भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 79 (पाश्चात्य शिक्षा की देन: हीनता बोध)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

हम भारतवासी स्वयं को आर्य कहते थे और मानते थे। आर्य अर्थात संस्कारित, आर्य अर्थात श्रेष्ठ। वह व्यक्ति जो भौतिक स्तर से ऊपर उठकर सांस्कृतिक जीवन जीता है, उसे आर्य कहा जाता है। हम जैसे हैं, वैसा सबको बनाना चाहते हैं। हम आर्य हैं इसलिए हमारा सदा से यही उद्घोष रहा – “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” अर्थात हम सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनायें।

परन्तु अंग्रेजी काल में हमारी आर्य भावना को ग्रहण लग गया। अंग्रेजों ने अत्याचार, लूट व अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से हमें पाश्चात्य संस्कृति का अनुगामी बना दिया। फलतः हम भारतवासी आर्यजन हीनता बोध से ग्रस्त हो गए। यह सब उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से किया। अंग्रेजी अत्याचारों का तो हम प्रतिकार कर लेते, परन्तु उन्होंने शिक्षा के माध्यम से हमारा मानस ही बदल दिया। यह बदला हुआ मानस आज भी हमें पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी से मुक्त होने नहीं देता।

हमारी मानसिकता पर आघात

अंग्रेज बड़े चतुर थे। वे यह समझ गए थे कि जब तक इनके मन-मस्तिष्क में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता बनी रहेगी, तब तक ये हमारी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए अंग्रेजों ने अपनी अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से यह बात भारतीयों के गले उतारने में सफलता प्राप्त की कि अंग्रेजों का सब कुछ श्रेष्ठ है और भारत का सब कुछ निकृष्ट है। धीरे-धीरे इस बात को सही मानकर अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों ने अंग्रेजों जैसा श्रेष्ठ बनने के लिए उनकी अंधी नकल करना शुरु कर दिया। अर्थात सच में अंग्रेजों को अपने से श्रेष्ठ मान लिया। वे श्रेष्ठ हैं इसलिए हम पर शासन कर रहे हैं। यह भाव मन में आने से हम अंग्रेजों की तुलना में अपने आपको हीन मानने लग गए। यह हीनता बोध अब तो हमारे मनों में इतना गहरा बैठ गया है कि हम उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं। इस प्रकार अंग्रेजों ने हमारी मानसिकता पर बहुत भारी आघात कर हमें अपनी जड़ों से काटने का कार्य किया है।

हीनता बोध एक भीषण रोग

हीनता बोध रूपी इस भीषण रोग को हम पहचान ही नहीं पाए। यदि पहचान भी लेते तो इसे भीषण रोग मानने से मना कर देते। जब रोग शरीर में सर्वत्र व्याप्त हो जाता है, तब रोगी ऐसा ही करता है। ऐसे रोगी को कोई याद भी दिलाए कि तुम रोगी हो, तो वह क्रोधित हो जाता है। ठीक वैसे ही कोई हमें हीनता बोध की बात बतलाता है तो हम उससे केवल सहमत नहीं होते, अपितु यह सिद्ध करने लगते हैं कि हम हीनता बोध से ग्रस्त नहीं हैं।

हीनता बोध का यह रोग हमारे छोटे-बड़े सभी व्यवहारों में, व्यवस्थाओं में, आयोजनों में, रचनाओं में दिखाई देता है। वह विचित्र रूप धारण कर सर्वत्र संचार करता है। उसके ये विविध रूप अनेक बार इतने अधिक आकर्षक होते हैं कि हम उस आकर्षण के पाश से मुक्त होने में असमर्थ हो जाते हैं।

जिनमें अभी भी कुछ विवेक बुद्धि बची है, वे इस रोग को उसकी पूरी भीषणता के साथ देखते हैं। वे इसका उपचार करने का प्रयास भी करते हैं। उनमें अधिकांश तो अपने प्रयासों में असफल होते हैं। फिर भी वे अपने प्रयासों को रोकते नहीं हैं, वे इतने आशावान होते हैं कि हम अभी भी इस भीषण रोग से मुक्ति पा सकते हैं।

वेशभूषा विषयक हीनता बोध

यह हीनता बोध तो इतना अधिक है कि हमने अपनी भारतीय वेशभूषा को भुलाकर अंग्रेजी वेशभूषा धारण कर ली है। बड़े-बड़े भव्य आयोजनों में सब लोग कोट-पेंट पहनते हैं व टाई बाँधते हैं। यह अंग्रेजी वेश हमारे देश की गर्म जलवायु की दृष्टि से बिल्कुल असुविधाजनक है, फिर भी भरपूर गर्मी में इसे पहने रहते हैं और अपना गौरव मानते हैं। इसी प्रकार विद्यालयों, कार्यालयों, समारोहों, यात्रा तथा कारखानों में भारतीय वेश पहनकर नहीं जा सकते। भले ही इस बारे में कोई कानून नहीं है, और कोई हमें भारतीय वेश पहनने पर दण्डित भी नहीं करेगा। फिर भी हम भारतीय वेश पहनना पसंद नहीं करते क्योंकि हमने मन से भारतीय वेश को पिछड़ा मान लिया है। यही हमारा हीनता बोध है।

यदि कहीं पर हम भारतीय वेश पहनकर जाते हैं तो हम दूसरों से अलग ही दिखाई देते हैं। अन्य लोग हमें या तो पिछड़ा मानते हैं या किसी संस्था विशेष का कार्यकर्ता ही मानते हैं। वे हमारी ओर स्नेहभरी दृष्टि से देखना तो दूर, हमसे आँख भी नहीं मिलाते। अपने ही देश में अपना वेश पहनने पर हम पराये जैसे लगते हैं। इसी प्रकार उच्च शिक्षा प्राप्त शिक्षित तो कभी ग्रामीण वेश पहनते ही नहीं हैं। आज ग्रामीण शब्द को ही पिछड़ा मान लिया है। जबकि वास्तविकता यह है कि देश की सच्ची समृद्धि गाँवों के कारण ही है।

आज बालक-बालिका को विद्यालय में पढ़ने के लिए भेजना है तो अभिभावक की पहली चिन्ता उसके गणवेश को लेकर होती है। क्योंकि गणवेश नहीं होगा तो विद्यालय में प्रवेश नहीं मिलेगा। यह गणवेश भी भारतीय नहीं होता, अंग्रेजी आकार-प्रकार का होता है। आज किसी व्यापारी, किसान या पुजारी का पुत्र अपना पारम्परिक वेश पहनकर विद्यालय या महाविद्यालय में जाने या अपने कार्यकाल में जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। ऐसा कोई कानून न होने पर भी हमने अपने मानस में गणवेश की बात स्वीकार कर ली है।

ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, त्यों-त्यों वेश का यह अंग्रेजीकरण भी बढ़ता जा रहा है। प्रारम्भ में लड़कियाँ अंग्रेजी वेश नहीं पहनती थीं, अब लड़कियाँ भी पहनने लगीं हैं। केवल पहनने ही नहीं लगी अपितु वे पुरुषों का अंग्रेजी वेश, जींस टीशर्ट पहनती हैं। अंग्रेजी वेश के साथ-साथ उन्होंने भारतीय अलंकार पहनना भी त्याग दिया है। और इसी को आधुनिकता मान रही हैं।

यह सच है कि भारतीय वेशभूषा का अंग्रेजीकरण अंग्रेजी शिक्षा के साथ ही प्रारम्भ हुआ है। उस समय अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जाने के लिए भारतीय वेश नहीं चलेगा, ऐसा कानून भी बनाया गया था। कानून के साथ-साथ अंग्रेजी वेश के माध्यम से भी मानस बदलने का यह उपाय किया गया था। किन्तु अब तो देश स्वतंत्र है और वेश सम्बन्धित ऐसा कोई कानून भी नहीं है, फिर भी हम भारतीय वेश नहीं पहनते। क्योंकि हम स्वतंत्र भारत में भी हीनता बोध से ग्रसित हैं।

आहार विषयक हीनता बोध

हमने भोजन बनाने व भोजन करने की अपनी पद्धति बदल दी। नीचे बैठकर भोजन बनाने की पद्धति के साथ-साथ नीचे बैठकर भोजन करने की शास्त्रीय पद्धति को भी छोड़ दिया और उसके स्थान पर पशुओं की भाँति खड़े-खड़े भोजन करने की अशास्त्रीय पद्धति को अपना लिया। खड़े-खड़े भोजन करना असुविधाजनक तो है ही, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अनुकूल नहीं है। और खड़े-खड़े भोजन बनाने से हमारी माताओं व बहनों ने अनेक रोग पाल लिए हैं। फिर भी आज की शिक्षित महिलाओं को खड़ी रसोई ही पसन्द है। बैठकर भोजन बनाने व करने वाले पिछड़े माने जाते हैं। इसके मूल में भी हीनता बोध ही है।

आज शिक्षित लोग टेबल-कुर्सी पर बैठकर भोजन करने को प्रगति का सूचक मानते हैं। पैसे वालों के घर में डाइनिंग टेबल न हो, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। अब तो लोगों की स्थिति यह हो गई है कि वे नीचे बैठ ही नहीं सकते। इसका कारण घुटनों का दर्द बतलाते हैं। घुटनों में दर्द होना यह कारण नहीं है, नीचे न बैठने का परिणाम है। आज के बच्चों को नीचे बैठने का अवसर ही नहीं मिलता, घर या विद्यालय में किसी को नीचे बैठे हुए देखा तक नहीं। इसलिए पालथी में नीचे बैठना क्या होता है, वे जानते तक नहीं।

शरीर विज्ञान के अनुसार पालथी में बैठना आरोग्य के लिए अच्छा माना गया है। योगासन में एक आसन वज्रासन होता है। भोजन करने के बाद कुछ समय के लिए वज्रासन में बैठने से भोजन का पाचन अच्छा होता है। परन्तु आज के बच्चों को कोई वज्रासन सिखाता नहीं, अभ्यास करवाता नहीं। इसलिए वे वज्रासन कर पाते नहीं। हमारे शास्त्र तो यह कहते हैं कि अनेक मानसिक व बौद्धिक कार्य नीचे बैठकर ही किये जाते हैं, यथा – ध्यान, प्राणायाम, मंत्रपाठ, प्रवचन, पढ़ाना, गाना, भोजन करना आदि नीचे बैठकर आराम से स्थिरतापूर्वक करने के काम हैं। ये काम खड़े-खड़े करने से उनकी गुणवत्ता और परिणामकारकता कम हो जाती हैं। हम इन सब बातों को भूल गये हैं। इनके बारे में हमें कोई बतलाता है तो हमारा मन उसे मानने को तैयार ही नहीं होता। बुद्धि ने इनका महत्व समझ भी लिया तो भी मन नहीं मानता। मन के न मानने का कारण यही हीनता बोध है।

मातृभाषा का हीनता बोध

एक और हीनता बोध का लक्षण है, अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व। इसके मोह जाल में फँसकर हमने अपनी मातृभाषा को भुला दिया है। और अपनी विवेकबुद्धि खो दी है। हम ऐसा मानते हैं कि अंग्रेजी भाषा के बिना हमारा विकास हो ही नहीं सकता। अंग्रेजी के बिना तो हमारा जीना ही दुभर हो जाएगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के 76 वर्ष बाद भी हमारे शासकीय पत्र व्यवहार की भाषा अंग्रेजी ही है। प्रशासन के उच्च अधिकारियों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे जिस प्रान्त में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं, उस प्रान्त की भाषा सीखें और उसी भाषा में पत्र व्यवहार करें। परन्तु वे अंग्रेजी छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। उनके इस व्यवहार से अंग्रेजी न जानने वाले लोगों को हीनता बोध का अनुभव होता है।

एक ओर तो हिन्दी का महत्व बढ़ाने की बात की जाती है जबकि दूसरी ओर प्राथमिक शालाओं में अंग्रेजी की शिक्षा शुरु की जाती है। एक समय था कि अंग्रेजी भाषा कक्षा 8 से पढ़ाई जाती थी। और आजकल तो कक्षा एक से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। केवल अंग्रेजी पढ़ाना मात्र नहीं  तो शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो, इसका आग्रह बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा के विद्यालय बढ़ रहे हैं, वहीं मातृभाषा के विद्यालय बन्द हो रहे हैं। ऐसी मान्यता प्रचलित की जाती है कि गणित व विज्ञान के विषय तो अंग्रेजी में ही पढ़े जा सकते हैं।

अंग्रेजी भाषा आती हो या नहीं, मातृभाषा में बात करते समय अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने में लोग गौरव का अनुभव करते हैं। परन्तु अंग्रेजी बोलते समय मातृभाषा के शब्दों का प्रयोग करना अंग्रेजी को अशुद्ध करना माना जाता है। अंग्रेजी भाषा का यह दुष्प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया है कि भारतीय भाषाओं के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। एक ओर मातृभाषा का आग्रह बढ़ाना तथा दूसरी ओर अंग्रेजी का प्रयोग बढ़ाना, यह ऐसी दोहरी नीति है जिसमें हम मातृभाषाओं को अंधे कुँए की ओर धकेल रहे हैं। हीनता बोध के ऐसे अनेक उदाहरण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित हैं।

पाश्चात्य पद्धति के शौचालय

यह किस्सा मानस परिवर्तन कैसे किया जाता है, इसका सटीक उदाहरण है। गाँधीजी के शिष्य धर्मपाल जी ने कोठारी शिक्षा आयोग के अध्यक्ष श्रीमान दौलत सिंह जी के अनुभव की बात बताई। कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राध्यापकों के लिए आवास बनने लगे। तब कुलपति अंग्रेज ही होते थे। कुलपति ने ठेकेदार को उन आवासों में पाश्चात्य पद्धति के शौचालय बनाने का आदेश दिया। जब इस आदेश की जानकारी दौलत सिंह जी कोठारी के पास पहुँची तो उन्होंने अन्य भारतीय प्राध्यापकों से मिलकर विचार किया कि हमें अपनी व्यावहारिक कठिनाई अंग्रेज कुलपति को बतानी चाहिए। आठ-दस प्राध्यापक मिलकर कुलपति के पास गए। सबसे पहले तो उन्होंने एकत्रित प्राध्यापकों को डाँटा कि तुम सब एक साथ मिलकर क्यों आए? पहले मुझसे अनुमति क्यों नहीं ली? सबने जब क्षमा याचना करली, तब कुलपति ने कहा, बोलो! क्या कहना चाहते हो? तब बड़ी हिम्मत करके दौलत सिंह जी ने बताया कि आप हमारे लिए जो नये आवास बनवा रहे हैं, उनमें हमारे लिए पाश्चात्य पद्धति के शौचालय मत बनवाइए। हमारे लिए वे असुविधाजनक हैं, हमें उनका बिल्कुल अभ्यास नहीं है। जिन्हें उन आवासों में रहना है, उन सबका यही मत है।

कुलपति ने उनकी बात सुनकर तुरन्त उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारा मत नहीं चलेगा, अंग्रेजी हुकूमत का हुकुम चलेगा। नये आवासों में पाश्चात्य पद्धति के शौचालय ही बनेंगे। भारतीय प्राध्यापकों द्वारा बहुत अधिक अनुनय-विनय करने पर अंग्रेज कुलपति ने इतनी सी राहत दी कि जिन आवासों में दो या दो से अधिक शौचालय बनने हैं, उनमें एक शौचालय देशी पद्धति का होगा, परन्तु जिस आवास में एक ही शौचालय बनना है, उसमें पाश्चात्य पद्धति का शौचालय ही होगा। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे भारतीय प्राध्यापक भी उन पश्चिमी शौचालयों के अभ्यस्त हो गए। और आज उनके बिना काम नहीं चलता। इसे कहते हैं मानस बदलना और उन्हें हीनता बोध से भरना।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 78 (स्वतंत्रता पूर्व राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयत्न)

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