-दिलीप वसंत बेतकेकर
दो अभिभावक आपस में मिलें! दोनों की समस्या एक सी ही थी। बच्चे जिद्दी हैं! उनका जिद्दी स्वभाव कैसे नियंत्रित करें, यही उनकी चिंता!
“हम उन्हें जो चाहिए उपलब्ध कराते हैं। फिर भी पढाई के नाम से…..” दोनों में से एक पालक कह रहे थे।
“अब देखिये न, मेरी लड़की रिस्टवाच के लिए जिद करने लगी इसलिए एक हज़ार रूपये की नई रिस्टवाच उसे खरीदकर दी, किन्तु चार दिन में उसने घडी खो दी, अब क्या करें?”
मेरा अनुमान था कि लड़की दसवीं या ग्यारवीं में पढ़तीं होगी। मैंने पूछ ही लिया – “कौन सी कक्षा में पढ़तीं है लड़की?”
‘सातवी कक्षा में’, पालक बोले।
अब सातवीं कक्षा में पढने वाली लड़की को इतनी अधिक कीमत की घडी खरीदकर देना आवश्यक है क्या? ये विचार पालक को करना चाहिए न! और यदि वास्तव में वह आवश्यक है भी तो क्या उसे दु:खी देखकर हमें अच्छा न लगने से कम कीमत वाली इलेक्ट्रॉनिक घड़ी भी तो खरीदकर दी जा सकती है।
किन्तु अत्यधिक अंध प्रेम के कारण बच्चों द्वारा मांगी गई प्रत्येक वस्तु उन्हें उपलब्ध कराने वाले पालक अनजाने ही स्वयं का और साथ ही बच्चों का अहित करते हैं। वास्तव में आवश्यकता किस वस्तु की है इस बात का अनुमान पालक लगाने के लिए प्रयासरत रहें तो पैसों के अपव्यय से बचा जा सकता है। बच्चे भी बिगड़ने से बचेंगे और घर का माहौल भी स्वस्थ रहेगा।
इस हेतु बच्चों से बातचीत, चर्चा करना आवश्यक होगा। केवल संवाद ही नहीं, सुसंवाद!
बच्चों के साथ क्या चर्चा करें, ये सवाल किसी के मन में उभर सकता है। बच्चों के साथ यदि संयम से, शांति से बात करें, कोई बात शांति से उन्हें समझा दी जाए तो अनेक बार वे मान जाते हैं। यदि हम ये पद्धति दस बार अपनाएं तो दसवीं बार तो वे अवश्य बात मान लेंगे। ये बात उनके गले उतरेगी अथवा नहीं ये कहना कठिन है, किन्तु वे मान जायेंगे तो कुछ हद तक तो अपना मानसिक तनाव कम होगा ही!
……. अभी-अभी परसों की ही घटना! हमारे सुपुत्र किसी मित्र के घर गये थे। वहां उसने एक गुड्डा (खिलौना) देखा। अब उसी प्रकार का गुड्डा लेने हेतु वह जिद करने लगा। वह खिलौना ‘कॉम्प्लान’ के डिब्बे के साथ ‘भेंट’ के रूप में था। अब हमारे पुत्र ‘कॉम्प्लान’ लेने की जिद करने लगे। एक तारीख को लेंगे कहकर उसे सांत्वना दी। किन्तु पहली तारीख आते ही, याद से उसने उस वस्तु की मांग दोहराई। अब विचार करना आवश्यक हो गया। बाज़ार जाकर पूछताछ करने पर पता चला कि एक किलो वाला डब्बा क्रय करने पर ही वह गुड्डा साथ में मिलेगा। खरीद भी सकते थे, किन्तु वह अनुपयोगी ही रहता। घर पर इसके पूर्व क्रय किये ‘कॉम्प्लान’, ‘बोर्नविहटा’ आदि के डिब्बे भी अनुपयुक्त होकर पड़े थे। कारण बच्चों को वे पेय पसंद नहीं थे। केवल गुड्डा मिलेगा इस दृष्टि से ही बच्चे को डिब्बा खरीदना था।
‘मैं नहीं खरीदूंगा’ ऐसा कहकर उसे मैं डांटता तो वह रोता, चिल्लाता, गुस्सा हो जाता, जिद करता! “पिता मेरी पसंद की वस्तु कभी देते नहीं’’ ऐसी भावना उसमें निर्मित होती। अनचाहे ही घर का माहौल, इन घटनओं से दूषित हो जाता।
बच्चों से चर्चा करके निर्णय लेना ये है मेरी पद्धति! इससे ‘पिताजी सदैव एक तरफ़ा निर्णय लेते हैं’ ऐसी धारणा बच्चों में नहीं पनपती! निर्णय में दोनों ही सहभागी रहने से निर्णय का पालन करने की जिम्मेदारी भी बच्चे समझते हैं।
मैंने पूछा, “तुम्हे ‘कॉम्प्लान’ चाहिए अथवा ‘गुड्डा’? ‘कॉम्प्लान’ न लेते हुए केवल ‘गुड्डा’ लेना पसंद करोगे?’’
थोड़ी सी चर्चा पश्चात् वह केवल ‘गुड्डा’ लेने को राज़ी हुआ -‘कॉम्प्लान’ तो उसे नापसंद था ही। हम बत्तीस रूपये में गुड्डा खरीदकर घर लौटे! घटना छोटी सी, छुटपुट सी! किन्तु आपस में थोड़ी चर्चा की और अमेय ने भी अपनी जिद छोड़ दी।
बच्चे जिद्दी हैं कहने वाले पालकगण भी कभी-कभी जिद्दी बन जाते हैं, इस बात का विचार पालकगण शायद ही करते होंगे! केवल बात टालने के हेतु से बच्चों को झूठा वायदा कर समझना उचित नहीं है। जब किसी कार्य को हम करेंगे, ऐसा पालक कहें तब वह कार्य को हम करेंगे, ऐसा पालक कहें तब वह कार्य अवश्य करना चाहिए अन्यथा बच्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कोई बात यदि हमारे बस की नहीं है ऐसा हमें विश्वास है तो उस बात को करने का झूठा आश्वासन बच्चों को देना आवश्यक है।
उनकी मनचाही वस्तु वह उन्हें आवश्यक न हो पालक सदैव उपलब्ध कराते हैं ऐसी धरना बच्चों में बनने पर जिद्दी बनने की संभावना अधिक रहती है। अनेक पालकगण बच्चों को बेवजह लाड-प्यार देकर उन्हें बिगाडते हैं। भावी जीवन में उनकी अपेक्षानुसार कार्य बना तो वे हताशा का शिकार हो जाते हैं। इससे छोटे-मोटे अपराध उनके द्वारा घटित हो जाते हैं और कभी-कभी वे आत्महत्या करने को उद्यत हो जाते हैं।
जीवन में ‘नकार’ सहने की मानसिकता भी होनी चाहिए। सदैव अपने मनचाहेनुसार कार्य होगा नहीं। वस्तुस्थिति को स्वीकारना होगा। पचास वर्ष पूर्व शिक्षाविद् ताराबाई मोडक द्वारा बच्चों की जिद के सम्बन्ध में उनके विचार एक पुस्तक में व्यक्त किये गए थे। उनके अनुसार बच्चों द्वारा जिद करना एक मानसिक विकार है। जिस प्रकार बच्चे को बुखार आने पर हम नाराज न होकर बुखार का कारण खोजते हैं। उसी प्रकार जिद करने का कारण खोजकर उचित निराकरण करें।
किन्तु यह भी जान लें कि वह केवल जिद का आभास है अथवा वास्तव में जिद हैं। अनेक बार बालक जिद करते हुए दिखाता है किन्तु वह जिद वास्तविक न होकर किसी कारणवश ऐसा करता हैं।
कुछ कारण न होते हुए वरिष्ठजन जो कहें उसे अनावश्यक रूप से विरोध करना, अर्थात् जिद। अर्थात् आग्रह, इच्छाशक्ति का प्रबल व्यापार! वास्तविक जिद में इच्छाशक्ति का उपयोग होता है। किन्तु वह उपयोगी नहीं अपितु अनुपयोगी-दुरुपयोगी होती है। शक्ति का अपव्यय होता है। इस कारण व्यक्तितव का विकास न होकर उसके विपरीत क्षीणता उत्पन्न होती है।
तारा बाई द्वारा जिद पर सुझाव दिये हैं-
बच्चे जब जिद पर उत्तारू हो जाते हैं तब पालकगण को शांति अपनानी चाहिए। शांति अपनाने का मतलब केवल मुंह बंद रखना नहीं अपितु मन को शांत रखना है । चेहरे पर भी गुस्से का भाव न रखते हुए चेहरा शांत दिखे। स्वयं को दृढ़ रखें। अनेक बार बच्चों की जिद के लिए पालकगण जिम्मेदार होते हैं।
बच्चे जिद करने लगे तो पालक उन पर गुस्सा होते हैं, चिल्लाते हैं, डांटते है और कभी-कभी मारते भी हैं।
इसके विपरीत कुछ पालकगण बच्चों की जिद शुरू होने पर उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं। अनावश्यक लालच, आश्वासन देते हैं, इस प्रयोग से भी बच्चे जिद पकड़ते हैं। ये दोनों ही विपरीत छोर होते हैं। इन्हें टालना आवश्यक हैं।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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