✍ प्रशांत पोळ
आज बड़ा सुखद संयोग बन रहा हैं कि गुरु नानक देव जी की ५५५ वी जयंती, प्रकाश पर्व, के दिन ही, राष्ट्रीय जनचेतना के प्रतीक, बिरसा मुंडा जी की १४९वीं जयंती हैं। हम इसे ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मना रहे हैं। आज से उनका ‘सार्ध शती वर्ष’ प्रारंभ हो रहा हैं।
बिरसा मुंडा यह अद्भुत व्यक्तित्व हैं। वर्ष १८७५ में जन्मे बिरसा जी को कुल जमा पच्चीस वर्ष का ही छोटासा जीवन मिला। किन्तु इस अल्पकालीन जीवन में उन्होंने जो कर दिखाया, वह अतुलनीय हैं। अंग्रेज़ उनके नाम से कांपते थे। थर्राते थे। वनवासी समुदाय, बिरसा मुंडा जी को प्रति ईश्वर मानने लगा था।
बिरसा मुंडा जी के पिताजी जागरूक और समझदार थे। बिरसा जी की होशियारी देखकर उन्होंने उनका दाखला, अंग्रेजी पढ़ाने वाली, रांची की, ‘जर्मन मिशनरी स्कूल’ में कर दिया। इस स्कूल में प्रवेश पाने के लिए ईसाई धर्म अपनाना आवश्यक होता था। इसलिए बिरसा जी को ईसाई बनना पड़ा। उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया।
किन्तु स्कूल में पढ़ने के साथ ही, बिरसा जी को समाज में चल रहे, अंग्रेजों के दमनकारी काम भी दिख रहे थे। अभी सारा देश १८५७ के क्रांति युद्ध से उबर ही रहा था। अंग्रेजों का पाशविक दमन चक्र सारे देश में चल रहा था। ये सब देखकर बिरसा जी ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वे पुनः हिन्दू बने। और अपने वनवासी भाइयों को, इन ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की कुटिल चालों के विरोध में जागृत करने लगे।
१८९४ में, छोटा नागपूर क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय बिरसा मुंडा जी की आयु थी मात्र १९ वर्ष। लेकिन उन्होंने अपने वनवासी भाइयों की अत्यंत समर्पित भाव से सेवा की। इस दौरान वे अंग्रेजों के शोषण के विरोध में जनमत जागृत करने लगे।
उन्हें, अंग्रेजों ने चलाया हुआ धर्मांतरण का कुचक्र दिख रहा था। इसलिए, वनवासियों को हिन्दू बने रहने के लिए, उन्होंने एक जबरदस्त अभियान छेड़ा। इसी बीच पुराने, अर्थात वर्ष १८८२ में पारित कानून के तहत, अंग्रेजों ने झारखंड के वनवासियों की जमीन और उनके जंगल में रहने का हक छिनना प्रारंभ किया।
और इसके विरोध में बिरसा मुंडा जी ने एक अत्यंत प्रभावी आंदोलन चलाया, ‘अबुवा दिशुम – अबुवा राज’ (हमारा देश – हमारा राज)। यह अंग्रेजों के विरोध में खुली लड़ाई थी, उलगुलान थी। अंग्रेज़ पराभूत होते रहे, हारते रहे। सन १८९७ से १९०० के बीच, रांची और आसपास के वनांचल क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन उखड़ चुका था। यह सभी अर्थों में एक ऐतिहासिक और अद्भुत घटना थी। १७५७ के प्लासी युद्ध के बाद से, (और सौ वर्षों के पश्चात, १८५७ के क्रांति युद्ध के बाद), यह माना जा रहा था, की अंग्रेज अजेय हैं। उन्हें कोई नहीं हरा सकता। उनका विरोध करने की कोई हिम्मत भी नहीं कर सकता। किन्तु ‘धरती आबा बिरसा जी’ के नेतृत्व में, भोले भाले जनजातीय समुदाय ने यह झुठला दिया। अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता को सीधे ललकारा और कुछ दिन नहीं, तो लगभग ३ वर्ष, रांची और आसपास के क्षेत्र से अंग्रेजी शासन-प्रशासन को उखाड़ फेंका। वहां जनजातीय समुदाय का शासन प्रस्थापित किया।
किन्तु जैसा होता आया हैं, गद्दारी के कारण, ५०० रुपयों के धनराशि के लालच में, उनके अपने ही व्यक्ति ने, उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी। जनवरी १९०० में रांची जिले के उलीहातु के पास, डोमबाड़ी पहाड़ी पर, बिरसा मुंडा जब वनवासी साथियों को संबोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेजी सेना ने उन्हें घेर लिया। बिरसा मुंडा के साथी और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई। अनेक वनवासी भाई-बहन उसमें मारे गए। अंततः ३ फरवरी १९०० को, चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा जी गिरफ्तार हुए।
अंग्रेजों ने जेल के अंदर बंद बिरसा मुंडा पर विषप्रयोग किया, जिसके कारण, ९ जून १९०० को रांची के जेल में, वनवासियों के प्यारे, ‘धरती आबा’, बिरसा मुंडा जी ने अंतिम सांस ली।
आज मात्र जनजातीय समुदाय ही नहीं, तो सारा देश, उनके धरती आबा, बिरसा मुंडा जी का जन्मदिवस, उनके सार्ध शताब्दी वर्ष के प्रारंभ के रूप में मना रहा हैं।
जनजातीय समुदाय की, हिन्दू अस्मिता की आवाज को बुलंद करने वाले, उनको धर्मांतरण के दुष्ट चक्र से सावधान करने वाले और राष्ट्र के लिए अपने प्राण देने वाले बिरसा मुंडा जी का स्मरण करना, याने राष्ट्रीय चेतना के स्वर को बुलंद करना हैं।