– वासुदेव प्रजापति
शिक्षा के प्रयोजनों को जानने के क्रम में हमने शिक्षा का सांस्कृतिक प्रयोजन, शिक्षा का राष्ट्रीय प्रयोजन एवं शिक्षा का सामाजिक प्रयोजन समझा। आज हम शिक्षा के व्यक्तिगत प्रयोजन को समझेंगे। किन्तु उससे पूर्व एक लघुकथा ‘नया मुखिया’ से प्रेरणा ग्रहण करेंगे।
नया मुखिया
किसी गाँव में एक अनुभवी मुखिया थे। वे सदैव गाँव की भलाई करने में जुटे रहते थे और गाँव वाले भी उनकी हरेक बात मानते थे। मुखिया ने कभी किसी के साथ अन्याय नहीं किया, वे तो दीन-दुखियों के सच्चे सहायक थे। यह गाँव अपनी एकता व सुख-समृद्धि के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था।
परन्तु मुखिया को एक चिन्ता खाए जा रही थी। वे स्वयं बूढ़े हो चुके थे, मेरे बाद इस गाँव के मुखिया कौन होंगे? वे भी मुखिया के दायित्व पर खरे उतरेंगे या नहीं? उन्होंने गाँव के तीन नौजवानों का चयन किया और उनकी परीक्षा लेने की योजना बनाई।
एक दिन मुखिया ने नौजवानों को सूर्यास्त के बाद उस स्थान पर बुलाया, जहाँ एक नाला बाँधा जा रहा था। तीनों नौजवान वहां पहुंचे किन्तु मुखिया कहीं दिखाई नहीं दिए। तीनों नौजवान लौटने लगे, ज्यों ही वे मुड़े तो देखा कि नाले के दलदल में एक गाड़ीवान की गाड़ी फस गई है। वह अकेला ही गाड़ी को दलदल से बाहर निकालने की कौशिश कर रहा है। इधर अंधेरा होने को था, अतः गाड़ीवान ने उन तीनों नौजवानों को मदद के लिए पुकारा।
उधर नौजवान आपस में बात करने लगे कि यदि मदद करने जायेंगे तो कीचड़ में हमारे बारे कपड़े गन्दे हो जायेंगे। एक ने कहा मुझे बहुत जरूरी काम है, मैं तो जा रहा हूँ। दूसरे ने कहा, घर पर मेरे पिताजी मेरी बाट जोह रहे होंगे इसलिए मैं तो घर जाऊॅंगा। ऐसा कहते हुए दोनों चले गए।
तीसरे नौजवान ने सोचा, यदि मैंने इस गाड़ीवान की मदद नहीं की तो और कौन करेगा? उसने अपनी धोती कसी और कीचड़ में चलकर गाड़ीवान के पास पहुंचकर गाड़ी के पहियों को धकेलने लगा। कुछ ही देर में गाड़ी दलदल में से बाहर निकल आई। गाड़ी के बाहर आते ही गाड़ीवान ने अपने मूंह पर से बाँधा हुआ ढाटा हटाया, तो वह नौजवान आश्चर्यचकित हो गया। वे गाड़ीवान तो स्वयं मुखिया जी थे। गाँव में भी किसी को यह जानकारी नहीं थी कि मुखिया जी ही गाड़ी लेकर गए हैं।
मुखिया जी ने उस नौजवान की पीठ थपथपाई और कहा कि तुम मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। आज हमारे गाँव को एक नया व योग्य मुखिया मिल गया। जब गांवों में ऐसे समर्थ व सेवाभावी नौजवानों की संख्या बढ़ेगी, तभी गाँव उठकर खड़े हो सकेंगे। और यह संभव होगा शिक्षा के व्यक्तिगत प्रयोजन से, शिक्षा द्वारा समर्थ व सेवाभावी व्यक्तियों का निर्माण करने से।
अर्थार्जन के हेतु को बदलना
आज की शिक्षा केवल व्यक्ति के अर्थार्जन पर केन्द्रित हो गई है। बहुत छोटी उम्र में शिशु को विद्यालय भेज दिया जाता है, लगभग पन्द्रह-बीस वर्ष उसका अध्ययन चलता है। अध्ययन पूर्ण कर लेने के बाद उसके पास प्रमाणपत्र तो होते हैं परन्तु वह अर्थार्जन कर पाने की वास्तविक योग्यता नहीं रखता। दूसरी ओर उसे अर्थार्जन के अवसर भी उपलब्ध नहीं हो पाते।
जब भी शिक्षा का विचार किया जाता है तो शिक्षाविदों का मत यही होता है कि शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है, केवल अर्थार्जन के लिए नहीं। परन्तु व्यवहार में सारी योजनाएं अर्थार्जन से सम्बन्धित ही होती है। इसका परिणाम यह होता है कि न तो अर्थार्जन होता है और न ज्ञानार्जन हो पाता है। इस प्रकार जीवन निर्माण के अमूल्य पन्द्रह-बीस वर्ष व्यर्थ में ही चले जाते हैं।
व्यक्तिकेन्द्री जीवन व्यवस्था बदलना
जिस प्रकार हमने शिक्षा का हेतु अर्थार्जन मान लिया है, उसी प्रकार हमने व्यक्ति केन्द्रित जीवन व्यवस्था को अपना लिया है। भारतीय समाज व्यवस्था में व्यक्ति को इकाई नहीं माना है अपितु परिवार को इकाई स्वीकार किया है। व्यक्ति केन्द्रित जीवन व्यवस्था में व्यक्ति को केन्द्र में रखकर सभी बातों का विचार किया जाता है। व्यक्ति का केरियर, व्यक्ति की सुख-सुविधा, व्यक्ति का अर्थार्जन और व्यक्ति के विकास को ही प्राथमिकता दी जाती है। इसके कारण ही अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी होती हैं। जिस व्यक्ति को केन्द्र में रखा जाता है, वही सबसे अधिक संकट में पड़ जाता है।
अतः व्यक्ति को लेकर नये सिरे से शिक्षा का विचार करना होगा। हम देश व समाज की जो स्थिति निर्माण करना चाहते हैं, उसके लिए पुरुषार्थ तो व्यक्ति को ही करना पड़ेगा। भारत में व्यवस्था परिवार केन्द्रित, विचार आत्मनिष्ठ और व्यवहार आत्मीयतापूर्ण होता है, परन्तु पुरुषार्थ तो व्यक्ति केन्द्रित ही होता है। इसलिए समर्थ राष्ट्र बनाने व विश्व शान्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को समर्थ व सुशील बनना पड़ता है। अतः शिक्षा व्यक्ति को समर्थ व सुशील बनाने वाली होनी चाहिए।
समर्थ बनने का अर्थ
व्यक्ति को समर्थ बनाने का अर्थ है कि उसमें अपने मन को वश में रखने की शक्ति होनी चाहिए। अपनी आत्मशक्ति से ही कार्य सिद्ध होते हैं। स्वामी विवेकानन्द मन से जुड़ी दो शक्तियों की बात करते थे, एक एकाग्रता और दूसरी ब्रह्मचर्य। इन दोनों शक्तियों को बढ़ाना ही समर्थ बनाना है।
इसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि का सामर्थ्य बढ़ना चाहिए। अपनी बुद्धि से वह ब्रह्माण्ड के रहस्य खोल सके इतना सामर्थ्य उसमें चाहिए। उसे समाजधारणा के लिए शास्त्रों की रचना करना तथा शास्त्रों के अनुसार व्यवहार करना आना चाहिए। बुद्धि का ऐसा विकास ही समर्थ बनने का अर्थ है।
अपनी सृजनशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों के द्वारा अनेक प्रकार की कलाकृतियों का निर्माण करना, दैनिक उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन करना आना चाहिए। साहित्य, संगीत व कला उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं, मनुष्य को इन क्षेत्रों में भी प्रवीण बनना चाहिए। ऐसे और भी क्षेत्र गिनाएं जा सकते हैं। हमारे यहाँ इसे ही समर्थ बनना माना गया है।
समर्थ बनाने वाली शिक्षा का विचार
शिक्षा सर्वप्रथम व्यक्ति की सोच बदलने वाली हो। इस जगत के सम्बन्ध में पश्चिम का विचार है कि यह जगत मेरे लिए है और मैं उसका मेरे सुख के लिए उपयोग कर सकता हूँ। इसे बदलकर भारतीय विचार कि मैं इस जगत के लिए हूँ और मेरे सामर्थ्य का उपयोग इस जगत के भले के लिए कर सकूंगा इसके लिए मुझे सामर्थ्यवान बनना चाहिए। ऐसी सोच बनाने वाली शिक्षा होनी चाहिए।
मनुष्य सुख चाहता है, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। किन्तु सुख क्या है? यह समझ होनी आवश्यक है। मात्र खाने-पीने और इन्द्रियों के उपभोग में ही सुख है, मानकर चलना तो ठीक नहीं है। मनुष्य केवल शारीरिक और मानसिक सुखों से सन्तुष्ट नहीं होता, उसे आत्मिक सुख भी चाहिए। आत्मिक सुख किन बातों में है? यह सिखाने वाली शिक्षा होनी चाहिए।
इस सृष्टि के प्राणी जगत, वनस्पति जगत एवं पंचमहाभूतों को व्यक्ति से सुरक्षा मिलनी चाहिए। ये मनुष्य से भयभीत न रहें, इसी में उसका बड़प्पन है। मैं मनुष्य सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसलिए मैं सबको अपने वश में रखूंगा, यह सोच गलत है। सोच तो यह चाहिए कि मैं बड़ा हूँ, इसलिए सबकी सुरक्षा करना मेरा दायित्व है। यह भाव और तदनुसार व्यवहार सिखाने वाली शिक्षा होनी चाहिए।
मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है। उसके जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। नई पीढ़ी तो मोक्ष शब्द से ही परिचित नहीं है, उसे लक्ष्य बनाने की बात तो कल्पना में भी नहीं है। मनुष्य को इस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति करवाने की आवश्यकता है। यह अनुभूति साधना से मिलती है, इसलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उसे साधना करना सिखाएं।
भारतीय प्रतिमान लागू करना
शिक्षा के प्रयोजनों का विचार समग्रता में करना होगा। समर्थ मनुष्य से ही सारे प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इन प्रयोजनों के सिद्ध होने से संस्कृति व समृद्धि का विकास होता है और समाज श्रेष्ठ व सुसंस्कृत बनता है। ऐसे श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर ही मनुष्य अभ्युदय और नि:श्रेयस प्राप्त कर सकता है। इस बात को स्वीकार कर शिक्षा योजना बनानी चाहिए।
शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान हटाकर भारतीय प्रतिमान को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। किन्तु इसके लिए अति व्यापक प्रयत्न करने होंगे, यह केवल चिंतन का विषय नहीं है। इस चिंतन को व्यवहार में लाने हेतु कृति का विषय बनाना आवश्यक है। यह कार्य अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना होगा।
आज समझौता करने की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई है, उसे आग्रह पूर्वक छोड़ना चाहिए। भारतीय प्रतिमान को लेकर कहीं पर भी समझौता न करते हुए, उसके मूल में जाकर छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते हुए इस कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा। भारत में भारतीय प्रतिमान लागू हो गया तो केवल भारत को ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व को इसका लाभ होगा। क्योंकि भारतीय प्रतिमान केवल भारतीयों के कल्याण की बात नहीं करता अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण को सुनिश्चित करता है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
और पढ़ें : ज्ञान की बात 47 (शिक्षा समाजनिष्ठ होती है)