– अनिल रावल
गुजरात में परंपरागत शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन लाने के लिए साहित्य सर्जन और नूतन शिक्षा पद्धति द्वारा क्रांति करने वाले गिजुभाई बधेका का शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट प्रदान रहा है। उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में प्रयोगों करके शिक्षा क्षेत्र के शून्यावकाश को भरने का प्रयत्न किया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने गिजुभाई को ‘मुछाळी मा’ (मूछवाली माँ) कहा है तो काका साहब कालेलकर ने उनको ‘बालसाहित्य के ब्रह्मा’ कहा है।
गिजुभाई का असली नाम गिरिजा शंकर बधेका था। उनका जन्म 15 नवम्बर,1885 को गुजरात के अमरेली जिले के चित्तळ गांव में हुआ था। माता का नाम काशीबा और पिता का नाम भगवानजी था। गिजुभाई प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा भावनगर में पूर्ण करके 1905 में मेट्रिक हुए। फिर दो साल अफ्रिका गए। स्वदेश लौटकर मुंबई के एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी स्वीकार की और साथ-साथ वकालत की पढ़ाई शुरू की। वकालत का अभ्यास पूर्ण करके कुछ समय वकालत की। सन् 1913 से 1916 तक वढवाण कैम्प में डिस्ट्रीक्ट हाई कोर्ट प्लीडर के रूप में काम किया। 27 फरवरी, 1913 उनके घर पुत्र नरेंद्र का जन्म हुआ। अपने पुत्र को परंपरागत शिक्षा पद्धति से मुक्त रखने का निर्णय किया। उनको प्रचलित शिक्षा पद्धति में परिवर्तन की आवश्यकता दिखाई दी। उन्होंने मारिया मॊन्टेसोरी की पुस्तकें पढ़ी। इससे गिजुभाई को बाल-शिक्षा की सच्ची समझ प्राप्त हुई। 13 नवम्बर, 1916 को ‘दक्षिणामूर्ति’ के साथ जुड़े और 1918 में कुमार मंदिर के प्रधानाचार्य बने। इस दौरान उनमें छिपा हुआ सच्चा शिक्षक और बच्चों का प्यारा साथी जागृत हुआ। उन्होंने गुजरात के शिक्षा क्षेत्र को नई दिशा देकर उसकी दशा बदलने का सघन प्रयत्न किया। इसके लिए उन्होंने मॊन्टेसोरी पद्धति द्वारा बालमंदिर की शिक्षा का प्रारंभ किया।
छोटा बच्चा कल्पनाशील होता है। उसको कल्पना के जगत में ले जाकर वास्तविक बोध देने का कार्य शिक्षक बनकर साहित्यसर्जन के माध्यम से किया। बालक को शारीरिक पोषण की जितनी जरूरत होती है उतनी ही जरूरत मानसिक पोषण की होती है। गिजुभाई ने बालवार्ता और शैक्षणिक उपकरणों के माध्यम से शिक्षा को नई ऊंचाई देने का प्रयत्न किया। पाठ्यपुस्तक की बाहर की दुनिया में बच्चों को ले जाकर प्रकृति के बीच, नदी के तट पर प्रायोगिक कार्य द्वारा शिक्षा का अनुभव करवाने की अनोखी पद्धति पर उन्होंने जोर दिया। बच्चों को रस पैदा हो ऐसे गीत, कहानियाँ और नाटक द्वारा आनंद से पढ़ाने की अद्भुत तरकीब उन्हें हस्तगत थी।
गिजुभाई के शिक्षक धर्म और कर्म को समझें-जाने बिना उनके साहित्य सर्जन को न्याय नहीं दे सकते क्योंकि उनके साहित्य का प्रत्येक शब्द उनके शिक्षानुभव की स्याही में डूबा हुआ है। गिजुभाई का साहित्य सर्जन बालक को श्रेष्ठ मानव बनाने के ध्येय से लिखा गया है। बालक के मन को आनंदित और संस्कारित करने के लिए उनकी कहानियों के केंद्र में बालक और बालक की रूचि मुख्य है। बालक का मानस घड़तर, लालनपालन और शिक्षा को साहित्य के साथ जोड़कर उन्होंने विपुल सर्जन द्वारा विद्योपासना की है। उन्होंने बालसाहित्य की मजबूत नींव रख कर बाल साहित्य को समाज में प्रचलित और प्रिय बनाया।
बच्चा जब पालने में होता है तब से उसको कर्णप्रिय और लयबद्ध गीत पसंद आते है। ऐसे गीत बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करतें हैं। बालकों को तुरंत कंठस्थ हो जाए और गुनगुनाते रहे ऐसी छोटी-छोटी काव्य पंक्तियों का समावेश कहानियों में किया गया है। छोटे-छोटे वाक्य और लयबद्ध शब्द-प्रयोजन उनकी कहानियों में दिखाई देता है। उनकी कहानियों में शब्द का माधुर्य और कोमलता का एक अजीब मिश्रण भाव विश्व खड़ा करने में सफल रहा है।
बालकों को अति प्रिय ऐसे पशु-पक्षिओं की कहानी द्वारा बालमन को प्रफुल्लित करने का अंतिम लक्ष्य सिद्ध कर सके ऐसी क्षमता कहानियों में है। गिजुभाई ने बालकों की वयकक्षा के अनुरूप कहानी की लंबाई और कथावस्तु पसंद करके कहानियों का सर्जन किया है। बालकों में भाव, संवेदन, आश्चर्य, हिम्मत, साहस, संस्कार और जिज्ञासा का प्रकटीकरण हो ऐसी उनकी कहानियाँ आज भी लोकप्रिय है। उनकी कहानी की प्रस्तुति ऐसी आकर्षक है कि पढ़ते-पढ़ते पात्र के साथ तादात्म्य का अनुभव होता है। वर्ग खंड में कहानी कहते समय आंगिक, वाचिक के साथ-साथ शाब्दिक चेष्टा सहज बन जाती है। उनकी कहानियों का नाट्यीकरण भी आसानी से कर सकते हैं।
उनका समग्र साहित्य बालसाहित्य, किशोरसाहित्य, चिंतनसाहित्य और शिक्षासाहित्य में वर्गीकृत किया जा सकता है। बालसाहित्य में ‘बाल साहित्य वाटिका’ मंडल-1 में 28 और मंडल-2 में 14 पुस्तकें हैं। ‘बाल साहित्य गुच्छ’ में 25 पुस्तकें हैं। ‘ईसपकथा’, ‘अफ्रिका की सफर’ उपरांत अवलोकन ग्रंथमाला, ज्ञानवर्धक ग्रंथमाला, रम्यकथा ग्रंथमाला, कथानाट्य ग्रंथमाला, जीवनपरिचय ग्रंथमाला, पशुपक्षी ग्रंथमाला जैसी अनेक पुस्तकों का सर्जन किया है। किशोर साहित्य में ‘रखडु टोली’ भाग 1-2, ‘महात्माओं के चरित्र’, ‘किशोरकथाएँ’ भाग 1-2 समाविष्ट है। ‘प्रासंगिक मनन’, ‘शांत पलें’ जैसी पुस्तकें चिंतनसाहित्य की परिचायक हैं। ‘मोन्टेसोरी पद्धति’, ‘शिक्षक हो तो’, ‘कहानी का शास्त्र’, ‘तोफानी बालक’, ‘कैसे शीखना?’, ‘माता-पिताओं की माथापच्ची’, ‘कठिन है माता-पिता बनना’, ‘माता-पिता से’ जैसी बालशिक्षा की पुस्तकें हैं। सबसे ज्यादा प्रभावक पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ हैं जो शिक्षापद्धति को उजागर करती है। उनकी पुस्तकें हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, तेलुगु, उडिया जैसी भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं।
200 से ज्यादा पुस्तकों के लेखक, आदर्श शिक्षक, बिना बोझ शिक्षा के प्रखर आग्रही और साम्प्रत समय में भी प्रस्तुत विचार के धनी को पूरे भारत वर्ष का शिक्षा जगत सवंदन याद रखेगा।
(लेखक अहमदाबाद-गुजरात से प्रकाशित ‘संस्कार दीपिका’ गुजराती पत्रिका के संपादक है।)
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