अपयश को भी झेलो!

 – दिलीप वसंत बेतकेकर

अपयश किसको अच्छा लगता है? किसी को भी नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को सफलता और यश ही चाहिए परन्तु क्या वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति जीवन के हर पहलू में यशस्वी हो पाता है? क्या किसी को कभी अपयश का सामना नहीं करना पड़ता? पराभव क्या कभी झेलना नहीं पड़ता? क्या प्रत्येक बात हमारी चाहत के अनुसार ही होती है? और यदि अपयश, नकार भी प्राप्त होता है तो चाह अनुसार प्राप्त न होने के कारण अंतिम पर्याय आत्महत्या करना ही है क्या?

आज किसान से लेकर विद्यार्थी तक की आत्महत्या का परिमाण बढ़ता जा रहा है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर आत्महत्या, ‘अधिक समय तक टी.वी. मत देखो’, अथवा ‘मोबाइल से मत खेलो’ ऐसा पालकों द्वारा कहने पर आत्महत्या, प्रेमभंग होने पर, निराशाग्रस्त होने पर आत्महत्या, कोई इच्छित वस्तु प्राप्त न होने के कारण आत्महत्या! आत्महत्या के लिए कोई भी छोटा सा कारण पर्याप्त हो जाता है! आत्महत्या का विषय इतना सरल नहीं है जितना दिखाई देता है, बहुत जटिल और उलझन भरा है। मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक तथा समाजशास्त्राज्ञों द्वारा गंभीर अध्ययन का विषय है।

सरसरी दृष्टि से कुछ मुद्दे ध्यान में आते हैं, अनुभव होते हैं। आजकल अधिकांश माता-पिता की एक ही संतान होती है। इसलिए बालक के बहुत लाड़-प्यार होते हैं। जिन पालकों का बचपन अभावों में बीता है, परिस्थिति साधारण, कष्टमय रही है परन्तु आज दम्पति में दोनों के ही कमाने के कारण पैसा पर्याप्त होता है और उनकी सोच भिन्न हो जाती है। हमें जो वस्तुएं बचपन में नहीं मिली थीं, वैसा अभाव बच्चे अनुभव न करें, इस कारण वे बच्चे की प्रत्येक जिद पूरी करते हैं। इस संदर्भ में एक विचारवंत के विचार महत्वपूर्ण हैं। वे प्रश्न पूछते हैं, “आपके बच्चे को असंतुष्ट बनाने का निश्चित मार्ग आपको ज्ञात है क्या?” आगे उनका उत्तर है, “ये निश्चित मार्ग है उसे जो चाहिए उसकी पूर्ति करना।” जैसे-जैसे पाल्य बड़ा होता जाता है उसकी मांगें भी बढ़ती जाती हैं। धीरे-धीरे ये मांगें इतनी अधिक हो जाती हैं कि पालक को उनकी पूर्ति करना समस्या बन जाता है। जिद की पूर्ति करना असंभव हो जाता है। बालक को संतुष्ट करना कठिन हो जाता है और कभी अचानक अनपेक्षित रूप से पालकों द्वारा नकार हो जाता है तो उस वस्तु के अभाव की अपेक्षा उनके नकार के दुख से अधिक वेदना बालक अनुभव करता है।

गैरी क्लीवलैंड मेयर्स, “हाऊ टू टीच ए चाइल्ड द मीनिंग ऑफ नो” लेख में लिखते हैं – “तीन वर्ष पूर्व जो बालक ‘नहीं’ का अर्थ न जानता हो उसकी ईश्वर रक्षा करें”! कुछ वस्तुएं हमें प्राप्त नहीं हो सकतीं। प्रत्येक कार्य अपनी इच्छानुसार हम नहीं कर पाएंगे। ये बालकों को हर संभव जल्द ही समझा दें।

एक मित्र के घर गया था। उनके बेटे का चार साल का बालक हॉल में था। हमारी बातचीत के चलते अचानक बालक ने उस दिन के समाचार पत्र को खींच लिया और उसे फाड़ने लगा। दादा-दादी बालक की इस क्रिया को असहाय दृष्टि से देखते रहे। बच्चों को मनचाहा कुछ भी करने देना, उन्हें न रोकना, ये कितना उचित है? गोवा से मुंबई जा रहा था। मेरे पास ही ट्रेन में एक लड़का और उसके पिता बैठे थे। लड़का होगा आठवीं-नवीं कक्षा में पढ़ने वाला! परिवार संपन्न लग रहा था! बाप-बेटा, दोनों के पास स्वतंत्र मोबाइल थे। एक विक्रेता आया। खाद्य पदार्थ थे उसके पास। बच्चे को सेंडविच चाहिए थे। पिताजी ने उसके लिए सेंडविच खरीद दिए। बच्चा सेंडविच खाने लगा। सेंडविच का एक छोटा सा टुकड़ा पिताजी ने चख लिया। बच्चा खीझ गया। हंगामा मचाना शुरू कर दिया। पिताजी द्वारा एक टुकड़ा खा लेने पर बच्चे के हंगामे को देखकर हतप्रभ सा हो गया मैं!

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गणेश चतुर्थी को एक परिवार हमारे घर आया था। मां, पिता और एक लड़की! उन्होंने गणेशजी को प्रणाम किया। मेरे भतीजे ने भगवान के सामने रखे चरणामृत पात्र को उठाया। माता-पिता ने तीर्थ ग्रहण किया। बच्ची ने तीर्थ के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाया। माता-पिता उसे ‘तीर्थ लो, तीर्थ लो’ कहते रहे किन्तु लड़की तैयार नहीं हुई। लड़की इतनी छोटी न थी। होगी तेरह-चौदह वर्ष की! आखिर उसने तीर्थ नहीं लिया। मां-बाप की दुविधापूर्ण स्थिति को देखकर मैंने ही उनसे कहा, “जाने भी दो, ज्यादा सख्ती मत करो।”

जब व्यक्ति यह समझने लगे कि ये सब मेरे लिए हो रहा है, ऐसी भावना से वह आत्मकेंद्रित बन जाता है, तब अपना हित, अहित, अपना सुख-दुख, अपनी भाव भावनाएं ही प्रधान बन जाती हैं। अपने मन के विरुद्ध की गई एक छोटी सी भी क्रिया सहन नहीं होती। प्रत्येक समय, प्रत्येक बात अपनी इच्छानुसार ही होनी चाहिए, ऐसी जिद, दुराग्रह शुरू होता है।

कुछ समय पूर्व दूरदर्शन पर “आज, अत्ता, ताबड़तोड़” (आज, अभी, तुरंत) ऐसा एक धारावाहिक दिखाया जाता था। वह दूरदर्शन पर तो बंद हो गया, परंतु अब हर घर में शुरू हो गया है। कोई भी वस्तु आज, अभी, तुरंत प्राप्त हो, ऐसी इच्छा होती है। हम इतने विशाल विश्व के एक छोटे से कण मात्र हैं। मेरा परिवार, रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसी, समाज ये सब केवल मेरे सुख के लिए, सेवा के लिए, मेरी ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं हैं। ऐसी भावना बचपन से ही बच्चों में रोपी जानी चाहिए। अपने से भी अधिक दुःखी, अभावग्रस्त लोग हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। पालकों को भी बच्चों के ध्यान में लाना चाहिए।

अनेक लोगों ने अपयश, नकार के झटके सहन करके हिम्मत करते हुए पुनः ‘हरिओम’ कहकर जीवन की शुरुआत करने के प्रयास किए हैं। ऐसे लोगों के उदाहरण शाला में और घर में बच्चों को अवगत कराना चाहिए। श्री अरुण शेवते द्वारा संपादित और ‘तुरंग’ द्वारा प्रकाशित तीन पुस्तकें निराश मन को निश्चित ही सांत्वना प्रदान करेंगी- ‘नापास मुलांची गोष्ट’ (अनुत्तीर्ण बालकों की बात), ‘नापास मुलांचे प्रगति पुस्तक’ (अनुत्तीर्ण बालकों का रिपोर्ट कार्ड) और “हाती ज्यांच्या शून्य होते” (जिनके हाथ में शून्य आया) इन तीन पुस्तकों में (मराठी भाषा में) जीवन के विविध क्षेत्रों में चमचमाते सितारों के समान चमकता व्यक्तित्व बनकर प्रख्यात होने वाले लोग मिलेंगे। ये सभी लोग अपने शालेय जीवन में कभी न कभी अनुत्तीर्ण हुए थे। उन्होंने जब जीवन की शुरुआत की, तब उनके हाथ में क्या था? केवल ‘शून्य’! परन्तु ये लोग अथक परिश्रमपूर्वक, निराश न होते हुए, अखंड, अविरत, अपने ध्येय को साथ रखकर चलते रहे।

“Success is never ending, failure is never final” नामक एक पुस्तक है। यश के लिए कोई अंत नहीं, इसी प्रकार अपयश भी अंत नहीं है। अपयश भी एक सीढ़ी है, यह समझते हुए जो पुनः प्रयास करता है, उसी के गले में ‘यशमाला’ पहनाई जाती है।

शालेय परीक्षा में अपार यश प्राप्त किए हुए सभी लोग जीवन की परीक्षा में सदैव उत्तीर्ण होंगे ही, यह भी आवश्यक नहीं! धंधा, उद्योग, व्यवसाय आदि में जबरदस्त नुकसान झेलने वाले सभी लोग पूर्णतया हताश हो जाते हैं ऐसा भी नहीं!

कुसुमाग्रज की ‘कणा’ नामक कविता पाठ्यपुस्तकों में केवल अंकों के लिए नहीं रखी गई है। उस कविता के संदर्भ में प्रश्नों के उत्तर लिखकर पूर्ण अंक प्राप्त करने पर भी स्वयं को ‘कणा’ है, इस बात का एहसास न हुआ हो तो वह कविता पढ़ना और पढ़ाना दोनों ही अनुपयोगी ही हैं। छोटे-मोटे अपयश, पराभव झेलकर पूर्ण जीवन ही उद्धवस्त कर दें इतना अपना मन कमजोर रखें क्या? प्रत्येक के जीवन में सुख-दुख के, यश-अपयश के प्रसंग आएंगे ही!

अमावस के अंधेरे में काले स्याह बादलों में भी कहीं रुपहली किरण दिखाई पड़ती है। आज का कठिन दिन भी गुजर जाएगा। कल का दिन आज के दिन समान ही कठिन होगा, कोई आवश्यक नहीं। ऐसी सकारात्मक दृष्टि बचपन से ही रोपित करना जरूरी है। एक खिलौना-गुड़िया है, उसे एक घूंसा मारने पर वह लुढ़क जाती है और तुरंत पलभर में वापिस खड़ी हो जाती है। खेल के द्वारा भी विचार, दृष्टि, सीख मिलती है। ऐसे घूंसे, आघात हमें भी झेलने पड़ते हैं। घूंसा लगते ही कुछ क्षण तो हम विचलित हो जाते हैं, संतुलन खो देते हैं परन्तु पराभव कब माना जाए? पराभूत किसको मानें? घूंसा खाकर असंतुलित होकर पुनः संतुलित हो जाना पराभूत होना नहीं है। घूंसा खाकर गिरने पर पुनः उठकर खड़े होने की हिम्मत न होने से वैसे ही आड़े पड़े रहना पराभूत होना कहलाता है। “कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती!”

अभी-अभी कर्नाटक की शालिनी नामक बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली सत्रह वर्ष आयु की लड़की की अति प्रेरणादायी कहानी समाचार पत्र में प्रकाशित हुई। शालिनी ने बारहवीं विज्ञान शाखा में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। इससे अधिक अंक प्राप्त करने वाले भी अनेक विद्यार्थी हो सकते हैं परन्तु उनके और शालिनी के यशप्राप्ति में बहुत अंतर है। शालिनी एक गरीब परिवार की लड़की! पिता मजदूरी करने वाले, परंतु वे एक इमारत से नीचे गिरने के कारण चल-फिर नहीं सकते। मां दूसरों के घर साफ-सफाई, झाड़ू-बर्तन का काम करती है। कर्क रोग से पीड़ित छोटा भाई अस्पताल में बीमारी से जूझ रहा है।

शालिनी की दिनचर्या प्रातः 4-4.30 बजे से आरंभ हो जाती है। अपने घर का कामकाज निपटाकर वह बाहर निकलती है। पांच घरों का पानी भरना, साफ-सफाई करना, रंगोली सजाना आदि कार्य करती है। एक ऑफिस में कार्य करती है। परीक्षा के दिनों में ही उसे काफी समय तक भाई के साथ अस्पताल में रहना पड़ता था। इतना सब करने के पश्चात शाला भी जाना। उसके यश में अथक मेहनत, कष्ट, पढ़ाई के प्रति लगन आदि की झालर लगी हुई है। अपने पास क्या नहीं है, इसकी परवाह न करते हुए सामने आने वाली बाधाओं से धैर्य के साथ लड़कर उसने यह सफलता प्राप्त की है। निराशा से आहें न भरते हुए, उदास न होते हुए उसने सफलता का शिखर हासिल किया है। जीवन तो ऐसे ही चलता है, गुजर जाता है। उसमें कभी यश, तो कभी अपयश, कभी सुख की, कभी दुख की घटनाएं घटित होती रहती हैं।

जीवन है एक सुख-दुख का मजेदार झूला

उदास होना धर्म न मेरा, जीना ये है श्रेष्ठ कला!

जीवन जीने की यह कला परीक्षा के यश की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है। यह शाला से, कॉलेज से, घर से ध्यान में लाना आवश्यक है। यह शिक्षा आवश्यक है, महत्वपूर्ण है। ईश्वर से एक ही प्रार्थना करें…

निशा हो कितनी भी अंधेरी, अंबर हो काला, दीप दे!

दुख दर्द कितने भी दे जीवन में, ईश्वर, धैर्य दे!

(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष है।)

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