✍ वासुदेव प्रजापति
अंग्रेजों ने हमारी देशी शिक्षा व्यवस्था की पूर्ण उपेक्षा करने की नीति अपनाई। उस समय ब्रिटेन के सामने न तो सार्वजनिक शिक्षा का आदर्श था और न वहाँ की सरकार शिक्षा के प्रति अपना कोई कर्तव्य समझती थी। भारत से अधिकाधिक धन बटोरने के लोभी ब्रिटिश शासनाधिकारियों ने शिक्षा के लिए भारतीय शासकों द्वारा दी जाने वाली सहायता को राजकोष का अपव्यय माना। उन्होंने पुराने शासकों द्वारा स्वीकृत भूमिदान तथा आर्थिक अनुदान समाप्त कर दिए। इस प्रकार जब देशी शिक्षा को पोषणरस मिलना बन्द हो गया तो भारत का शिक्षा देने वाला हरा-भरा कल्पवृक्ष धीरे-धीरे सूखने लग गया।
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध लड़ाई
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध हमारी लड़ाई उसी दिन से प्रारम्भ हो गई थी, जिस दिन से इसका बीज भारत की धरती में बोने का प्रयत्न हुआ था। दिनांक 2 फरवरी 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा समिति के अध्यक्ष के नाते निर्णय दिया था कि ब्रिटिश सरकार की शिक्षा नीति का लक्ष्य भारत के उच्च वर्ग के लोगों को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से यूरोपीय ज्ञान प्रदान करना है।
अंग्रेजों की नीयत को समझकर इस निर्णय के तुरन्त बाद रवींद्रनाथ ठाकुर के पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द के नाना राजनारायण बसु, बंकिमचंद्र चटर्जी, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला हरदयाल, भगिनी निवेदिता, एनी बेसेंट, रविन्द्रनाथ ठाकुर, महर्षि अरविन्द, स्वामी श्रद्धानन्द एवं महात्मा गाँधी जैसे मनीषियों ने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को भारत के लिए विनाशकारी एवं अनुपयुक्त घोषित कर दिया।
राष्ट्रीय शिक्षा की खोज
उपर्युक्त मनीषियों के द्वारा व्यक्त किए गए सूत्रों को पकड़कर उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग प्रारम्भ हुए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शान्ति निकेतन के माध्यम से तथा महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने गुरुकुल कांगड़ी में प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया गया। वास्तव में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से छुटकारा पाना और राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का आविष्कार करना हमारे स्वातंत्र्य आन्दोलन की मूल प्रेरणाओं में एक प्रमुख प्रेरणा रही है।
अंग्रेजी राज को खत्म करने के पक्ष में एक प्रमुख तर्क यह दिया जाता था कि अंग्रेजी राज को हटाये बिना हम उनकी शिक्षा प्रणाली से मिली गुलामी से मुक्ति नहीं पा सकेंगे। इसलिए ब्रिटिश दासता के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा की दिशा में अनेक प्रयोग प्रारम्भ हुये। डी.ए.वी. आन्दोलन, गुरुकुल कांगड़ी आन्दोलन, शान्ति निकेतन की स्थापना, बंगभंग विरोधी आन्दोलन के समय प्रारम्भ हुए राष्ट्रीय विद्यालय, असहयोग आन्दोलन के समय विद्यापीठों का प्रारम्भ होना, बेसिक शिक्षा के प्रयोग तथा अरविन्द आश्रम का शिक्षा प्रयोग इत्यादि अनेकानेक प्रयोग ऐसे-ऐसे मनीषियों के द्वारा प्रारम्भ किये गए, जिनकी बौद्धिक तथा संगठनात्मक क्षमता आज के नेताओं एवं विचारकों की तुलना में अनेक गुणा अधिक थी। फिर भी ये सफल क्यों नहीं हुए? यह हमारे लिए मननीय विषय है।
राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोगों का आँकलन
राष्ट्रीय शिक्षा के इन प्रयोगों का क्या हुआ? क्या वे अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का युगानुकूल विकल्प बन पाये? डी.ए.वी. नामक संस्थाओं का जाल आज भी फैला हुआ है। गुरुकुल कांगड़ी आज भी उसी स्थान पर चल रहा है। शान्ति निकेतन और विश्वभारती आज भी विद्यमान हैं। गाँधीजी के आशीर्वाद से प्रारम्भ हुए विद्यापीठ भी जीवित हैं। मालवीय जी के प्रयत्नों का साकार रूप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिसके भवनों और छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। एनी बेसेंट द्वारा शुरु किया गया कॉलेज आज भी वाराणसी में विद्यमान है। महर्षि अरविन्द आश्रम का शिक्षा प्रयोग आज भी चल रहा है। रामकृष्ण व विवेकानंद के नाम पर चलने वाली अनेक संस्थाएँ आज भी श्वास ले रही हैं।
एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या ये सभी संस्थाएँ देश के किसी कोने में राष्ट्रीय शिक्षा का नमूना खड़ा कर पाईं? क्या ये सभी अपने संस्थापकों एवं प्रेरणास्रोत मनीषियों के शिक्षादर्शन को लेशमात्र भी प्रतिबिंबित कर पा रहीं हैं? वे जिस आदर्शवाद को लेकर शुरु हुईं थीं, क्या आज वह किसी भी मात्रा में उनमें शेष है? उनकी अब तक की यात्रा प्रगति की कहानी है, या और कुछ। उनकी असफलता के कारण क्या हैं? क्या उन्हें कतिपय व्यक्तियों की असफलता माना जाए अथवा हमारी समूची राष्ट्रीय मनीषा की असफलता? इसका उत्तर हमें ही खोजना होगा।
प्रयोगों का समालोचनात्मक अध्ययन
स्वाधीनता पूर्व के राष्ट्रीय शिक्षा प्रयोगों की जीवन यात्रा का समालोचनात्मक अध्ययन करना, इसलिए आवश्यक है कि इस अध्ययन के प्रकाश में स्वाधीन भारत को अपने प्रयत्नों का समुचित आकलन करने का अवसर मिल सकेगा। जहाँ स्वाधीनता पूर्व के प्रयोग असफल हुए, वहाँ स्वाधीनता के बाद के प्रयत्न सफल होंगे ही, ऐसा आत्मविश्वास होने जैसा हमारे चिंतन और प्रयासों में नया क्या है?
समालोचनात्मक अध्ययन से हम यह भी जान सकेंगे कि कहीं हम वे ही भूलें तो नहीं दोहरा रहे हैं, जो स्वाधीनता पूर्व के मनीषियों से अनजाने में हुई थीं, जिनके कारण उनके प्रयोग सफल नहीं हो पाए। यह कितनी विचित्र बात है कि लाला लाजपतराय और महर्षि अरविन्द जैसे मनीषी के राष्ट्रीय आन्दोलन में अग्रणी होते हुए भी ये प्रयोग असफल हो गए थे। परिणाम स्वरूप उन्होंने बड़े मुक्त हृदय से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया और उसकी असफलताओं की कारण मीमांसा भी की। उनका वह अध्ययन हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
अंग्रेजी शिक्षा का आरोपण कैसे किया?
इस बात का अध्ययन भी आवश्यक है कि किस प्रकार ब्रिटिश शासकों ने भारत की मिट्टी में उपजी भारतीय शिक्षा के गाँव-गाँव में फैले हुए ताने-बाने को जड़ से उखाड़कर अपनी अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को भारत की धरती में ओरोपित करने में सफलता पाई।
ब्रिटेन उन दिनों शिक्षा के क्षेत्र में भारत की अपेक्षा बहुत पिछड़ा हुआ था। भारत में प्रत्येक राजा-महाराजा, नवाब, जमींदार तथा रईस आदि शिक्षा प्रसार में आर्थिक सहयोग देना अपना कर्तव्य मानता था। जबकि ब्रिटेन में वहाँ की सरकार ने सन् 1833 के पूर्व राजकोष से एक फूटी कौड़ी भी शिक्षा के लिए नहीं दी थी। ऐसी परिस्थिति में बहुत दबाव पड़ने पर भी ब्रिटिश शासकों ने भारत में भारतीय शिक्षा को राज्य की ओर से किसी भी प्रकार का आर्थिक पोषण प्रदान नहीं किया और उसे पोषण के अभाव में सूखने के लिए खुला छोड़ दिया गया। ऐसा करने से रिक्तता पैदा हो गई और उस रिक्तता को अंग्रेजी शिक्षा से भरा गया।
वैसे तो प्रारम्भ में उन्होंनें भारत की प्राचीन राजस्व प्रणाली, न्याय प्रणाली तथा प्रशासन को अपने हाथ में लेकर अपना हित साधना चाहा और अपने साम्राज्य के चिर स्थायित्व के लिए अंग्रेजी शिक्षा का आरोपण करने की भरपूर कोशिश की, परन्तु ये कोशिशें जब बेकार हो गईं, तब उन्होंने अनुभव किया कि शिक्षा प्रणाली का देश के राजस्व, न्याय, प्रशासन तथा अर्थव्यवस्था से गहरा सम्बन्ध होता है। इसलिए उन्होंने इन सबको अपने हस्तगत कर लिया।
शिक्षा का कार्य मनुष्य बनाना हैं?
यों तो शिक्षा प्रणाली एक साँचा है। जिसका कार्य जैसा आप चाहते हैं, वैसा मनुष्य बनाना है। अंग्रेज इस राष्ट्र में कैसा मनुष्य बनाना चाहते हैं। उनकी जीवनशैली क्या होगी? उसका पारिवारिक व सामाजिक परिवेश कैसा होगा? अर्थात राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक रचना को जिस प्रकार का मनुष्य चाहिए, वैसा मनुष्य बनाने वाली शिक्षा प्रणाली का आविष्कार करना होगा। इसके लिए मनुष्य की जन्मदात्री सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक रचना का विचार करना होगा। ब्रिटिश शासक जैसे ही इस निष्कर्ष पर पहुँचे, उन्होंने भारत की परम्परागत अर्थ रचना, राजस्व, न्याय तथा प्रशासन प्रणाली को समाप्त कर यूरोपीय अर्थरचना, राजस्व व न्याय प्रणाली एवं प्रशासन प्रणाली भारत में लागू कर दी। इसके साथ-साथ वे गैर सरकारी धरातल पर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के प्रयोग भी भारत में चलाते रहे।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रति जन-मन में आकर्षण पैदा करने के लिए उन्हें शासन द्वारा प्रदत्त जीविका के अवसरों तथा मान-सम्मान से भी जोड़ते रहे। सीधे व सरल भारतीय अंग्रेजों की यह चाल समझ नहीं पाए, प्रलोभन में पड़कर उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर अंग्रेजी शिक्षा को अपनाना शुरु कर दिया। इसके बाद ही मैकाले ने सन् 1835 में अपना प्रसिद्ध निर्णय लिया। इन बातों की सही जानकारी न होने के कारण हमारे देश में अभी तक मैकाले को अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का जन्मदाता एवं इस शिक्षा पद्धति को मैकाले शिक्षा पद्धति मानने की भूल चल रही है। मैकाले ने केवल यह महत्वपूर्ण कार्य अवश्य किया कि पहले से विकसित शिक्षा नीति एवं तत्कालीन शिक्षा पद्धति पर सरकारी स्वीकृति की मोहर लगा दी थी।
राष्ट्रीय प्रयोगों की विफलता से सीख लें
अंग्रेजों ने भारत की आर्थिक, न्यायिक व प्रशासनिक व्यवस्था में जो आमूल-चूल परिवर्तन किये थे, उनका युगानुकूल स्वस्थ विकल्प खोजे बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग प्रारम्भ कर दिये गये। फलतः सभी प्रयोग विफल हुए। शिक्षा दर्शन राष्ट्र के विकास दर्शन का अभिन्न अंग होता है। इस सत्य का साक्षात्कार केवल गाँधीजी ने किया था। उन्होंने शिक्षा पद्धति के बारे में जो कल्पना प्रस्तुत की, वह उनकी अर्थ रचना एवं ग्राम स्वराज्य की संकल्पना का अभिन्न अंग थी। हमने गाँधीजी के आर्थिक दर्शन को नहीं अपनाया, इसलिए उनकी शिक्षा पद्धति भी टिक नहीं पायी।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हम उसी भूल को दोहरा रहे हैं। एक ओर अंग्रेजों द्वारा स्थापित अर्थरचना, न्याय प्रणाली एवं प्रशासनिक व्यवस्थाओं व संवैधानिक प्रक्रिया का विस्तार करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता को पूर्ण करने वाली शिक्षा प्रणाली की निन्दा करके उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की तोता रटंत भी लगा रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह है कि अब तक शिक्षा पद्धति में कोई परिवर्तन किए बिना ही हम उसका अन्धाधुन्ध विस्तार किये जा रहे हैं और यह शिक्षा पद्धति प्रामाणिकता पूर्वक मैकाले के शब्दों में ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर रही हैं, जो रंग और रूप में तो भारतीय दिखाई देती है, किन्तु विचारों, आदर्शों व रुचियों में अंग्रेज ही है। परन्तु वर्तमान नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इस बात को समझकर भारतीयता को शिक्षा परिवर्तन का आधार बनाने का निश्चय किया है। कदम भले ही देर से उठा है, किन्तु सही दिशा में उठा यह कदम निश्चय ही भारतीय शिक्षा को प्रस्थापित करेगा, ऐसा विश्वास है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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