✍ अनिल रावल
20वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का कार्य शुरू हो गया था। विद्यालय में विद्यार्थियों को केवल साक्षरी ज्ञान दिया जाता था जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि न हो पाए। ऐसे विद्यार्थी बड़े होकर सिर्फ क्लर्क ही बने ऐसी शिक्षा प्रणाली समाज में प्रर्वतमान थी। विद्यालय में ऐसी शिक्षा के लिए आचार्य भी इसी प्रकार की मानसिकता से तैयार किए गए थे। विद्यार्थियों के लिए कक्षाकक्ष छोटी सी जेल के समान था। उन्होंने केवल शिक्षक के द्वारा दी गई सूचना का सिर्फ पालन करना था। कक्षाकक्ष में शिक्षक बोलता था और विद्यार्थी सुनते थे एवं सुनकर सूचना अनुसार कार्य करते थे। यह एकमार्गीय प्रत्यायन था। यदि कोई विद्यार्थी को कुछ समझ न पड़े तो भी वह शिक्षक को कुछ पूछ नहीं सकता था। यदि उसको कुछ याद ना रहता या समझ नहीं पड़ती तो रटन करना तैयार करना था। रटन करने की पद्धति शुरू हुई थी।
मुक्त वातावरण में पढ़ने की गुरुकुल परंपरा का सदंतर लोप हो गया था। उस समय की शिक्षा प्रणाली जड़वत थी और विद्यालय के बच्चों उछलते, कूदते, शक्ति से भरे जीवंत थे। उन्हें विद्यालय में खेलना था। मगर खेल नहीं सकते थे। मुंह पर अंगुली रखकर चुप रहना था और पढ़ना था। अभ्यास में गीत या कहानी का तो कोई स्थान ही नहीं था। विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास हो ऐसी कोई कल्पना उस समय थी ही नहीं।
ऐसे समय पर गिजुभाई बधेका का शिक्षक के रूप में प्रवेश हुआ। वैसे तो वह व्यवसाय से वकील थे किंतु वकालत छोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में आए। उन्होंने मैडम मोंटेसरी की शिक्षा पद्धति का अध्ययन किया और उसका भारतीय स्वरूप दिया। मूल्यवान खिलौने के स्थान पर अच्छे और सरलता से बन सके ऐसे खिलौने शैक्षणिक उपकरणों का उन्होंने सृजन किया। भारतीय परिवेश में बालकों की इंद्रियों के विकास के लिए और उनकी सृजनशक्ति के पोषक खिलौने तैयार करवाए।
उन्होंने कक्षाकक्ष में विद्यार्थियों की मूक पीड़ा का अनुभव किया। विद्यार्थी के व्यक्तित्व का 360° विकास हो इसलिए एक नई शिक्षा प्रणाली का आरंभ किया।
गिजूभाई ने मोंटेसरी के तीन सिद्धांतों पर व्यापक फलक पर कार्य किया। वह तीन सिद्धांत कहानी, स्वयंस्फूर्णा और स्वाश्रय थे। गिजुभाई विद्यालय में बिना रोकटोक सभी विद्यार्थियों को स्वतंत्र काम करने देते थे। इंद्रिय विकास और बौद्धिक विकास के लिए रमतों के साधन बच्चों को देकर वर्ग में बिठाते थे और स्वयं कुछ कहे बिना बच्चों का निरीक्षण करते थे। विद्यार्थियों को स्वतंत्रता देने से उनमें अपने आप स्वयं शिष्टाचार का निर्माण होता है और अंत में वह स्वतंत्रता जीवन व्यवहार में शिष्टाचार में परिवर्तित होती है। हर एक बालक एक छोटा सा मनुष्य है। उनका अपना निजी व्यक्तित्व है। उनकी अपनी शक्ति है और उनकी अपनी अभिव्यक्ति भी है। इसीलिए शक्ति और अभिव्यक्ति का ऊर्ध्विकरण हो ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास उन्होंने किया।
हर बालक में क्रियात्मक, ज्ञानात्मक और भावनात्मक वृत्ति होती है। उसे उसकी स्वाभाविक पहचान भी होती है। गिजुभाई ने इस वृत्ति को विकसित करने के लिए बुद्धि के विषयों पढ़ाने से पहले हृदय के विषयों को स्थान दिया। उन्होंने प्रवृत्ति के द्वारा कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय को बढ़ावा दिया। इसके कारण बालकों प्रवृत्तियों में एकाग्र हो जाते थे। बालक स्वयंस्फूर्णा से निर्णय करते थे। उनके आसपास की स्थिति को भूलकर अपनी प्रवृत्ति में लीन हो जाते थे और ऐसी स्वस्थ प्रवृत्ति से सर्जनात्मक प्रवृत्ति करते थे।
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गिजुभाई ने बच्चों पर होते अत्याचार व मारपीट को बंद किया। वह मानते थे कि संस्कार की प्रक्रिया पर जगत की सुख-शांति का आधार है। यदि हमें विश्व में शांति का वातावरण बनाना है तो बचपन से ही बच्चों के जीवन में प्रेम, करुणा और स्वतंत्रता का स्थान देना चाहिए। उसको मारपीट और भय से दूर रखना चाहिए।
उनकी शिक्षा प्रणाली तत्वज्ञान और आध्यात्मिकता तक पहुँच सकती थी। परिणामत: बालक में उच्च संस्कार का प्ररोपण होता था। वे मानते थे कि यदि विश्व में से हिंसा और आतंक को विदाई देनी है तो विद्यालय में शारीरिक दंड देना बंद करना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि बच्चों को इनाम देने की प्रथा नहीं होनी चाहिए। इनाम बच्चों में प्रलोभन पैदा करता है और इसमें से अनेक अनिष्टों का बीजारोपण होता है।
गिजुभाई ने बच्चों को स्वयं की सफाई का पाठ सिखाया। अपने नाखून काटने, बाल बनाने, साफ रहना, तन की सफाई के लिए भी उन्होंने जोर दिया। विद्यालय में सफाई करना, पानी भरना, बागायती काम करना, कक्षाकक्ष के खिलौने या वस्तुओं को स्वयं अपनी तरह से ठीक से रखना यह सब प्रवृत्तियों से बच्चों को आरंभ से ही स्वावलंबी होने की प्रेरणा दी। इससे परिणाम यह आया कि बच्चों में स्वयं अनुशासन का विकास हुआ।
गिजुभाई अपने विद्यार्थियों को आसपास के परिसर में पर्यटन के लिए ले जाते थे। नदी, तालाब, प्राणीघर, ऐतिहासिक स्थलों, वन, उपवन, मंदिर जैसे स्थानों के भ्रमण द्वारा उन्होंने शिक्षण दिया। शिक्षा का माध्यम प्रवृत्ति होनी चाहिए और वह प्रवृत्ति बच्चों को पसंद होनी चाहिए। भय या लोभ से बच्चों का स्वाभाविक विकास होता नहीं है। इससे मन का स्व-तंत्र प्रस्थापित हो नहीं सकता। इसीलिए गिजूभाई ने प्रचलित शिक्षा प्रणाली को त्याग कर नई शिक्षा प्रणाली अपनाई। उन्होंने कहानी, अभिनय गीत, नाटक और खेल के माध्यम से पढ़ाने का आरंभ किया। उन्होंने कहानियां और बाल अभिनय गीतों से बाल मंदिरों का भावावरण निर्माण किया। उन्होंने कहानियों को नाट्य स्वरूप दिया। बच्चों के साथ वे स्वयं नाटक में प्रतिभागी होते थे। वार्ता कथन के माध्यम से उन्होंने व्यक्ति विकास के इष्ट परिणाम प्राप्त किये।
उन्होंने खेलकूद के माध्यम से चरित्र गठन का पर बल दिया। वार्ता कथन, आदर्श वाचन, खेल, वाचनालय, श्रुत लेखन, कविता श्रवण, प्रार्थना, स्वच्छता के माध्यम से विद्यार्थियों में शिष्टाचार का निर्माण किया। वे मानते थे कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन होता है। खेलने से बुद्धि निर्मल होती है और क्रिया शक्ति बढ़ती है। उन्होंने इतिहास जैसे विषयों को कहानी के माध्यम से बच्चों को सिखाया। भाषा शिक्षण अपने ढंग से अलग पद्धति से सीखाने की शुरुआत की। वह बच्चों को व्याकरण पढ़ाते थे तब व्याकरण के शास्त्रीय स्वरूप और व्याख्या में बच्चों को न ले जाकर प्रायोगिक रूप से पढ़ाते थे। उन्होंने व्याकरण के चार्ट्स, प्ले कार्ड और कुछ रमत के साधनों का निर्माण किया, जिसके द्वारा विद्यार्थियों अपने आप व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करते थे। उन्होंने देखा कि वार्ता केवल मनोरंजन ही नहीं है बल्कि बालक के शिक्षण के लिए एक असर कारक माध्यम है। उन्होंने कौन सी उम्र के विद्यार्थियों को कैसी कहानी कहनी चाहिए, कहानी के कैसे विषय पसंद करने चाहिए इसका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वर्गीकरण किया और कक्षाकक्ष में इसका कैसे तरह से उपयोग हो वह भी बताया।
गिजुभाई की बाल शिक्षण की पद्धति वास्तव में बच्चों में अनौपचारिक तरीके से राष्ट्रप्रेम जागृत करने की प्रक्रिया थी। वह मानते थे कि बच्चों को बाल्यावस्था से ही पता होना चाहिए कि मैं, मेरा परिवार या समाज का अर्थ राष्ट्र नहीं है किंतु यह समग्र प्रकृति, वनस्पति, पशु-पक्षी व जीव सृष्टि भी राष्ट्र का एक अंग है और उसके प्रति समभाव और प्रेम प्रकट हो इसीलिए बचपन से ही कुदरत के साथ बच्चों को निकट लाना चाहिए और शिक्षा प्रणाली में इसका सघन प्रयोग होना चाहिए। उनकी शिक्षा प्रणाली में प्रकृति का सान्निध्य और इसके द्वारा प्रकृति के प्रति प्रेम और राष्ट्र प्रेम का निरूपण हो यह अनिवार्य था। उन्होंने गीतों, कहानियों और अपनी धरोहर की कथाओं का उपयोग करके विपुल साहित्य का निर्माण किया, जिसके द्वारा उत्तम नागरिक निर्माण करने की प्रक्रिया शुरू हुई। उन्होंने उत्तम प्रकार की शिक्षा सभी बच्चों को मिले इसके लिए सुंदर एवं स्वच्छ विद्यालय का आग्रह किया। बच्चों में समूह भावना का विकास हो और स्वावलंबन और स्वनियमन का निर्माण हो इसीलिए पूर्ण स्वतंत्रता देने के लिए अनेक कार्यक्रमों किए।
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गिजुभाई ने देखा कि बालक बाल मंदिर में तो सिर्फ तीन घंटा ही रहता है शेष पूरा समय अपने परिवार के साथ अपने घर में रहता है। जो 3 घंटे का शिक्षण विद्यालय में दिया जाता है उसका प्रभाव घर पर जाने के बाद शून्य हो जाता है क्योंकि घर का वातावरण अलग होता है। गिजुभाई ने अभिभावकों का संपर्क किया। गाँव में अभिभावकों की सभा की। उन्होंने अभिभावकों को घर पर किस तरह बच्चों के साथ काम करना उनकी समझ दी। उन्होंने अभिभावक संपर्क और अभिभावक सभा को बाल मंदिर की शिक्षा का ही एक भाग माना है। उन्होंने माता-पिता का मेला भी किया जिसमें उनके ही बच्चों द्वारा नाटक और प्रदर्शन प्रस्तुत किए। अभिभावकों को गिजुभाई की नई शिक्षा पद्धति की बात विचित्र लगती थी। ऐसे कैसे पढ़ाया जा सकता है ऐसी शंका उनके मन में रहती थी फिर भी गिजुभाई बिना थके अपनी बात कहा करते थे और अपने प्रयोग करते रहते थे। वह अभिभावकों को शाला में बुलाते थे, उन्हें पत्र भी लिखते थे, उनके घर जाकर उनसे भेंट भी करते थे और इस पद्धति से अपना अभिगम समझाने का प्रयत्न करते थे।
गिजुभाई को लगा कि नई शिक्षा प्रणाली के लिए शिक्षकों को भी तैयार करना चाहिए इसीलिए उन्होंने अध्यापन मंदिरों का भी निर्माण किया। सन 1920 में उन्होंने दक्षिणामूर्ति संस्था में बाल मंदिर शुरू किया और उसका नेतृत्व भी संभाला। उन्होंने देखा कि विद्यालय में हर बच्चे का अपना स्वभाव है। अपनी अलग-अलग आदतें हैं। वह तीन घंटे एक कक्ष में बंध जाता हैं। उनके वर्ग में प्रतिदिन नए प्रश्न आते थे। उसके लिए वह नए-नए तरीके ढूंढते थे। वे स्वस्थता से अपने विद्यालय के बच्चों की प्रवृत्ति और उनके वर्तन का निरीक्षण करते थे। हर बच्चे के निरीक्षण से उसके व्यक्तित्व को समझने का प्रयत्न करते थे। वे सामान्य व्यक्ति जितना ही मान-सम्मान छोटे बच्चों को देते थे। उनके मतानुसार बाल शिक्षण स्वतंत्र भारत की नींव रखने का कार्य है।
गिजुभाई बाल शिक्षा के शास्त्रज्ञ और मर्मज्ञ थे। वे मानते थे कि ‘अभय, सत्य और प्रेम’ शिक्षा का केंद्र बिंदु होना चाहिए। यह तीन बातें बच्चों को बाल्यावस्था से ही सीखानी चाहिए और इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन होना चाहिए। उन्होंने अपने विद्यालय में अलग-अलग तरीके से प्रयोग किये। बालकों में छुपी हुई सुषुप्त शक्तियों का ऊर्धीकरण किया। उनकी बाल मानस की गहरी समझ के कारण गुजरात में बाल शिक्षण की विज्ञानशुद्ध पद्धति का निर्माण हुआ। उनके पुरुषार्थ से गुजरात में नूतन बाल शिक्षा का आंदोलन शुरू हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में एक महान शिक्षक के रूप में गिजुभाई चिरकाल तक स्मरणीय रहेंगे।
(लेखक अहमदाबाद-गुजरात से प्रकाशित “संस्कार दीपिका” गुजराती पत्रिका के संपादक है।)
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