मनोविज्ञान के सूक्षम तथ्यों की सुन्दर विवेचना प्रस्तुत की गई है । शायद पश्चिम के मनोवैज्ञानिक, लेखक की इस अवधारणा से सहमत न हों कि मानव की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है तथा समस्त ज्ञान उसमें अन्तनिर्हित है किन्तु भारतीय मनीषियों ने इस सत्य को प्रतिपादित किया है।
संस्कार की अवधारणा मुख्य रूप से भारत की देन है । संस्कारों द्वारा मनुष्य में अन्तर्निहित गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। संस्कारों का अपना महत्व हैं उन्हें बनाए रखने का प्रयास होना चाहिए। लेखक ने संस्कारों के कारक तत्वों में आनुवांशिकता एवं वातावरण के साथ पूर्व जन्म को भी समाहित किया है। इन्हें अनेक भारतीय विद्वानों ने स्वीकार किया इनमें विशेष रूप से श्री अरविन्द प्रमुख है।
व्यक्तित्व के विभिन्न प्रकारों तथा चरित्र विकास के विभिन्न आयामों का वर्णन रोचक एवं तथ्यपरक है। लेखक ने विस्तार के साथ ज्ञान प्राप्ति के मार्ग की चर्चा की है तथा मन, बुद्धि, चित्त का सूक्ष्मता से विवेचन प्रस्तुत किया है। यह भी प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय मनोविज्ञान केवल मन एवं व्यवहार तक ही सीमित नहीं है किन्तु वह मन से परे आत्मत्व तक पहुंचता है।
सम्पूर्ण विश्व में योग की चर्चा है । आज के तनावपूर्ण जीवन में इसका विशेष महत्व है। पुस्तक में अष्टांगयोग की विवेचना की गयी है। लेखक ने योग को विज्ञान कहा है। योग द्वारा शिक्षा को रुचिकर, सरल, सुगम एवं सार्थक बनाया जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वशिष्ट स्थान रखेगी। पुस्तक की विषय वस्तु मौलिक एवं शोधपूर्ण है। यह शिक्षाशास्त्र से जुड़े हुए लोगो के लिए तो उपयोगी है ही अन्य लोगों द्वारा भी पठनीय है। पुस्तक का महत्व इस कारण भी बढ़ जाता है क्योंकि इसके लेखक एक ऐसे संस्थान के मार्गदर्शक रहे है जिसने भारतीय पद्धति से शिक्षा देने का अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया है।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे है।)
और पढ़ें : बाल केन्द्रित क्रिया आधारित शिक्षा – 3 (मनोविज्ञान)