स्वतंत्रता संग्राम और बिरसा मुंडा का बलिदान

 – मनोज कुमार

15 नवंबर 1857 को उलीहातू गांव (आज के खूंटी जिले) के अंतर्गत जन्म के उपरांत पूजा पाठ की विधि के पश्चात जब नदी में पूजन सामग्री, दोना (पत्ते की कटोरी जैसी) बहाया गया तो वह दोना नदी की धारा के विपरीत बहने लगा। आश्चर्य के साथ भविष्यवाणी की गई कि एक महान बालक का जन्म हुआ है और यह समाज के लिए महान कार्य करेगा। माता करमी एवं पिता सुगना मुंडा के घर में एक बालक ने जन्म लिया था। नामाकरण बिरसा मुंडा के रूप में किया गया। बिरसा तीन भाई और दो बहनों के परिवार में चौथी संतान के रूप में था।

अत्यंत गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो सकती थी। बिरसा जंगलों में गाय बकरी आदि चराया करता था। मामा ने अयूबहात गांव में जो खूंटी के ही समीप था बिरसा को रखा तथा पास के एक गांव से सटे गांव बरखा में प्राथमिक शिक्षा हेतु इन्हें भेजा। GEL चर्च मिशन का यह स्कूल था। इनके शिक्षक का नाम जयपाल नाग था। बिरसा बचपन से ही मेधावी थे। स्कूल में पढ़ाए गए विषयों का अभ्यास कॉपी कलम के अभाव में बालू पर करते थे।

प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाई के बाद मिडिल स्कूल में पढ़ाई के लिए उन्हें बुर्जू गांव के विद्यालय जयपाल नायक के द्वारा भेजा गया। बुर्जू गांव के समीप ही खटंगा गांव में अपनी मौसी के घर पर रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। यहां उन्हें इसाई बना दिया गया तथा उनका नाम दाऊद बिरसा रखा गया। इस समय उनकी आयु 13 वर्ष की रही होगी। इधर गरीबी एवं शिक्षा के कारण इनके माता-पिता भाई-बहन आदि भी जैसे तैसे अपना जीवन यापन कर रहे थे। इन्हें भी इसाई बना दिया गया था। अपनी रोजी-रोटी की तलाश में इनके माता-पिता इधर-उधर घूम कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।

बिरसा के बुद्धि एवं चातुर्य को देखकर बुर्जू मिडिल स्कूल के शिक्षकों ने इन्हें चाईबासा (पश्चिम सिंहभूम) के चर्च के स्कूल में दाखिला करा दिया। एक दिन छात्रावास में गौ मांस परोसा गया जिसका उन्होंने विरोध किया। उनके प्रचंड विरोध के कारण उन्हें छात्रावास एवं विद्यालय से निकाल दिया गया। निष्कासन के बाद वे अपने घर लौटे तथा मिशनरी से तंग आकर वैष्णव पंडित आनंद पांडे, बंदगांव के संपर्क में आए। उन्होंने जनेऊ धारण किया, शिखा रखना प्रारंभ किया तथा तुलसी माला एवं चंदन टीका लगाने लगे। पूरा संस्कार ही बदल चुका था। अंदर ही अंदर अंग्रेजों एवं उनकी व्यवस्था के प्रति आग सुलग रही थी।

बालक बिरसा ने चर्च की व्यवस्था एवं अंग्रेजों के दमनकारी, शोषणकारी नीतियों को देखा था। वह मुंडा समाज के लोगों के साथ साथ अन्य जनजाति समाज के लोगों को रूढ़ियों, अंधविश्वास एवं कुरीतियों से निकालकर दूर ले जाना चाहते थे। बिरसा ने इसका विरोध किया तथा लोगों को संगठित कर चर्च एवं अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। पादरियों के द्वारा उनके समाज की निंदा उन्हें काफी आहत करती था। वैष्णव बनने के पश्चात उन्हें हिंदू धर्म के पुस्तकों ग्रंथों का अध्ययन करने का अवसर आनंद पांडे ने दिया। वह बाइबिल एवं इसाईयत की तुलना हिंदू धर्म से कर लोगों के घर वापसी में सहयोगी बने। उनके अनुयायियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। अंग्रेज घबरा गए। चूंकि यह सब उनके सरकार के विरुद्ध था अतः बिरसा को पकड़कर सबक सिखाने की योजना बनने लगी।

आनंद पांडे के साथ उन्होंने अपने जीवन के 3 वर्ष बिताए। उस समय भयंकर अकाल पड़ा था। लोग बीमार हो रहे थे। भूखे मर रहे थे। जंगल में एक दिन एक घटना घटी जिससे बिरसा पूरी तरह बदल गए। उन्हें आभास हुआ कि उनके अंदर एक अज्ञात शक्ति ने प्रवेश किया है। वह शक्ति स्फूर्ति से भर गए हैं, उन्हें लगा कि उसे कोई मार नहीं सकता। बिरसा ने घोषणा की कि धर्म की पुकार सभी सुनेंगे, “मुंडा जाति ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ाई लड़ेगा”।

बिरसा की नींद एवं चैन सब गायब हो चुके थे। मन में अंतर्द्वंद था। स्वप्न में उन्होंने देखा कि धरती माँ सिसक रही है, बोल रही है, “अंग्रेज तुम्हारा सब कुछ छीन लेंगे, बाप जैसे अपनी बेटी की रक्षा करता है, तुम भी मेरी रक्षा करो, मुझे अपमानित होने से बचा लो बिरसा।” कहते हैं स्वप्न में बिरसा ने एक बूढ़े व्यक्ति को भी देखा था। बिरसा के समझ में आ गया था कि वह कोई और नहीं ‘हरम होडो’ मुंडा समाज का आदि देवता था। एक रात वर्षा और बिजली की कड़क के बीच बिरसा अपने अनुयायियों के साथ ढोल नगाड़े बजाते हुए अपने घर के पास दोनों हाथ ऊपर किए खड़े हो गए। ढोल नगाड़ा सभी को रात्रि में विचलित कर रहा था। माता करमी दरवाजा खोलती है तो सामने बिरसा को अनेक लोगों के साथ देखा। बिरसा ने वहां ऊंचे स्वर में घोषणा की, “मैं बिरसा नहीं धरती आबा हूँ, पृथ्वी मेरी संतान है, मैं मुंडा को मरने और मारने सिखाऊंगा।” नगाड़ा जोर जोर से बजने लगा।

सन 1884-85 में लोगों ने बिरसा को धरती आबा यानी (पिता)स्वीकार कर लिया। बिरसा दुर्भिक्ष के समय जिसको छूते थे वह बीमारी से उबर जाते थे। बिरसा के पास जो भी व्यक्ति अपनी समस्या लेकर आता था बिरसा उसका समाधान निकालते थे। सिंगबोंगा (सूर्य) पर बिरसा का बहुत विश्वास था। बिरसा ने समाज में धर्म, शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य एवं राजनीति में एक साथ व्यापक क्रांति की घोषणा कर दी। लोगों का विश्वास और श्रद्धा बिरसा पर बढ़ने लगा। लोग इन्हें भगवान बिरसा कह कर बुलाने लगे।

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वनवासी अपने परंपरागत हथियार चलाने में माहिर होते हैं। कुल्हाड़ी फेंक कर वार करना तीर धनुष से शिकार करना। तलवार आदि से प्रत्यक्ष आमने सामने लड़ाई करना इनकी आपातकालीन विशेषता होती है। बिरसा ने ऐसे ही निर्भीक एवं जुझारू युवाओं का संगठन अपनी संस्कृति एवं धर्म के आधार पर करना शुरू किया तथा ब्रिटेन के शासन को चुनौती दी। बिरसा के घर पर हथियारों का जमावड़ा शुरू हो गया। इनके दूसरे मित्र भी इस काम में आगे बढ़ चढ़कर भाग लेने लगे। गुरुओं के घर अंग्रेजों के विरुद्ध बैठक तथा सभाएं होने लगी। पुरोहित खुले विद्रोह पर उतर आए। लोगों में जागृति फैलाने का काम समाज के पुरोहितों ने किया। युवाओं की भारी फौज बिरसा के साथ आ गई। वनवासियों ने भूमि बेदखली साहूकार, जमींदार और अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर मोर्चा संभाला।

बिरसा मुंडा का प्रधान सेनापति गया मुंडा था। वह एटके गांव, खूंटी के ही समीप का रहने वाला था। उन लोगों ने पहला आक्रमण खूंटी थाने पर किया। उन्होंने गिरजा घरों पर भी आक्रमण कर अंग्रेजों को भयभीत कर दिया। पादरी हॉफमैन ने सरकार को बिरसा के विरुद्ध सतर्क कराया। उन्होंने यहां तक कहा कि बिरसा ने सभी पादरियों की हत्या की योजना बना रखी है। अंग्रेजी शासन ने सशंकित होकर रात के अंधेरे में 22 अगस्त 1885 को सोते बिरसा को गिरफ्तार कर लिया तथा उसे साधारण व्यक्ति साबित करने के लिए खूंटी में खुली कोर्ट लगाने की घोषणा की। बस क्या था – ‘धरती आबा’ के दर्शन करने अपार जनसमूह एकत्रित हो गया। अंग्रेजों के विरुद्ध नारे लगने लगे। कोर्ट नहीं लग पाया। एकतरफा निर्णय सुनाकर बिरसा मुंडा को 2 वर्ष की सश्रम सजा सुनाई गई। उन्हें हजारीबाग जेल में रखा गया।

30 नवंबर 1897 को बिरसा मुंडा जेल से वापस आए। जेल से वापस आने के बाद बिरसा ने अनेक गांवों एवं कस्बों का भ्रमण कर संगठन को खड़ा ही नहीं किया अपितु इसे मजबूती भी प्रदान की। उन्होंने व्यवस्थित रूप से उलगुलान यानी (क्रांति) की घोषणा की। उन्होंने डोंबरी पहाड़ी पर सोहराय पर्व से एक सप्ताह पहले ही एक सभा में खानपान, गायन-वादन, नृत्य तथा मेले के बीच ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए शपथ लिया, “आज से मुंडा बालों में कंघी नहीं करेगा, गहना तथा फूल माला नहीं पहनेगा और नाचेगा-गायेगा भी नहीं।” यह था महान त्याग और संपूर्ण उलगुलान की रणभेरी।

बिरसा ने घोषणा की, अंग्रेजों का शोषण और दमन राज नहीं चलने देंगे। कानून आम लोगों के विकास के लिए होगा। बिरसा के इस उलगुलान से अंग्रेज कांप गए। सरकारी कार्यालयों, पुलिस थानों, तथा अंग्रेज शासक के समर्थकों पर बिरसा पंथियों ने अपना हमला तेज कर दिया। अंग्रेजों के द्वारा भी मुण्डाओं का भीषण नरसंहार शुरू हुआ। जनवरी 1900 को बिरसा अपने वीर लड़ाकों के साथ डोंबरी पहाड़ी पर एक गुप्त बैठक कर रहे थे। गुप्तचरों द्वारा इसकी सूचना रांची भेजी गई। रांची से अंग्रेजों के एक बड़ा अधिकारी हाथी और घोड़ों के साथ बिरसा को पकड़ने चले। अधिकारी बिरसा से वार्ता करना चाहते थे। बिरसा ने बात किए बगैर तीर धनुष से अंग्रेज अधिकारियों पर हमला कर दिया। बिरसा एवं उनके अनुयाई यहां से भाग निकले तथा रोगटो जंगल (आज का सारंडा जंगल, पश्चिम सिंहभूम जिला) चले गए। बंदगांव, पश्चिम सिंहभूम जिले में रहने लगे तथा अपना क्रियाकलाप यहीं से संचालित करने लगे।

कहते हैं पुस्की नाम की औरत ने बिरसा मुंडा के बंदगांव में छुपे होने की सूचना पादरी को दी। 1900 में बिरसा गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें घोड़े से बांधकर घसीट कर ले जाया गया। उनकी हालत बहुत खराब हो गई थी। उन्हें रांची जेल में रखा गया। षडयंत्रपूर्वक बिरसा मुंडा को चिकित्सा सुविधा तथा अन्य सुविधाओं से वंचित रखा गया था। फलस्वरूप 9 जून 1900 को हैजा होने के कारण उनकी मृत्यु हो गई। परंतु लोग ऐसा नहीं मानते। उनका विश्वास है कि बिरसा को भोजन में विष देकर मारा गया। प्रश्न आज भी है क्या उलगुलान भ्रष्टाचार एवं अन्य कुरीतियों तथा देशद्रोहियों के प्रति बंद हो गई? बिरसा आज सिर्फ मुण्डाओं का ही नहीं वरन समस्त देश प्रेमियों का प्रेरणा स्त्रोत है। भगवान बिरसा मुंडा के जीवन से हमें दया, प्रेम, सहिष्णुता, राष्ट्रभक्ति और कठिन परिस्थिति में संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है।

(लेखक विद्या भारती झारखंड के प्रांतीय संवाददाता एवं संपादक है।)

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