– गोपाल माहेश्वरी
प्राण छोड़े प्रण न तोड़े वीर कहलाते वही हैं।
काँच बिखरे टूट कर, हर चोट हीरे ने सही है।।
वह युग ही आश्चर्यजनक था। लोगों ने अपनी नौकरियाँ छोड़ी, विद्यार्थियों ने शालाएँ छोड़ दी, जीवन रहे न रहे, जीवन के साधन रहें या न रहें पर भारत माता को अंग्रेज़ी बेड़ियों से मुक्त करवाना ही है, ऐसा दृढ़ संकल्प हर भारतवासी के मन में समाया हुआ था। ‘सविनय अवज्ञा’ आन्दोलन महात्मा गाँधी का अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रभावी शस्त्र था। एक बड़ा वर्ग था देशवासियों का, जो स्वतंत्रता के हर संभव प्रयत्न में सहभागी होने को तैयार था। शांति से या क्रांति से, परन्तु स्वतंत्रता पाना है, यह लक्ष्य लेकर असंख्य आबाल-वृद्ध नर-नारी स्वातन्त्रय समर के नायकों में आस्था व विश्वास के साथ सहयोग कर रहे थे। ऐसे वातावरण में जब 4 जनवरी 1932 को महात्मा गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे बड़े नेताओं को अंग्रेज़ी शासकों ने जेल में डाल दिया तो सारा देश कसमसा उठा।
बड़े-बड़ों ने अपने स्तर पर जो बन पड़े, प्रयत्न किये कि इन नेताओं को कारागृह से मुक्त करवा सकें पर एक बालक ऐसा भी था जिसने अपनी शाला की मित्र-मण्डली के साथ अंग्रेज़ी सरकार के सामने विरोध प्रदर्शन करने की योजना बना डाली। नाम था लक्ष्मण जोशी, कक्षा दसवीं, स्थान महाराष्ट्र के सातारा के पास करद ग्राम।
उस दिन विद्यालय का अवकाश था। फिर भी वह सुबह-सुबह तैयार हो गया और माँ के चरण स्पर्श कर आशीष माँगा। माँ ने पूछा, “अरे! किस बात के लिए आशीर्वाद चाहिए?”
“भारत माँ के लिए।”
“भारत माँ के लिए” माँ ने आश्चर्य से पूछा।
“हाँ, महात्मा गाँधी को जेल से छुड़ाना है।”
माँ सोच रही थी कि इतना सा बच्चा, अभी मूँछ की रेखाएँ भी नहीं फूटी हैं और अंग्रेज़ सरकार से गाँधी जी को छुड़वाएगा। बच्चे की बात है, ऐसा समझकर वह हँसी और कहा- “अरे वाह! अच्छा देती हूँ तूझे खूब-खूब आशीर्वाद। बस?”
कुछ ही समय बाद लक्ष्मण की बाल मण्डली हाथ में तिरंगा और कंठ में नारे लिए नगर में घूम रही थी “महात्मा गाँधी को छोड़ दो।” “महात्मा गाँधी की जय।” “वन्दे मातरम्” के बाल स्वरों से गली-बाजार जाग्रत हुए। अंग्रेज़ सरकार का स्थानीय प्रशासन चौकन्ना हुआ। किसी ने सूचना दी “भागो! पुलिस आ रही है। सबको पकड़ लेगी।” कुछ साथियों ने भागने में भलाई समझी तो लक्ष्मण बोला “डरो मत! डटे रहो! हम कायर नहीं! हम नहीं भागेंगे।” पर सारे साथी बच्चे ही तो थे, जुलूस व नारेबाजी का रोमांच उन्हें खींच लाया था। पुलिस देखकर सब भाग खड़े हुए पर लक्ष्मण तिरंगा थामे अटल खड़ा रहा। अकेला, एकदम अकेला। पुलिस अधिकारी ने हाथ पकड़कर कड़कते हुए पूछा “कहाँ हैं तेरे साथी? कौन-कौन थे?”
“मैं नहीं बताऊँगा।”
अगला प्रश्न। उत्तर उतना ही धैर्य से “महात्मा गाँधी को जेल से छुड़ाने निकले हैं?”
पुलिस अधिकारी हँसा “ओ हो! तो आप छुड़ाएँगे गाँधी को!! चलो हम छुड़वाते हैं उसे।” उसने गाली देते हुए लक्ष्मण से झण्डा छीनना चाहा। लक्ष्मण ने पूरी ताकत से झण्डा पकड़ लिया “मैं झण्डा नहीं दूँगा।”
संकल्प दृढ़ था पर शरीर में इतनी ताकत तो नहीं थी कि उस हट्टे-कट्टे पुलिसवाले का सामना सफल होता। उस ने एक घूँसा मारा और झटके से तिरंगा छीन लिया। लक्ष्मण तड़प कर रह गया। वह पुलिस की पकड़ से छूटने के लिए छटपटाता-मचलता रहा पर अन्ततः थाने में बन्द कर दिया गया।
उस छोटे बच्चे की न रिहाई हुई न जमानत। बड़े-बड़े खूंखार कैदी भी घबरा जाएँ ऐसी यातनाएँ देकर भी पुलिस उसका मुँह न खुलवा सकी। न्यायालय ने छः माह के कठोर कारावास की सजा सुना दी। देश के लिए भावुक, वह एक विद्यार्थी ही तो था। जेल में दुर्दांत अपराधियों और भयानक वातावरण, खान-पान जानवरों जैसा। वह बीमार से और अधिक बीमार हो चला। बिना खाए पिये दुर्बल और पीला पड़ता गया। उसकी मुक्ति की हर पुकार पुलिस ने ठुकरा दी। अन्त में एक दिन पूना की यरवदा जेल में ही उसका जीवन समाप्त हो गया। लेकिन क्रूर पुलिस प्रशासन उससे उसके साथियों के नाम अन्त तक न जान सका।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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