शांति घोष-सुनीति चौधुरी

धन्य वे शिक्षक, सिखाते देश पर बलिदान होना।

राष्ट्र पहले बाद में हम, ध्येय के हित प्राण खोना।।

आपने विद्यालय के प्रधानाचार्य से उनके कक्ष में विद्यार्थियों को बुलाकर बात करने का दृश्य देखा ही होगा लेकिन मैं जिस घटना से आपका परिचय करवा रहा हूँ वहाँ प्रधानाचार्य और छात्रों के बीच की बातचीत का विषय चौंका सकता है। बच्चे भी कितना खतरा उठाकर बड़े से बड़ा काम कर सकते हैं, यह भी इससे सीखने को मिलेगा।

त्रिपुरा के जिला मुख्यालय-कोमिल्ला का वह एक बालिका विद्यालय था, नाम था फैजुन्निसा गर्ल्स हाई स्कूल। प्रधानाचार्या कल्याणी देवी विद्यालय की आठवीं कक्षा की दो छात्राओं से बात कर रही हैं। एक है शांति घोष और दूसरी सुनीति चौधुरी। उम्र है चौदह-साढ़े चौदह वर्ष। चर्चा का विषय न पढ़ाई है न विद्यालय का कोई आयोजन बल्कि वे चर्चा कर रही हैं जिला मजिस्ट्रेट स्टीवेंस के सीमातीत अत्याचारों की। सायं सात बजे के बाद घर से न निकलना, सोलह वर्ष से बड़े नागरिकों को बिना परिचय पत्र न निकलना। चप्पा-चप्पा पुलिस की निगरानी में। विद्यालय तक पर पुलिस का पहरा। जन-जीवन पूरी तरह असामान्य व त्रास भरा हो गया। स्वतन्त्रता के प्रयत्नों को अपने प्रति विद्रोह बता कर अंग्रेज़ी शासक सामान्य भारतीयों को ऐसे ही भयाक्रान्त किया करते थे। इस आतंक से मुक्ति का एक ही उपाय था, दुष्ट स्टीवेंस को यमलोक पहुँचा देना।

अत्याचारी बाहर से कितना भी भयभीत करने वाला दिखे, अन्दर से वह स्वयं बहुत डरा हुआ रहता है। स्टीवेंस का भी यही हाल था। उसका बँगला चारों ओर लोहे के कँटीले तारों की दोहरी बाड़ से घिरा हुआ था। हर पल सशस्त्र पहरेदार उसकी रक्षा में तैनात रहते। वह घर से ही कार्यालय चलाता। बाहर बहुत कम ही जाता था और बँगले पर उससे भेंट भी कड़ी जांच-पड़ताल के बाद ही हो पाती थी। उसे मारने का बीड़ा कई क्रांतिकारी उठा चुके थे। सरकार को इस आशय की धमकियाँ भी मिलती रहतीं पर सफलता अभी तक न मिली थी।

“जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार” की सूक्ति आज एक नए अर्थ में चरितार्थ हो रही थी। शांति और सुनीति ने इस काम की जिम्मेदारी ली। उनकी प्रधानाचार्या कल्याणी देवी के पिता श्री वेणीमाधव दास जी सुभाष चन्द्र बोस के गुरु रहे थे और छोटी बहिन वीणा दास बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को मृत्यु के सुपुर्द कर 13 वर्ष का कारावास काट रही थी। जैसा गुरु वैसे ही चेले। कल्याणी देवी अपनी छात्राओं में स्वतंत्रता की भावना कूट-कूट कर भरती रहती थी।

सन् 1931 के 14 दिसम्बर की ठण्डी सुबह थी। विद्यालय वेश में इन दोनों छात्राओं ने पहरेदार को बताया- “हमें जिला मजिस्ट्रेट साहब से मिलना है?”

‘किसलिए मिलना है?’ संतरी ने पूछा।

“हमारे विद्यालय की तीन मील तैराकी की स्पर्धा का आयोजन है। हमें उस दिन नदी में स्टीमर, मोटरबोट, नावां के आने-जाने पर रोक लगाने के लिए निवेदन करना है।” कहते हुए शांति ने एक प्रार्थना-पत्र निकालकर बताया। छोटी बच्चियों और उनके काम को देखकर उन्हें अन्दर जाने की अनुमति मिल गई। बच्चियाँ हैं, सोचकर कोई खास तलाशी भी न हुई और वे स्टीवेंस के कार्यालय के प्रतीक्षा कक्ष में जा पहुँचीं। उन्होंने पर्ची पर नाम लिखे ‘इला सेन’ व ‘मीरा देवी’ और अन्दर भिजवा दिया। अन्दर से बुलावा आया तो जाकर आवेदन प्रस्तुत कर दिया। स्टीवेंस ने पढ़ा। हल्के से मुस्कुराया और बोला- “इसे प्रधानाचार्य से पहले अग्रेषित तो करवाओ फिर हमें देना।”

“जी सर!” कहते-कहते शांति ने खुजली के बहाने बगल में दबी पिस्तौल निकाल ली। स्टीवेंस तो आवेदन पर ‘प्रधानाचार्य अपना अभिमत दें’ लिखता हुआ झुका हुआ था पर उनको तो अभिमत कुछ और ही मिला हुआ था। सुनीति ने भी पिस्तौल निकाली और स्टीवेंस पर अचूक निशाना लगा दिया। वह लुढ़का पड़ा था। गिरफ्तारी हुई। अवयस्क होने से मौत की सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। वे अंधेरी काल कोठरी में समा गईं  पर देश में अपना नाम कर गईं।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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