भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 46 (शिक्षा राष्ट्रीय होती है)

 – वासुदेव प्रजापति

भारत में शिक्षा का विचार समग्रता में किया गया है। शिक्षा सदैव बालक को दी जाती है। किन्तु वह केवल बालक के लिए नहीं होती, वह राष्ट्र, समाज, धर्म व संस्कृति को पुष्ट करने के लिए भी होती है। इस दृष्टि से शिक्षा राष्ट्रीय होती है। आज हम इस बिन्दु को समझने का प्रयत्न करेंगे।

शिक्षा के राष्ट्रीय सन्दर्भ को समझने से पूर्व राष्ट्र के लिए जीवन जीने वाले महामहोपाध्याय जी का यह संस्मरण अपने चित्त में अंकित करेंगे –

राष्ट्र धर्म का पालन

महामहोपाध्याय पंडित द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी परम वैष्णव तथा धर्मपालक थे। वे उन दिनों सरकारी सेवा में थे। सरकारी सेवा में होते हुए भी अपने दैनंदिन के पूजा-पाठ में कभी भी नागा नहीं करते थे। वे प्रतिदिन प्रयाग में गंगा स्नान करने के उपरान्त श्रीमद्भागवत का पाठ करते और बाद में दफ्तर जाते थे।

उस समय हमारे देश पर अंग्रेजी राज्य था। दफ्तरों में अंग्रेज अधिकारियों का आदेश मानना पड़ता था। दफ्तर में द्वारकाप्रसाद जी की कार्य के प्रति निष्ठा व कुशलता अनुकरणीय थीं। उनकी इसी विशेषता के कारण उन्हें वारेन हेस्टिंग्स की जीवनी लिखने का काम दिया गया। उन्होंने वारेन हेस्टिंग्स की जीवनी नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने हेस्टिंग्स के उल्लेखनीय कार्यों को तो लिखा, परन्तु साथ ही साथ भारत में अंग्रेजी राज स्थापित करने के लिए हेस्टिंग्स ने जो-जो अधार्मिक कृत्य किए, उन्हें भी लिखा।

पुस्तक के प्रकाशित होते ही हडकम्प मच गया। अंग्रेज गवर्नर ने चतुर्वेदी जी को नाराजगी भरा एक कठोर पत्र भेजा। उस पत्र में मुख्य रूप से उन पर यही आरोप था कि सरकारी सेवा में रहते हुए भी उन्होंने अंग्रेज अधिकारी के विरुद्ध लिखने की हिम्मत कैसे कर ली?

दूसरे ही दिन चतुर्वेदी जी ने उस पत्र का उत्तर दिया – मेरे हाथ में जब लेखनी होती है, तब मैं अपने इष्टदेव, अपने राष्ट्र एवं सत्य के प्रति निष्ठावान होता हूँ। मेरी निष्ठाएं अंग्रेजी राज्य के प्रति नहीं हैं। मैं अपनी नौकरी बचाने के लिए अपने राष्ट्र धर्म के साथ विश्वासघात कदापि नहीं कर सकता। इस प्रत्युत्तर को देने के साथ ही उन्होंने सरकारी सेवा से अपना त्यागपत्र भी सौंप दिया।

चतुर्वेदी जी इतना साहस भरा कदम इसलिए उठा पाए कि उन्हें राष्ट्रधर्म की शिक्षा मिली थी, और राष्ट्रधर्म हमें सिखाता है कि व्यक्तिगत हित से राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है, जिसे चतुर्वेदी जी ने प्रत्यक्ष करके दिखाया।

शिक्षा का राष्ट्र से सम्बन्ध

राष्ट्रीय शिक्षा को समझने से पूर्व हमें राष्ट्र को समझना होगा। प्रजा, भूमि तथा जीवन-दृष्टि मिलकर राष्ट्र बनता है। इन तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। प्रजा उस भूमि को अपनी माता मानती है, जो स्वाभाविक है। उस भूमि और प्रजा का स्वभाव ही उस राष्ट्र की जीवन-दृष्टि कहलाती है। यह जीवन-दृष्टि उस राष्ट्र की शिक्षा का आधार होती है और यही शिक्षा उस जीवन-दृष्टि को पुष्ट करती है। शिक्षा और राष्ट्र का ऐसा एकात्म सम्बन्ध है। ऐसी शिक्षा को हम राष्ट्रीय शिक्षा कहते हैं।

राष्ट्र का जीवन समरस, समृद्ध व सुखी हों, इसका अर्थ है कि राष्ट्र के सभी घटक सुखी होने चाहिए। राष्ट्र के घटक से तात्पर्य है – प्रत्येक व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और पंचमहाभूत, वृक्ष-वनस्पति एवं प्राणी जगत ये सभी उस राष्ट्र के घटक माने जाते हैं।

राष्ट्रीयता की धारणाएँ

राष्ट्र को समरस, सुखी व समृद्ध बनाने के लिए सोच-विचार कर अनेक प्रकार की व्यवस्थाएं खड़ी करनी होती हैं। इसे ही उस राष्ट्र का व्यवस्था धर्म कहते हैं। इन सभी व्यवस्थाओं में जीवन-दृष्टि परिलक्षित होती है। भारतीय जीवनदृष्टि की कुछ प्रमुख धारणाएँ, ये हैं –

    • यह सृष्टि परमात्मा का ही विश्व रूप है। जीवन एक और अखण्ड है, अनेक नहीं। अतः सृष्टि के सभी पदार्थों (जड़-चेतन) में परस्पर एकात्मता का सम्बन्ध है।
    • सज्जन व्यक्ति पहले दूसरे का विचार करता है, बाद में अपना। त्याग और सेवा उसके व्यवहार के आदर्श हैं।
    • अन्न पवित्र है। विद्या, अन्न और औषधि क्रय-विक्रय की वस्तुएं नहीं हैं। अर्थात् सभी पवित्र वस्तुओं को खरीद-बैचान से ऊपर माना है।
    • एक ही सत्य को विद्वान भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। उपासना के अनेक मार्ग होने पर भी ईश्वर एक है और सभी मार्गों का गंतव्य भी एक ही है। अतः सर्वपंथ समभाव भारतीय व्यवहार है।
    • स्वतंत्रता सबका मूल अधिकार है, इसलिए जड़-चेतन सभी पदार्थों के स्वतंत्र अस्तित्व का सम्मान करना चाहिए।
    • यह सृष्टि मनुष्य के उपभोग के लिए नहीं बनीं है, मनुष्य इसकी रक्षा करने हेतु बना है। इसलिए सृष्टि में सारे व्यवहार परिवार भाव से होने चाहिए।

व्यवहार के ये सभी सूत्र हमारी पहचान हैं। ये सूत्र भारत को अन्य देशों से एक विशेष पहचान देते हैं। इस भारतीय पहचान को बनाए रखने के लिए शिक्षा का राष्ट्रीय होना आवश्यक है।

परम्परा के वाहक : कुटुम्ब व विद्यालय

भारत परम्परा का देश है। भारत में परम्परा के मुख्य दो केन्द्र हैं। एक है कुटुम्ब और दूसरा है विद्यालय। कुटुम्ब में वंश परम्परा चलती है और विद्यालय में ज्ञान परम्परा चलती है। कुटुम्ब में पिता-पुत्र परम्परा के वाहक हैं तो विद्यालय में गुरु-शिष्य इस परम्परा के वाहक हैं। इन दोनों परम्पराओं से जीवनदृष्टि और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होते हैं। हस्तांतरण का यह कार्य जब सम्यक रूप से होता है, तब राष्ट्र जीवन समरस, सुखी व समृद्ध होता है। जब शिक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं होती, तब हस्तान्तरण ठीक से नहीं हो पाता। परिणाम स्वरूप परम्परा खण्डित हो जाती है। परम्परा खण्डित होने से राष्ट्र जीवन भी खण्डित होता है। इसलिए परम्परा के वाहक दोनों केन्द्रों को सबल वह सक्षम बनाए रखना हमारा दायित्व है।

भारत को यूरोप बनाने के प्रयत्न

अंग्रेजों ने अठारहवीं शताब्दी में भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से यूरोप बनाना चाहा। इसके लिए उसने भारतीय शिक्षा का यूरोपीकरण किया। शिक्षा को बदलने के लिए उसने भारतीय आधार ही बदल दिया। कक्षा कक्ष में भारतीय ज्ञान पढ़ाने के स्थान पर यूरोपीय ज्ञान पढ़ाया जाने लगा। यूरोपीय ज्ञान के माध्यम से यूरोप की दृष्टि दी जाने लगीं। साथ ही साथ उन्होंने शिक्षा की व्यवस्थाएं भी बदल दीं।  भारत में शिक्षा स्वतंत्र थी, अंग्रेजों ने शिक्षा शासन के अधीन कर दीं। भारत में शिक्षा निशुल्क दी जाती थीं, उन्होंने शिक्षा को सशुल्क कर डाला। इसलिए आज स्वतंत्र भारत में भी पहले फीस बाद में प्रवेश होता है।

इस प्रकार अंग्रेजों ने शिक्षा के माध्यम से भारतीय जीवन दृष्टि को बदलना प्रारम्भ किया। फलत: जीवन दृष्टि और शिक्षा के सम्बन्ध विच्छेद की प्रक्रिया शुरू हुई। विगत दस-बारह पीढ़ियों से परिवर्तन की यह प्रक्रिया चल रही है, फिर भी भारत अभी तक पूर्ण रूप से यूरोप नहीं बना है। परन्तु इसके परिणाम अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हुए हैं। समय-समय पर इस यूरोपीय जीवन-दृष्टि के चंगुल से मुक्त होने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा के आन्दोलन भी चले, परन्तु वे शिक्षा को पूर्णतः राष्ट्रीय नहीं बना सके।

शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की चुनौती

आज भी हमारी शिक्षा यूरोपीय व भारतीय जीवन दृष्टि का मिश्रण शिक्षा का आधार बना हुआ है। परिणाम स्वरूप भारतीय समाज हीनता बोध से ग्रस्त हैं। उसे भारतीय और अभारतीय की समझ भी नहीं है। शिक्षा जब राष्ट्रीय नहीं होती तब राष्ट्र की स्थिति ऐसी हो जाती है।

अतः आज भी भारत के सामने शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने की महती आवश्यकता खड़ी है। अनेक सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन इस कार्य में लगे हैं। अनेक शोध संस्थान इस दृष्टि से अध्ययन व अनुसंधान का कार्य कर रहे हैं। अनेक संस्थाएं जनमानस का प्रबोधन भी कर रही हैं। परन्तु देश में शिक्षा के दो प्रवाह चल रहे हैं। एक प्रवाह अराष्ट्रीय शिक्षा का है तो दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा का है, दोनों ही प्रवाह समान प्रभावी हैं। एक के पास अधिकार है तो दूसरे के पास जनमानस पर प्रभाव है। इस स्थिति में से शिक्षा को निकाल कर हमें उसे पूर्ण राष्ट्रीय बनाना है। इस चुनौती को स्वीकार करना हमारा कर्तव्य है। हम अवश्य ही अपने पुरुषार्थ से शिक्षा को राष्ट्रीय बनाने में सफल होंगे।

(लेखक शिक्षाविद् हैभारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 45 (भारतीय शिक्षा सत्य व धर्म सिखाती है)

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