✍ डॉ. मंजरी शुक्ला
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित परिवार में 26 मार्च सन 1960 को सुबह आठ बजे होली के शुभ त्यौहार के दिन हुआ। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा इंदौर के दिल्ली कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में कार्य करते थे और उनकी माता हेम रानी देवी एक विदुषी एवं धर्म परायण महिला थी। उनके नाना भी कवि थे जो कि बृज भाषा में कविता लिखते थे तथा उनकी प्रवृत्ति भी बेहद धार्मिक थी।
महादेवी जी की प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में आरंभ हुई। इसके साथ ही उनके घर पर एक पंडित, एक चित्र शिक्षक, एक संगीत शिक्षक व एक मौलवी भी उनको शिक्षा देने के लिए जाते थे। मात्र 9 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह स्वरूप नारायण वर्मा के साथ कर दिया गया पर उस विवाह को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया।
मात्र सात या आठ वर्ष की आयु से ही महादेवी जी ने कवितायें रचना प्रारम्भ कर दी थीं।
“ठंडे पानी से नहलातीं,
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,
इनका भोग हमें दे जातीं,
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।”
सरल शब्दों में अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से व्यक्त करना महादेवी जी को बाल्यावस्था से ही आ गया था।
महादेवी जी ने बचपन से करीब सात वर्ष की आयु से ही बृज भाषा में कविताएं लिखना आरंभ किया था और ग्यारह वर्ष की आयु तक आते इन्होंने खड़ी बोली में भी रचनाएं लिखनी प्रारंभ कर दी थी। खड़ी बोली में रचनाएं लिखना इन्होंने सरस्वती पत्रिका की प्रेरणा से शुरू किया था।
नीहार, रश्मि, नीरजा, दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्निरेखा, सप्तवर्णा और सांध्यगीत इनके काव्य संग्रह हैं। करुणा एवं भावुकता उनकी रचनाओं के प्रमुख अंग हैं इसलिए उन्हें “पीड़ा की गायिका” के नाम से भी जाना जाता है।
साहित्य जगत को अपनी लेखनी से समृद्ध करने वाली लेखिका महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य के छायावाद काल के प्रमुख 4 स्तम्भों में से एक के रूप में अमर हैं। हिंदी साहित्य में उनकी एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पहचान है और छायावादी काव्य के विकास में इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है।
1916 के आसपास हिंदी में कल्पनापूर्ण और भावुक कविताओं का दौर आया जिनकी भाषा,छंद, अलंकार और यहाँ तक कि शैली का भी पुरानी कविताओं से कोई मेल नहीं होने के कारण हिंदी साहित्य जगत के आलोचकों ने इसे छायावाद या छायावादी कविता का नाम दिया। आधुनिक हिंदी कविता की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं की उपलब्धता इस काल में मिलती है।
महादेवी जी को हिंदी की सबसे सशक्त कवयित्री होने के कारण आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। भक्ति काल में जो स्थान भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त मीरा को प्राप्त हुआ है आधुनिक काल में वह स्थान महादेवी वर्मा को मिला है। जिस तरह से मीरा अपने गिरधर गोपाल के प्रति तन-मन-धन से समर्पित रही उसी तरह से महादेवी जी ने साहित्य साधना को अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
महाकवि निराला ने तो उन्हें “हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी जी का कला पक्ष भी भाव पक्ष जैसा ही सुंदर है। उनकी कविताओं की भाषा अत्यंत मधुर एवं कोमल हैं। महादेवी वर्मा का संपूर्ण काव्य गीतिकाव्य है। चित्र शैली और प्रगीत शैली उनके गीतिकाव्य की मुख्य शैलियां हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गीति-काव्य की विशिष्टता बताते हुए कहा है कि “गीति-काव्य उस नई कविता का नाम है, जिसमें प्रकृत्ति के साधारण-असाधारण सब रूपों पर प्रेम-दृष्टि डालकर, उसके रहस्य भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक कृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाला गया है। यह सर्वाधिक अन्तर्भाव व्यंजक होता है।”
वेदना, प्रकृति के सुंदर दृश्य चित्र, दिव्य प्रेम, विरह, हर्ष, विषाद, सुख-दुख की अनुभूतियाँ, आत्मा-परमात्मा के मधुर संबंध के साथ ही उनकी कविताओं में संवेदना का प्रबल भाव देखने को मिलता है।
महादेवी जी की गद्य कृतियाँ इस प्रकार हैं :
रेखाचित्र : अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएँ
ललित निबंध : क्षणदा
संस्मरण : पथ के साथी और मेरा परिवार और संस्मरण
चुने हुए भाषणों का संकलन : संभाषण
निबंध : श्रृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध एवं संकल्पिता
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह : हिमालय
संपादन : चाँद, आधुनिक कवि काव्यमाला आदि।
आलोचना : विभिन्न काव्य संग्रहों की भूमिकाएँ, हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
महादेवी जी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उन्होंने जो गद्य लिखा है, वह गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना का सहारा लिए महादेवी जी ने जो सामाजिक जीवन को छूने वाले गद्य लिखे हैं वे उन्हें पढ़कर ही जाना जा सकता है।
महादेवी जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का तथा कला-साहित्य साधना पर रविंद्रनाथ टैगोर का गहरा प्रभाव पड़ा और इसलिए उनके रचित साहित्य में करुणा और भावुकता का गहरा प्रभाव रहा। उनके पात्रों में कथात्मकता से अधिक संवेदनशीलता है और उनकी यही खूबी पाठक को रचना के साथ-साथ चलने पर मजबूर कर देती है।
महादेवी जी की गद्य शैली चित्रात्मक एवं प्रभावपूर्ण है। महादेवी वर्मा जी के गद्य साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं भेदभाव को आईना दिखाते हुए, उनका समाज से परिचय कराया है।
महादेवी वर्मा जी ने गद्य साहित्य में समाज के पिछड़े समाज के पात्रों का भी अत्यंत सजीव एवं मार्मिक चित्रण है। वह पशु पक्षियों से भी बहुत प्रेम करती थी और उनकी रचनाओं में उन्होंने बहुत ही सुंदरता से उन सभी का वर्णन किया है। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते, बिल्ली, गाय, गिलहरी, नेवला आदि को पाला हुआ था।
उन्होंने लिखा है, “मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है। मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का, चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।”
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महादेवी वर्मा के बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य का उल्लेख हमेशा अधूरा ही होगा और हिन्दी साहित्य जगत में महादेवी जी ध्रुव तारे की भाँति सदा ही चमकती रहेंगी।
बहुत बढ़िया शोधपरक आलेख।बच्चे बड़े सब इसे रुचि से पढ़ेंगे।महादेवी जी के बालगीत भारतीय आध्यात्मिक चेतना से ओतप्रोत रहे।माँ के ठाकुर जी आपने उद्धृत की ही है।दुर्भाग्य से इतनी श्रेष्ठ रचनाएँ पाठ्यक्रम से धर्म निरपेक्षता के छद्म में हटा दी गयी।महीयसी महादेवी जी पर झारखंड की प्रख्यात रचनाकार पद्मा मिश्रा जी ने ठीक ही लिखा है-
वह स्नेह बांटती धरती को
खुद पीड़ा की सहकार बनी
वेदना लिए अन्तरमन मे
रस बरसाती जलधार बनी
वह स्वयं नीरजा नेह सलिल
जैसे सपनो की मधु यामा
वह महादेवि थी सहज सरल
मीरा सी कृष्णा की श्यामा
जीवन के रण में प्रति पल क्षण
वह जली दीप की शिखा विरल
रेखाचित्रों मे गढती थी
मानव जीवन के रुप विमल
छाया की माया मे पलकर
पलकों पर सोये सपनों सी
अपनी पीड़ा में साध लिया
जग की पीड़ा थी महीयसी
तुम भाव बोध की कविता सी
हो शक्ति पुंज हे पावन मन !
अंतर की कोमल कविता को
शत बार नमन शत बार नमन
धन्यवाद