– अनिल रावल
गिजुभाई बधेका आधुनिक शिक्षा के ज्योतिर्धर है। पाठशाला में जब परंपरागत और रटने की शिक्षा दी जाती थी तब विद्यार्थी शिक्षा के केंद्र में नहीं था। तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली के कारण विद्यार्थियों को शिक्षा से नफरत हो जाती थी। डर और भय का माहौल सतत दिमाग में मंडरा रहता था। शिक्षा व्यक्ति-निर्माण के लिए होनी चाहिए और इसके लिए शिक्षा के केंद्र में विद्यार्थी ही होना चाहिए। आनंदप्रद शिक्षा के लिए गिजुभाई ने गुजरात में बहुत सारे प्रयोग किए। बहुत सारी कहानियां लिखी और इसकी मौलिक प्रस्तुति भी की। इससे उन्होंने शिक्षा और बालसाहित्य को दिशादर्शन किया।
उनकी पुस्तकों में से कुछ के बारे में आज बात करेंगे। यह किताबें शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है और बालमानस को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक भी है।
दिवास्वप्न
गिजुभाई स्वयं शिक्षक थे। शिक्षक के नाते उन्होंने वर्गखंड में बहुत सारे प्रयोग किए हैं। वही प्रयोग लक्ष्मीराम नामक शिक्षक के पात्र द्वारा प्रस्तुत किए है। यह पुस्तक शिक्षा की आचार संहिता है। उन्होंने बताया है कि शिक्षा माहिती को प्राप्त करने और उसे रटने तक सीमित नहीं है। इससे बालक का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता।
गिजुभाई ने पारंपरिक शिक्षा पद्धति को छोड़कर प्रायोगिक और मौलिक पद्धति से बालकों को कैसे पढ़ाया जाय इसके प्रयोग बताएं हैं। केवल पुस्तकीय ज्ञान के बजाय स्थानिक प्राकृतिक वातावरण को ध्यान में रखकर ज्ञान प्रदान करना आवश्यक है। ऐसा करने से विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास और इच्छित वर्तन परिवर्तन हो सकता है।
विद्यार्थियों में पंचकोशीय विकास के लिए प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षा अनिवार्य है। इसके लिए कैसी शिक्षा प्रणाली प्रस्तुत करनी चाहिए यह उन्होंने बताया है। शिक्षा के केंद्र में बालक होगा तो उसकी रूचि रस और क्षमता के अनुसार शिक्षा का स्वरूप तय करना चाहिए। इस शिक्षा प्रयोग से विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति नीरसता दूर होती है, शिक्षक और विद्यार्थी के बीच आत्मीयभाव का सेतु निर्माण होता है और अभिभावकों का शिक्षक और विद्यालय के प्रति विश्वास बढ़ता है। विद्यार्थी को रसप्रद और आनंदमय शिक्षा देनी है तो एक ही प्रकार की शिक्षा पद्धति नहीं होनी चाहिए। विषयवस्तु के अनुरूप विद्यालय और गांव की स्थानीय, भौगोलिक और सामाजिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर शिक्षापद्धति का निर्माण होना चाहिए।
कहानी, चित्र, नाटक, कविता को माध्यम बनाकर बालक को रचनात्मक तरीके से पढ़ाया जा सकता है और उसकी तर्कशक्ति, सर्जनात्मक शक्ति और कल्पना शक्ति का विकास हो सकता है यह प्रतिपादित किया गया है। इससे विद्यार्थियों में अनुशासन, स्वच्छता, स्वशासन, नियमितता, स्वास्थ्य की जागरूकता जैसे गुणों का विकास होता है।
यह पुस्तक चार खंडों में विभाजित है। इसमें वर्गखंड में आनंदमय प्रत्यायन और वर्गखंड और विद्यार्थी की स्वच्छता पर जोर लगाया है। यदि शिक्षक बाल मनोविज्ञान को समझकर वर्गखंड में व्यवहार करता है तो शिक्षक-विद्यार्थी का अटूट संबंध निर्माण होता है। बालक के सर्वांगीण विकास में वृद्धि भी होती है।
बरसों पहले लिखी गई यह पुस्तक सांप्रत समय में भी प्रस्तुत और अनिवार्य बन चुकी है। आज विद्यालयों में दिये जाने वाली शिक्षा योग्य, संस्कारमूलक और पूर्ण नहीं है। शिक्षा का पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, परंपरागत शिक्षापद्धति, क्षतिपूर्ण परीक्षा-पद्धति, परिणाम की प्रक्रिया यह सब विद्यार्थियों के मानस को हानि पहुंचा रहे हैं। कई बार विद्यार्थी को शिक्षा अप्रिय हो जाती है। वह अभ्यास छोड़ देता है। शिक्षक के प्रति घृणा होती है। ऐसी परिस्थिति का निर्माण आज अक्सर देखने को मिलता है।
यदि शिक्षक विद्यार्थियों का अभिभावक और मित्र बन जाता है तो समस्या अपने आप खत्म हो जाती है। इसके लिए शिक्षक को बालक के प्रति अपार वात्सल्य और धैर्य रखना पड़ता है। इससे विद्यार्थियों में स्वाभिमान, संस्कार और आत्मविश्वास का निर्माण होता है। ऐसे विद्यार्थी ही भविष्य में समर्थ राष्ट्र के निर्माण में योगदान दे सकते है।
बालक को बालक ही रहने देना चाहिए। शिक्षा के बोझ तले उसे कूचडना ठीक नहीं है। मुक्त वातावरण देना अनिवार्य है। एक बार यह पुस्तक पढ़नी शुरू करने के बाद इसे पूर्ण करके छोड़ने का मन होता है। सरल शैली में आलेखित शिक्षा और बाल मानस के चित्र में कैसे रंग भरा जा सकता है इसका संपूर्ण आलेखन देखने को मिलता है।
वार्ता का शास्त्र
‘वार्तानुं शास्त्र’ (वार्ता का शास्त्र) पुस्तक केवल शिक्षकों के लिए ही नहीं बल्कि अभिभावकों के लिए भी पढ़ना जरूरी है। मनुष्य मात्र को बचपन से लेकर बुढ़ापे तक कहानी पसंद होती है। लेकिन बहुत कम लोगों को कहानी के बारे में ज्ञान होता है। कहानी कैसे, किसे, क्यों और कब कहनी चाहिए, कितनी लंबी होनी चाहिए यह सब बातों का ज्ञान सभी को नहीं होता है। जिसको इसकी जानकारी है वह कुशल कहानीकार-कथाकार बन सकता है। शिक्षक के लिए यह कला हस्तगत होनी अनिवार्य है।
कहानी के माध्यम से वर्गखंड में एक से अधिक विषयों का ज्ञान दिया जा सकता है। गिजुभाई ने कहानी का शास्त्रीय विचार इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। उनके अनुभव में जो आया इसका विश्लेषण किया गया है। बालशिक्षा में बाल कहानियों द्वारा शिक्षा का लक्ष्य सिद्ध हो सकता है। बच्चों को जैसी कहानी चाहिए ऐसी कहानी हम कह सकते हैं क्या? या मां-बाप जो कहते हैं ऐसी कहानी बच्चे सुनने या पढ़ने के लिए तैयार है क्या? यह भी एक प्रश्न है। कहानी सुनने वाला और कहने वाला या पढ़ने वाला और लिखने वाला यह दोनों की इच्छापूर्ति का समन्वय हो तभी बाल कहानी का सर्जन सार्थक होता है। कहानी का उद्देश्य और मूल्य तभी सिद्ध होता है।
यह पुस्तक कहानी की प्रक्रिया की संपूर्ण समझ प्रकट करती है। कहानी में कथातत्त्व, संस्कारलक्षी बातें, कल्पना शक्ति का विकास, नाट्य तत्त्व, धर्म और संस्कृति की बातें होनी चाहिए इसकी चर्चा भी की गई है। पुस्तक में शिक्षकों के लिए उपयोगी कहानियां की मार्गदर्शक सूची भी है। भविष्य में और कितने विषयों पर कहानी निर्माण की जा सकती है इसका भी निर्देश है।
प्रस्तुत पुस्तक में कहानी के कई पहलू पर पहली बार प्रकाश डालने का प्रयत्न हुआ है। गिजुभाई लिखते हैं कि “कहानी का प्रधान उद्देश्य आनंद ही है क्योंकि कहानी स्वत: एक कलाकृति है। हर कलाकृति का मुख्य उद्देश्य इसके परिचय में आनेवाले को आनंद देना है।”
श्रेष्ठ कहानी बालक की कल्पना शक्ति का विकास करने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए कहानी भाषा शुद्धि और भाषा विज्ञान की वृद्धि का कार्य भी करती है। भूत-प्रेत और अंधश्रद्धा की बातें बच्चों की कहानियों में नहीं आनी चाहिए। कहानी की प्रस्तुति और शैली सुनने या पढ़ने वाले की कक्षा को ध्यान में रखकर करनी चाहिए। भिन्न-भिन्न कक्षा के बच्चों के लिए ऐसी अलग-अलग प्रकार की कहानी कही जा सकती है यह बात लेखक ने बताई है।
कहानी में बोध लादने की आवश्यकता नहीं है। कहानी के माध्यम से बालक खुद सहजता से सीखता है। हम कहानी द्वारा इतिहास, भूगोल, खगोल, कला का ज्ञान दे सकते हैं लेकिन इसमें कहानी का तत्त्व होना अनिवार्य है। इससे ज्ञान की वृद्धि हो सकती है और अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
कहानी की शास्त्रीयता समझने के लिए यह पुस्तक पढ़नी जरूरी है।
धर्मात्माओनां चरित्रो (धर्मात्माओं के चरित्र)
भारत की भूमि संत और वीरो की भूमि है। राष्ट्र को जब-जब जरूरत पड़ी तब-तब संतों और धर्मगुरुओं ने नया मार्ग दिखाया है। सामाजिक जीवन में चेतना की तेज हवा फूंकने का पुनित कार्य किया है। अनेक धर्मात्माओं ने जन्म लेकर हिंदू संस्कृति को देदीप्यमान की है। ऐसे संतो के चरित्र का आलेखन गिजुभाई बधेका ने किया है।
बालकों के चरित्र निर्माण के लिए महापुरुषों की चरित्र गाथा प्रेरणा का स्रोत है। गिजुभाई ने बालकों को संस्कृति और संस्कार का पीयूषपान कराने का प्रयत्न किया है। इस पुस्तक में गुरु नानक, कबीर, रामकृष्ण परमहंस जैसे महात्माओं के चरित्र का आलेखन अपनी सहज शैली से किया गया है। यहां मात्र महापुरुषों के चरित्र का आलेखन ही नहीं है परंतु कल के नागरिकों को प्रेरणा और जीवन जीने का बल प्राप्त करने की कथा भी है।
यहां शिक्षा की पुस्तकों के सर्जक गिजुभाई की धर्मरूचि का दर्शन होता है। इतिहास के पुस्तक के पुष्ठों पर अमर हुए धर्मात्माओं के जीवन प्रसंग भक्ति और परंपरा से ओतप्रोत समृद्ध समाज का निर्माण करने में सफल रहेगा। महापुरुषों बच्चों के आदर्श पुरुष बनेंगे तब श्रेष्ठ नागरिक और उत्तम व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया को बल मिलेगा। सभी अभिभावकों के लिए पढ़ने लायक पुस्तक है।
शांत पळोमां (शांत पलों में)
गिजुभाई सामान्यत: बाल शिक्षा और बाल मानस के अभ्यास और लेखन के लिए समाज में प्रतिष्ठित है। किंतु ‘शांत पळोमां’ पुस्तक में गिजुभाई के नए रूप का दर्शन होता है। पुस्तक में सात्त्विकता और आध्यात्मिकता का समन्वय है। जीवन में आए चढ़ाव-उतार के अनुभव के बाद व्यक्ति जब अपनी ओर मुड़कर झांकता है तब ऐसी शांत पलें जीवन की थकान दूर करती है। भौतिक दुनिया में रत सभी के लिए यह पुस्तक पढ़ने लायक है।
गिजुभाई अपने जीवन में सतत प्रवृत्ति में व्यस्त रहे हैं फिर भी उनके अंतर्मन में हुई दिव्य अनुभूति और आध्यात्मिक झंखना का परिणाम यह पुस्तक है। पुस्तक की भाषा और प्रस्तुति गिजुभाई की अन्य पुस्तकों से भिन्न है। धीर गंभीर जल प्रवाह की तरह उनकी कलम और उनके आध्यात्मिक विचारों प्रवाहित होकर सबके मन को स्पर्श करते हैं।
भक्ति, करुणा, श्रद्धा, ईश्वर प्राप्ति की इच्छा, विरह और प्रकृति सौंदर्य का आलेखन कभी-कभी रवींद्रनाथ टैगोर की याद दिलाता है। विभिन्न विषयों पर छोटे-छोटे वाक्यों में विचारों का नवनीत प्रस्तुत किया गया है। जीवन और अध्यात्म के विचारों से सभर यह पुस्तक अभिभावकों के लिए लाभदाई बनेगी।
‘माबाप थवुं आकरूं छे’ (माँ–बाप बनना कठिन है)
इस पुस्तक में मां-बाप को उनके दैनंदिन कार्यों की व्यस्तता में बच्चों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए इसका सरल और सहज भाषा में परोक्ष सूचन किया गया है। बालक अनेकविध वर्तन करता है। इसके साथ कैसे काम करना इसका मां-बाप के पास कोई स्पष्ट ख्याल नहीं होता है। बहुत सारे व्यावहारिक प्रसंगों का आलेखन करके गिजुभाई ने मार्गदर्शन किया है।
पुस्तक में ३७ प्रकरण है। हर एक प्रकरण में घटनाएं और संवादों का समन्वय करके प्रश्नों और उसके समाधान की तकनीक का प्रयोजन किया है। कुटुंब प्रथा कितनी महत्त्व की है और इसके लिए क्या करना चाहिए वह भी बताया गया है। बच्चों को केवल जन्म देने से ही मां-बाप नहीं बन सकते किंतु इस दुनिया में बालक आता है इसके बाद दुनिया की परिस्थिति से अनुकूलन प्राप्त करने के लिए बालक के साथ किस तरह रहना चाहिए यह समझना जरूरी है। व्यक्तित्व निर्माण में मां-बाप की भूमिका अहम रहती है। यह कार्य कठिन है। मां-बाप को जागृत प्रहरी बनना है। बालक को हूंफ देनी है। बालक का रक्षक और पालक बनना है। बालक का सच्चा साथी और मार्गदर्शक भी बनना है।
यह पुस्तक मां-बाप के लिए मार्गदर्शिका है। बच्चे अपने मां-बाप के साथ खुले दिल से बात करते नहीं हैं। यदि मां-बाप अपने बच्चों की प्रवृत्तियों में रस लें, उसके छोटे-बड़े सुख-दु:ख के प्रति सहानुभूति दर्शाएं, उसने किए हुए काम की कदर करें तो बालक का मित्र बनना आसान है।
मां-बाप की लापरवाही से संतान अपने जीवन में दिशाहीन बनकर भटक जाते हैं। जरूरत पड़ने पर बालक को डांटना भी पड़े तो डांटना चाहिए मगर प्रेम से। मां और बाप के बीच का कलह बच्चें न जान पाए यह जरूरी है। बालक के दोष सबके बीच बताने नहीं चाहिए। ऐसी कई बातों का समावेश किया गया है।
मां-बाप के लिए यह पुस्तक अति महत्त्व की है। लालन-पालन के लिए सूत्रकथा भी है।
(लेखक अहमदाबाद-गुजरात से प्रकाशित “संस्कार दीपिका” गुजराती पत्रिका के संपादक है। )
और पढ़ें : गिजुभाई बधेका : शिक्षक और सर्जक