– वासुदेव प्रजापति
हम भारतवासी हैं। भारत हमारा देश है। क्या हमने कभी विचार किया कि हमारे देश का नाम भारत ही क्यों है? इस ‘भारत’ नाम का शाब्दिक अर्थ क्या है? भारत शब्द का अर्थ है, ‘भा’ में रत रहने वाला, भारत। और भा का अर्थ है, प्रकाश। भा का अर्थ है, ज्ञान । जिस प्रकार प्रकाश के आते ही अन्धकार स्वतः मिट जाता है, उसी प्रकार ज्ञान के आते ही अज्ञान स्वतः हट जाता है। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने हमें सीख दी-‘तमसो मा ज्योतिर्गमयः’। अन्धकार से ज्योति की ओर बढ़ो, अर्थात् अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ो । यदि हम अज्ञान में ही डूबे रहे तो जीवन निरर्थक हो जायेगा और हमने ज्ञान प्राप्त कर लिया तो जीवन सार्थक हो जायेगा। आओ! हम ज्ञान यात्रा प्रारम्भ करें-
ज्ञान के साथ अज्ञान भी है
परमात्मा ने जब सृष्टि बनाई तब इस सृष्टि के साथ-साथ स्थूल ‘पदार्थ जगत्’ भी बनाया और सूक्ष्म ‘भाव जगत्’ भी बनाया। जैसे प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते है, ठीक वैसे ही प्रत्येक भाव के भी दो पहलू होते हैं। इस जीवन में सुख है तो दुःख भी है, मान है तो अपमान भी है, हर्ष है तो शोक भी है। इसी भाँति सत् है तो असत् भी है, ज्ञान है तो अज्ञान भी है। सिक्के के दोनों पहलुओं के समान ये दोनों भी सदैव साथ-साथ चलते हैं।
अज्ञान क्या है?
ज्ञान को हम पहले ही जान चुके हैं। ब्रह्म को, परमात्मा को जानना ही ज्ञान है। परमात्मा नित्य है, परमात्मा सत् है, परमात्मा अविनाशी है अर्थात् अनंत है। जिसका कभी अंत नहीं होता। वह सदैव विद्यमान रहता है। यह सब जानना ज्ञान है ।
और अज्ञान क्या है? ज्ञान का विपरीत सब अज्ञान है। जो ‘है’ उसे नहीं मानना अज्ञान है, और जो नहीं है, उसे ‘है’ मानना भी अज्ञान है। उदाहरण के लिए परमात्मा नित्य है, किन्तु वह हमें दिखाई नहीं देता। वह इन्द्रियों, मन व बुद्धि से जाना भी नहीं जाता, इसलिए हम उसे नहीं मानते। तुमने परमात्मा को देखा है? नहीं, फिर क्यों परमात्मा-परमात्मा की रट लगा रखी है? कोई परमात्मा-वरमात्मा नहीं होता। जो परमात्मा नित्य है, सर्वत्र है उसे नहीं मानना अज्ञान है।
दूसरी ओर यह शरीर है। शरीर नित्य व अनंत नहीं है। जन्म से पहले यह शरीर नहीं था और मृत्यु के बाद भी शरीर नहीं रहेगा। यह दिन प्रतिदिन बदल रहा है। शिशु शरीर बाल-किशोर हो गया है, तरुण-प्रौढ़ भी हो गया है, कल को यह वृद्ध होगा, अशक्त होगा, रोगी होगा और एक दिन नहीं रहेगा। फिर भी हम इस नहीं रहने वाले शरीर को ‘है’ मानते हैं, अपना मानते हैं और रात-दिन इसी की सेवा-सुरक्षा में लगे रहते हैं । जो नश्वर है उसे ‘है’ मानना, यही अज्ञान है।
अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं
यहाँ यह प्रश्न खड़ा होता है कि हम ‘है’ को ‘नहीं’ तथा ‘नहीं’ को ‘है’ क्यों मानते हैं? हमारी मान्यता हैं कि वह अव्यक्त ब्रह्म सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। यह सृष्टि पुरुष व प्रकृति के मेल से बनी है। पुरुष व प्रकृति उस ब्रह्म के ही दो रूप हैं। जिसमें पुरुष चेतन तत्त्व है, और प्रकृति जड़ है। इस जड़ प्रकृति को आद्य शंकराचार्य ने ‘माया’ कहा है। यह माया क्या करती है? वह माया भ्रमजाल बुनती है। जो सत्य नहीं है, उसे सत्य बताना, जो नित्य नहीं है उसे नित्य बताना, यह माया का काम है। इस माया के कारण व्यक्ति इसके मोहजाल में फँसकर भ्रमित होकर असत्य को सत्य मानने लगता है। यह संसार माया जनित है, माया से आच्छादित है। माया ने इस संसार को ढक रखा है। माया अज्ञान है, इस माया रूपी अज्ञान ने ही ज्ञान को ढक रखा है। इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। 5.15 ।।
अर्थात् यह परमात्मा न तो किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न ही शुभ कर्म को। क्यों? क्योंकि अज्ञान ने ज्ञान को ढक रखा है। इसलिए सभी जीव इस माया रूपी अज्ञान से मोहित हो रहे हैं, और इसे ही ज्ञान समझ रहे हैं।
अज्ञान रूपी आवरण को हटाने से ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान के प्रकट होने से अज्ञान स्वतः हट जाता है। विद्या भारती के मा. लज्जाराम जी कहते थे कि ज्ञान तो सबके भीतर विद्यमान है ही किन्तु जो इस अज्ञानरूपी आवरण को जितना हटा पाता है, वह उतना ही ज्ञानी बन जाता है। जो इस आवरण को कम हटा पाता है वह कम ज्ञानी, जो अधिक हटा लेता है, वह अधिक ज्ञानी हो जाता है। जो बिल्कुल नहीं हटा पाता, वह मूर्ख रह जाता है और जो पूरा हटा लेता है, वह सर्वज्ञ बन जाता है। अज्ञानी से ज्ञानी बनने का यही मार्ग है। आपने अज्ञानी से ज्ञानी कालिदास की कथा पढ़ी या सुनी होगी। इसे ‘अज्ञानेन आवृतं ज्ञानम्’ के सन्दर्भ में पुन: पढ़ें।
एक थे कालिदास। उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था, अर्थात् बिल्कुल अज्ञानी थे। कुछ पंडितों ने उन्हें मोहरा बनाया। वे एक विद्योत्तमा नाम की विदुषी राजकुमारी से किसी विवाद का बदला लेना चाहते थे। उन्होंने बड़ी चालाकी से उस विदुषी के साथ कालिदास का शास्त्रार्थ निश्चित करवा दिया। शास्त्रार्थ की शर्त थी कि विद्योत्तमा हारी तो उसे कालिदास के साथ विवाह करना होगा। कालिदास को समझा दिया कि तुम्हें मौन ही रहना है, मात्र संकेतों में उत्तर देना है।
शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। विदुषी के विद्वतापूर्ण प्रश्नों के उत्तर में कालिदास ऊटपटांग संकेत करता और पंडित उन संकेतों की अपने अनुसार व्याख्या करते थे। प्रथम प्रश्न के रूप में विद्योत्तमा ने यह बताने के लिए एक उंगली दिखाई कि ब्रह्म एक है। कालिदास ने सोचा कि यह मेरी एक आँख फोड़ना चाहती है तो मैं इसकी दोनों आँखें फोड़ दूँगा। संकेत रूप में उसने दो उंगलियाँ दिखाई। पंडितों ने कहा कि ये कह रहे हैं कि ब्रह्म एक है, परन्तु उसके साथ दूसरा यह जगत भी है, बिना जगत के ब्रह्म सिद्ध नहीं हो सकता।
विद्योत्तमा ने अगले प्रश्न में ‘तत्त्व पाँच हैं’ बताने के लिए खुला हाथ दिखाया। कालिदास को लगा कि यह मुझे थप्पड़ मारने को कह रही है। उसने थप्पड़ के बदले में मुक्का मारने के संकेत रूप में बन्द मुट्ठी दिखाई। पंडितो ने उसकी व्याख्या की कि ये कह रहे हैं कि पाँचों तत्व अलग-अलग रहकर कुछ विशेष नहीं कर सकते। जब ये मिलकर एक होते हैं, तब सृष्टि का निर्माण कर पाते हैं। अन्ततोगत्वा विद्योत्तमा ने हार मान ली और शर्त के अनुसार उसे कालिदास के साथ विवाह करना पड़ा। किन्तु साथ रहने से कालिदास की पोल खुल गई। विद्योत्तमा ने अज्ञानी कालिदास को धिक्कारा और यह कहकर घर से निकाल दिया है कि सच्चे ज्ञानी बने बिना वापस घर मत आना। विद्योत्तमा के ये बोल कालिदास के हृदय पर चोट की तरह लगे।
कालिदास घर से चले गये। माँ काली की आराधना की और साथ में ज्ञान की साधना की। माँ की कृपा और साधना के फलस्वरूप वे अज्ञान के आवरण को हटाकर ज्ञानी बन गये। जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा खटखटाकर कहा, ‘कपाटम् उद्धाटय सुन्दरि!’ विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा, ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः’ (लगता है कोई विद्वान है)। कालिदास ने इन तीनों शब्दों से प्रारंभ कर संस्कृत के तीन महाकाव्य लिखे और संस्कृत के कवि कुलगुरु कहलाये। उन्होंने ‘कुमार संभवंम्’ को प्रारंभ किया पहले ‘अस्ति’ शब्द से (अस्त्युस्याम् दिशि……..), ‘मेघदूत’ को प्रारम्भ किया दूसरे ‘कश्चिद’ शब्द से (कश्चित्कांता……) और ‘रघुवंशम्’ को प्रारम्भ किया तीसरे ‘वाग्विशेषः’ (वागार्थविव………) शब्द से। यह है अज्ञानी से ज्ञानी बनने की अनुपम कथा। अज्ञान दूर होने से ज्ञान स्वतः प्रकट होता है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)