-तुलसीनारायण, जयपुर
प्रारंभिक जीवन : संत रविदास का जन्म वाराणसी में चर्मकार परिवार में हुआ। माघ पूर्णिमा विक्रमी संवत् 1433 सन् 1376 को। इनकी लौकिक शिक्षा नहीं हुई पर इनका रुझान बाल्यकाल से ही से ही ईश्वर भक्ति की ओर था। उस काल में लोग पेशेगत व्यापार ही करते थे। अतः उन्होंने भी चर्मकार का कार्य शुरू किया। इनकी पत्नी का नाम लोना था। इनके व्यवसाय में ठीक से मन ना लगने के कारण पिता ने मकान के पीछे एक झोपड़ी दी, वे उसमें रहकर भगवत भक्ति व कुछ चर्मकारी व्यवसाय करने लगे। ये संतों को मुफ्त में ही जूते बना कर देते थे। उनके पेशे पर कभी इनको शर्म नहीं आई। उन्होंने संत रामानंद जी को कहा कि मैं तो चर्मकार हूँ, आप मुझे अपना शिष्य बना ले तो… रामानंद ने कहा कि हमारे यहां कोई छोटा बड़ा नहीं होता। उन्होंने शिष्य बनाकर कहा भक्ति करो, भजन लिखो व व्यवसाय भी करते रहो।
तत्कालिक सामाजिक स्थिति : उस समय मुगलों का भय, आतंक, अपमान, मंदिर विध्वंस जैसा बर्बर माहौल था, दूसरी ओर हिंदू समाज में जातिभेद, कर्मकांड, कुरीतियों का बोलबाला था। हालांकि भारत में प्रारंभ में ऐसा नहीं था बाद में आया पर निरंतर बाहरी हमलों से सब लोग समाज-धर्म की रक्षा में लग गये। तो विकास का प्रवाह रुक गया। उस समय का चित्रण रैदास के शब्दों में –
मेरी जाति नीची पाती नीति ओछा जन्म हमारा।
हम शरणागत राजा रामचंद्र के, कहि रविदास चमारा।।
उन्होंने भगवान के सामने विनम्रता से अपनी स्थिति को स्वीकार कर प्रभु के हवाले किया। उस काल में संतों ने भक्ति मार्ग से देश-धर्म का प्रयास निरंतर किया।
ईश्वर भक्ति : उस काल में पलायन न करके, समाज की निंदा न करके सबको सन्देश दिया कि भगवत भक्ति करो, वहां कोई भेद नहीं। समाज को निराशा से उबारा व सद्मार्ग मार्ग दिखाया। वो कहते हैं जब सबमें प्रभु है तो जाति भेद कैसा –
जाति एक जाने एक ही चिन्हा, देह अवमन कोई नही भिन्न।
कर्म प्रधान ऋषि-मुनि गांवें, यथा कर्मफल तैसहि पावें।
जीव कै जाती वरन कुल नांहि, जाती भेद है जग मूरखाई।
नीति-समृति-शास्त्र सब गावें, जाती भेद शउ मूढ़ बतावें।
वे कहते थे की मंदिर में विराजित मूर्ति नहीं बल्कि घट-घट वासी की भक्ति करो।
संतन के मन होत है सब कै हित की बात
घट-घट देखें अलख को, पूछे जाति न पांति
रविदास जन्म के करनै ,होत न कोऊ नीच
नर को नीच कर डाटि है, ओछे कर्म की कीन
जन्म से नहीं बल्कि कर्म से व्यक्ति ऊँची जाति का होता है ।
ब्राह्मण छतरी बैस सूद्र, रविदास जनम है नाहिं।
जो चाहई सुबरन कऊ, पावह करमन नाहिं।।
इनकी सर भक्ति का रूप, लोक जागरण का कार्य देखकर हजारों लोग शिष्य शीशे बने। वह सभी जातियों के थे।
काशी नरेश, झाली रानी, मीराबाई शिष्य बने : संत रैदास का भक्ति भाव देखकर काशी नरेश इनके शिष्य बने। इनकी प्रसिद्धि का ही परिणाम था कि चित्तौड़ की झाला रानी शिष्या हो गई। एक बार चित्तौड़ के महाराणा ने इनको निमंत्रण दिया। संत रैदास चित्तौड़ पधारें, महाराणा ने खूब सम्मान किया। भोजन के समय ब्राह्मणों ने विरोध किया पर भोजन के समय सबको अहसास हुआ कि सबके बगल में रैदास बैठे हैं तो इससे सब लोग रैदास की भक्ति को मान गये।
मीराबाई भी इनकी शिष्या बनी इससे दो बातें ध्यान आतीं हैं। एक, मीराबाई मूर्तिपूजक थी यानी साकार व निराकार भक्ति का मेल हुआ। दूसरी, जातिगत भेद मानने वालों के सामने एक अनुकरणीय उदहारण।
भक्त रैदास का समान : स्वयं रैदास ने कहा कि उनके परिवार के लोग वाराणसी के आसपास मरे होए जानवर धोने का कार्य करते हैं पर मैं तो प्रभु का दास बना रहा इस कारण विप्र, आचार्य, सब दंडवत प्रणाम, सम्मान करते हैं।
उन्हें सारे देश में सम्मान मिला उनके 40 पदों को गुरु ग्रंथ साहिब में स्थान मिला।
आज बड़ी संख्या में लोग है जो अपने आपको रैदासी कहकर गौरव अनुभव करते हैं।
रैदास को मुसलमान बनाने का प्रयास : संत रैदास को मुसलमान बनाने पर इनके लाखों भक्त भी मुसलमान बन जाएंगे इस लालच से कई मुसलमान आये परन्तु सफल नहीं हुए। ‘सदना पीर’ आया तो मुस्लिम बनाने, पर इनकी अध्यात्मिक साधना से प्रभावित होकर स्वयं ‘रामदास’ नाम से शिष्य हो गया।
संत रैदास में दोनों बातें थीं। 1. जातिगत भेद, विषमता, कर्मकांड, ढोंग, कुरीतियों का विरोध। 2. वैदिक धर्म के दार्शनिक पक्ष में अपनी पूरी आस्था बनाए रखना।
सिकंदर लोदी ने प्रयास किया, लालच दिया मुस्लिम बनाने का। तो रैदास का सीधा सपाट उत्तर उनकी समझ दृष्टि को स्पष्ट स्पर्श करता है –
वेद वाक्य उत्तम धरम, निर्मल वाका ज्ञान।
यह सच्चा मत छोड़कर, मैं क्यों पढूँ कुरान।
श्रुति-सास्त्र-समृति गई, प्राण जाय पर धर्म न जाई।
कुशन बिहश्त न चाहिए, मुझकों हूर हजार।
वेद धर्म त्यागू नहीं, जो गल चलै कटार।
वेद धर्म है पूरण धर्मा, करी कल्याण मिटावै भरमा।
सत्य सनातन वेद हैं, ज्ञान धर्म मर्याद।
जो न जाने वेद को, वृथा करें बकवाद।
सिकंदर लोदी ने धमकी दी तो निर्भीकता से उत्तर दिया –
मैं नहीं दब्बू बाल गंवारा, गंग त्याग गहें लाल किनारा।
प्राण तजू पर धरम न देऊँ, तुझसे शाह सत्य कह देऊँ।
चोटी-शिखा कवहूँ नहीं त्यागूँ, वस्त्र समेत देह भाल त्यागूँ।
कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, चाहे डुबाओ सिन्धु मंझारा।
भक्ति की पराकाष्ठा : वो कहते हैं कि प्रभु आपकी सार्थकता के लिए हम आवश्यक है वो अधिकार पूर्वक किस प्रकार प्रभु से जुड़े हैं।
अब केसे छुटे राम रट लागी।
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।
प्रभु जी तुम धन वन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।
प्रभु जी तुम दिया हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राति।।
प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं लिलत सुहागा।।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा
जीवनोपयोगी बातें : कम शब्दों में गहरी बातें।
रैन गँवाई सोये करि, दिवस गवायो खाय
हीरा जन अमोल है, कौड़ी बदले जाय
अंतर गति राचै नहिं, बाहर करै उजास
ते नर जमपुर जायेंगे, सत भाषै रैदास
अपने देश में संतों की वाणी, अभिव्यक्ति, गुरुझान, देशाटन, वातावरण, अंत: प्रेणा से अभिभूत है । उनका विचार, दृष्टि उनकी वाणी से ही व्यक्त होती है । उन्होंने कहा कि ह्रदय पवित्र नहीं, प्रभु भक्ति न हो तो तीर्थ यात्रा, कर्मकांड सब व्यर्थ हैं।
आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व उस मुग़ल आक्रान्ताओं के काल में समाज व धर्म की रक्षार्थ अडिंग रहकर, निर्भीकता से सामना करते हुये भक्ति मार्ग द्वारा समाज जागरण किया व भक्ति मार्ग के दीप स्तम्भ बने। ‘मन चंगा तो कठोती में गंगा’ ये घटना भी इन्हीं से सम्बंधित है।
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