देशभक्ति का अद्वितीय उदाहरण – अवंती बाई लोधी

 – डॉ. मंजरी गुप्ता

इतिहास गवाह है कि देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करवाने में अनगिनत लोगों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। इतिहास के पन्ने शहीदों की कुर्बानियों से भरे पड़े हैं, साथ ही कुछ ऐसे नाम भी है जो कहीं गुम हो गए, परंतु आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले बलिदानी सदैव अमर रहेंगे। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में पुरुषों के साथ महिलाओं का सक्रिय योगदान भी अविस्मरणीय है। महिलाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों के साथ आगे बढ़कर देश को आजादी दिलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय महिलाएं सदैव ही शक्ति का स्रोत रही है, आदर्श और साहस की प्रतिमूर्ति भारतीय महिलाएं समस्त विश्व में प्रेरणा का प्रतीक है। भारतीय वीरांगनाओं की गौरवपूर्ण गाथाएं भारत की धरा पर चारों दिशाओं में गूंजती हैं। ऐसी ही एक वीरांगना अवंतीबाई जिन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई का बिगुल बजाया।

अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज हुआ था जिसे सन 1857 की क्रांति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजों ने अपने कुचक्रों से भारतीयों पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत को उपनिवेश  में बदलने के लिए अनेक नीतियां अपनाई गई। गलत नीतियों के कारण किसानों व आदिवासियों को परेशानी का सामना करना पड़ा। जिसके फलस्वरूप सन1857 में विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग के लोग एकजुट हो गए तथा अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति आरंभ कर दी। यही 1857 की क्रांति के नाम से जानी जाती है। इस क्रांति में अनेक वीरांगनायें जिनमें रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, झलकारी बाई, ईश्वरी देवी, मैना कुमारी, अजीतन बाई, उदा देवी, अवंती बाई आदि ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

रामगढ़ की रानी अवंतीबाई लोधी ने सन 1857 की क्रांति में ब्रिटिशों के विरुद्ध अपनी वीरता का परिचय दिया था। भारत माता की इस अमर संतान ने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। इस वीरांगना की शौर्य गाथा बलिदान व देशभक्ति की एक अद्भुत मिसाल है, जो समस्त भारतवासियों को शौर्य पराक्रम व देशभक्ति की प्रेरणा देती है।

अवंती बाई का जन्म मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के मनकहणि गांव के जमींदार जुझार सिंह के घर 16 अगस्त, 1831 को हुआ। बचपन से ही अवंतीबाई विलक्षण प्रतिभा की कन्या थी, तलवारबाजी घुड़सवारी में पारंगत साहसी अवंती बाल्यकाल से ही बड़ी वीर थी। आसपास के समस्त क्षेत्रों में इनकी वीरता के किस्से प्रसिद्ध थे। अवंतीबाई का रिश्ता उनके पिता जुझार सिंह ने रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह से तय किया। यह रामगढ़ की रियासत की कुलवधू बनी।

सन 1850 में अवंतीबाई के ससुर राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के पश्चात विक्रमादित्य रियासत के नए राजा बने। राजा का पदभार संभालने के कुछ वर्षों बाद राजा विक्रमादित्य अस्वस्थ रहने लगे, जिस कारण राज्य का कार्यभार भी अवंती कंधों पर आन पड़ा। सन1851 से सन 1855 तक राज करने के बाद विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी। रानी के दोनों बेटे अमन सिंह व शेर सिंह के नाबालिग होने के कारण राज्य की संपूर्ण बागडोर संभालने का अवंती ने निर्णय लिया। विलक्षण प्रतिभा की स्वामिनी अवंतीबाई में अपनी योग्यता से राज्य संभाला जो अंग्रेजों को रास नहीं आया। ब्रिटिश राज का तत्कालीन गवर्नर जनरल डलहौजी था। इसके प्रशासन चलाने का तरीका साम्राज्यवाद से प्रभावित था। अपनी साम्राज्यवादी व राज्यों को हड़पने की नीतियों के तहत डलहौजी ने देश की रियासतों को अधिकार में लेना प्रारंभ कर दिया था। रियासत का उत्तराधिकारी यदि बालिग न होता तो हड़पने की नीति के अनुसार ब्रिटिश सरकार उसे अपने अधिकार में कर लेती थी। साथ ही रियासतों को हड़पने की नीति के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि जिन भारतीय शासकों की कंपनी के साथ मित्रता है अथवा जो राज्य ब्रिटिश सरकार के अधीन है, यदि उन शासकों का कोई उत्तराधिकारी पुत्र के रूप में नहीं है तो सरकार की आज्ञा के बिना संतान को गोद नहीं ले सकते। ब्रिटिश सरकार की रियासतों को हड़पने की नीतियों के अंतर्गत डलहौजी, कानपुर, झांसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, जबलपुर, उदयपुर, करौली इत्यादि रियासतों पर अधिकार कर चुके थे।

लार्ड डलहौजी के काल में राज्य विस्तार का कार्य तीव्र गति से किया जा रहा था। विक्रमादित्य के विक्षिप्त होने पर भी दोनों पुत्रों को उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता था, क्योंकि दोनों नाबालिग थे। इसी कारण राज्य की डोर रानी ने स्वयं संभाल ली। ब्रिटिश सरकार को जब रामगढ़ की स्थिति के बारे में पता चला तब रामगढ़ रियासत को ‘कोर्ट ऑफ वार्डस’ के अधीन कर दिया गया तथा शासन प्रबंध के लिए रानी की इच्छा के विपरीत तहसीलदार को नियुक्त कर दिया।  रामगढ़ के राज-परिवार को पेंशन दे दी गई। 13 सितंबर 1851 को रामगढ़ राज्य को ‘कोर्ट ऑफ वार्डस’ के अधीन कर दिया गया। अपने इस अपमान से रानी खून का घूंट पीकर रह गई तथा प्रतिज्ञा ली कि जब तक देश को स्वाधीनता न करा लेगी तब तक चैन से नहीं बैठेगी। रानी घायल शेरनी की तरह समय की प्रतीक्षा कर रही थी। अवंतीबाई का अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध भारत की आजादी में विशेष योगदान रखता है। इसी बीच राजा विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई तथा समस्त राज्य का कार्यभार रानी ने संभाल लिया। अवंतीबाई को अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं थी तथा अंग्रेजों द्वारा शासक प्रबंधक को बाहर निकाल उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध करने की घोषणा कर दी। इस समय ‘सागर’ एवं ‘नर्मदा परिषद’ के साथ अंग्रेजों की शक्ति में विस्तार हुआ।

अंग्रेजों की शक्ति का मुकाबला करने के लिए रानी ने राज्य के समीपस्थ राजाओ, जमींदारों और बड़े मालगुजारो को रामगढ़ में एकत्रित कर सभा का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता गढ़ पुरवा के राजा शंकर शाह ने की। इस गुप्त सम्मेलन में प्रचार का दायित्व रानी को मिला रानी ने एक पत्र और दो काली चूडियों की एक पुड़िया प्रसाद के रूप में वितरित की। पत्र में लिखा था, “देश और आन के लिए मर मिटो या चूड़ियाँ पहन लो। तुम्हे धर्म ईमान की सौगंध है जो इस कागज़ का पता दुश्मन को दो।” जहां पत्र ने राजाओं को कर्तव्य का बोध कराया वही चूड़ियां देखकर राजाओं का पौरूष जाग उठा।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अवंतीबाई ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए खेड़ी गांव के समीप मंडला में अंग्रेजी सेना को परास्त किया। अपनी हार से अंग्रेज बौखला गए। रानी ने मंडला के अंतर्गत खेड़ी नामक ग्राम के पास अपनी व्यूह रचना की वह मंडला पर आक्रमण करना चाहती थी। परंतु अंग्रेजी सेनापति वडिंगटन अवंती के साथ युद्ध करने आ पहुंचा। अदम्य साहस की प्रतीक वीरांगना अवंती की तलवार बिजली से भी तेज चमकी व शत्रु का सफाया करने लगी। अवंती बिजली की गति से शत्रु की सेना का संहार कर रही थी। युद्ध में सेनापति वडिंगटन ने रानी को घेरने का प्रयास किया, परंतु रानी ने अपनी समस्त शक्ति के साथ वडिंगटन के प्रयास को विफल कर दिया तथा रानी के एक तेज प्रहार के द्वारा वडिंगटन के घोड़े की गर्दन कट गई जिससे वह घबराकर भाग खड़ा हुआ। रानी ने साहस पूर्वक युद्ध लड़ा और असंख्य सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। मंडला का डिप्टी कमिश्नर वडिंगटन मैदान छोड़कर भाग गया तथा युद्ध में  रानी अवंतीबाई विजय हुई, मंडला रानी के अधिकार में आ गया।

मंडला का डिप्टी कमिश्नर वडिंगटन अपनी पराजय का बदला रानी अवंती से लेना चाहता था। एक विशाल  ब्रिटिश सेना के साथ वाडिंगटन ने रामगढ़ पर चढ़ाई कर दी। रानी अवंती की सेना अंग्रेजी सेना के समक्ष छोटी थी परंतु सेना के साहसी सैनिकों ने रानी के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना का बहादुरी से मुकाबला किया। अंग्रेजी ब्रिटिश सेना में सैनिकों की संख्या एवं युद्ध सामग्री बहुतायत से थी। विशाल सेना का मुकाबला असंभव था। अतः परिस्थिति वश रानी किले के बाहर देवहारगढ़ की पहाड़ियों की तरफ प्रस्थान कर गयी। अवंतीबाई के रामगढ़ किले को छोड़ देने के पश्चात ब्रिटिश सेना ने रामगढ़ के किले को ध्वस्त कर दिया।

जब अंग्रेजी सेना को यह पता चला कि रानी देवहारगढ़ की पहाड़ियों पर है, तो वह भी पहाड़ियों पर पहुंच गए जहां रानी ने अपनी सेना के साथ मोर्चा संभाल रखा था। अंग्रेजों ने रानी को आत्मसमर्पण का संदेश भिजवाया परंतु अवंती को यह स्वीकार न था। रानी ब्रिटिश सेना के समक्ष किसी भी प्रकार हथियार डालने के पक्ष में ना थी। उसने अंग्रेजों को संदेश भेजा कि “अगर लड़ते-लड़ते बेशक मरना पड़े तो मरना स्वीकार है, लेकिन अंग्रेजों के भार से नहीं दबूंगी”। कई दिनों तक रानी व अंग्रेजी सेना के मध्य युद्ध चलता रहा जिसमें उत्तर भारत के कुछ राज्यों और रीवा-नरेश की सेना ने अंग्रेजों का साथ दिया। अवंतीबाई की छोटी सेना ने अंग्रेजों से साहस पूर्ण जमकर युद्ध किया। युद्ध में रानी के अनेक सैनिक घायल हो गए। जब रानी को लगा कि चारों तरफ से घिर चुकी है तो वीरांगना ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए अपने अंगरक्षक की तलवार छीन कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। अपने सीने में तलवार भोंकते हुए अवंती ने कहा था कि “हमारी दुर्गावती ने जीते जी बैरी के हाथ से अंग ना छुए जाने का प्रण लिया था इसे ना भूलना”।

रानी ने 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। बलिदान के एक दिन बाद 21 मार्च 1858 को अंतिम संस्कार किया गया। रामगढ़ राज्य अंग्रेजो के आधीन हो गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जो देशभक्ति की अग्नि रानी ने जो प्रज्वलित की थी वह सारे भारतवर्ष में फैल गई। निसंदेह अवंतीबाई लोधी का जीवन संघर्षशील था, परंतु इतिहास में अदम्य, साहस, वीरता व राष्ट्रभक्ति की एक अद्वितीय मिसाल समस्त भारतवासियों के समक्ष अवंती बाई लोधी ने प्रस्तुत की है। वीरांगनाओं की श्रंखला में अवंतीबाई का नाम सदैव देदीप्यमान रहेगा। अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथा लिखने वाली ऐसी वीरांगना का जीवन सदैव अनुकरणीय है।

(लेखिका शहीद भगत सिंह (सांध्य) कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेन्ट प्रोफेसर है।)

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