✍ वासुदेव प्रजापति
सामाजिक स्तर पर सम्बन्धों की आज कोई व्यवस्था नहीं है। हमने वर्ण, जाति व सम्प्रदाय का त्याग कर दिया परन्तु उनके स्थान पर कोई नई व्यवस्था नहीं बनाई। पुरानी व्यवस्थाओं को छोड़ने में तात्त्विक दृष्टि से कोई आपत्ति नहीं है किन्तु पर्यायी व्यवस्था के अभाव में व्यावहारिक स्तर पर कठिनाई अवश्य होती है। आज वैसी ही कठिनाई हो भी रही है।
नई व्यवस्थाएँ होना आवश्यक
आज एक ही सन्तान को जन्म देने के आग्रह के कारण पारिवारिक सम्बन्ध सिमटते जा रहे हैं। दो पीढ़ियाँ एक साथ नहीं रहती, परिणाम स्वरूप पारिवारिक सम्बन्धों की व्यवस्था गड़बड़ा गई है। इस स्थिति में परिवार के बाहर सामाजिक सम्बन्धों की नई व्यवस्था न होना अनेक प्रकार की मानसिक और व्यावहारिक कठिनाइयों को जन्म देता है
हमने क्लबों, वृद्धाश्रमों, महिला मंड़लों जैसी व्यवस्थाएँ बनाना शुरु किया है परन्तु अभी वे अत्यन्त प्राथमिक स्वरूप की हैं और वे विकसित होकर भी सम्बन्ध निर्माण नहीं कर सकतीं। अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक सम्बन्धों की नई व्यवस्थाएँ हमें करनी ही होंगी। यह नहीं किया तो सामाजिक संगठन खड़ा नहीं होगा परन्तु सामाजिक विघटन को गति अवश्य मिलेगी।
व्यवसायों के आधार पर व्यवस्था बनाना
सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं। परिवार के बाहर जाकर करने वाले कार्यों में व्यवसाय प्रमुख है। यदि एक व्यवसाय करने वालों के समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो उनमें व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी। सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से अधिक अन्तरंग होते हैं। जैसे- परस्पर मैत्री होना, एक दूसरे के घर आना-जाना, विवाहादि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनने से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था भी है।
हम एक व्यवसाय करने वालों की आवास व्यवस्था एक साथ कर सकते हैं। आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्राध्यापक कॉलोनी के रूप में एक साथ रहने की व्यवस्था है। बैंक, रेलवे, पुलिस आदि में उन संस्थाओं की ओर से आवास आवंटित किए जाते हैं। जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास खाली करना पड़ता है। इसे ही स्थायी व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ-साथ रहें, ऐसा विचार किया जाए और लोगों के मानस में बैठाया जाए तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित हो सकते हैं।
शैक्षिक उत्सव सामाजिक स्तर पर हो
सरकारी प्राथमिक शालाओं में नए बच्चों का प्रवेशोत्सव मनाया जाता है। इसका आयोजन केवल सरकारी स्तर पर होता है। इसे सामाजिक स्तर पर मनाने की योजना बनानी चाहिए। इस प्रवेशोत्सव को विद्यारम्भ संस्कार में बदला जा सकता है। यह विद्यारम्भ संस्कार केवल सरकारी विद्यालयों में ही नहीं अपितु सभी विद्यालयों में मनाना चाहिए। इससे विद्या की पवित्रता स्थापित होगी। इस संस्कार को सामाजिक स्तर पर आयोजित करने के लिए विद्यालय के स्थान पर मंदिर में भी मना सकते हैं। विद्यालय में करने में कोई आपत्ति नहीं है, यह सावधानी अवश्य रखी जाए कि यह उत्सव केवल विद्यालय का ही न बन जाए, सम्पूर्ण समाज की इसमें भागीदारी होनी चाहिए। उत्सव कहाँ हो? यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्व विद्यारम्भ संस्कार का है। हमें संस्कार पर बल देना है। आज जो विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त समारोह होते हैं, हम उन्हें भी समावर्तन संस्कार में रूपान्तरित कर सकते हैं।
महत्त्व संस्कारों का है। समाज में अपना नया व्यवसाय प्रारम्भ करते समय भी हम संस्कार की योजना कर सकते हैं। अपने व्यवसाय के स्थान और साधन की पूजा, अच्छा काम करने का संकल्प ले सकते हैं, अच्छा परिणाम मिले ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं। परिजनों एवं साथियों द्वारा स्वागत और सबके लिए मिष्टान्न भोजन की व्यवस्था करके इसे संस्कार का स्वरूप प्रदान किया जा सकता है।
समाज सेवा के कार्य करना
समाज में आज भी सेवाभावी लोगों की कमी नहीं है। वे अपनी-अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार सेवा के कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए महानगरों के अस्पतालों में भर्ती होनेवाले मरीजों के रिश्तेदारों के लिए भोजन-पानी की व्यवस्था सेवाभावी संस्थाएँ व उनके लोग करते हैं। यह करने के लिए उन्हें कोई नहीं कहता, वे अपने अन्त:करण की प्रेरणा से स्वयं करते हैं। ऐसे सभी सेवाकार्य व्यक्तिगत या संस्थागत स्तर पर होते हैं, इनकी व्यवस्था सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। अस्पतालों, विद्यालयों, कार्यालयों, मरीजों, विद्यार्थियों, कर्मचारियों की सपरिवार चिन्ता करनी चाहिए। परिवार की भावना सामाजिक सम्बन्धों का मूल आधार है।
आज गाँव छोटे से छोटे और महानगर बड़े से बड़े होते जा रहे हैं। गाँव टूटकर, बिखरकर नगरों और महानगरों की ओर भाग रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं। महानगरों में झुग्गी-झोंपडियों का विस्तार बढ़ रहा है, दोनों की स्थिति खराब हो रही है। शारीरक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्कार, आर्थिक स्थिति की दुर्गति हो रही है। नए-नए मनोकायिक रोग उत्पन्न हो रहे हैं। अतः गाँव और नगर दोनों संकट में हैं। इसका उपाय गावों को बचाना है, व्यवसायों का ग्रामिणीकरण करना है। परन्तु यंत्रों का साम्राज्य हमें ऐसा करने से रोकता है। यह बड़ा कठिन कार्य है परन्तु इसे व्यवस्था में ढाले बिना सामाजिक व्यवस्था बैठाना असम्भव है।
सामाजिक स्तर पर दोहरा व्यवहार
हम सामाजिक स्तर पर दोहरा व्यवहार करते दिखाई देते हैं। राजनीति के क्षेत्र में तो यह दोहरापन स्पष्ट दिखाई देता है। उदाहरण के लिए हम जाति का एक ओर तिरस्कार करते हैं, दूसरी ओर जाति के आधार पर प्रत्याशी का चयन करते हैं। मत माँगे जाते हैं और दिए जाते हैं। जाति को ध्यान में रखकर मंत्री परिषद बनती है। जिन बातों को हम संविधान की दुहाई देकर त्यागते हैं, उन्हें ही व्यवहार का आधार बनाते हैं। इस दोहरे व्यवहार के बिना राजनीति नहीं चलती।
इस स्थिति का हम क्या करें? क्या हम जाति को और सम्प्रदायों को नष्ट करने की शिक्षा सामाजिक स्तर पर दे सकते हैं? क्या ऐसी शिक्षा देने में हम यशस्वी होंगे? क्या हम सम्प्रदायों को प्रतिबन्धित कर देंगे? क्या उन्हें प्रतिबन्धित करना उचित होगा? हम एक ओर तो घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक हैं जबकि दूसरी ओर जाति विरोधी व धर्मनिरपेक्षता के आग्रही हैं। वास्तविकता यह है कि हम धर्मनिरपेक्ष नहीं निधर्मी हो रहे हैं। क्या सच में हम बिना धर्म के रह सकते हैं? सामाजिक स्तर पर इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने का हम कोई भी प्रयास नहीं कर रहे हैं।
शिक्षाक्षेत्र, धर्यक्षेत्र व अर्थक्षेत्र में कहीं पर भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोजा जा रहा है, केवल दायें-बायें से मार्ग निकाल लिया जाता है। राजकीय क्षेत्र इसका भरपूर उपयोग कर लेता है। वह इन्हें नकारता भी है और उसका फायदा भी उठा लेता है। इस स्थिति में सामाजिक बिखराव तो होना ही है। इस जटिल समस्या का हल निकालने हेतु श्रेष्ठ कोटि के धर्माचार्य, विद्वान, समाज हितैषी व राजनीतिज्ञों को साथ बैठना चाहिए। पर्याप्त चिन्तन-मनन के उपरान्त दीर्घ तथा व्यापक स्तर पर विमर्श चलाना चाहिए।
राज्यतन्त्र समाजतन्त्र पर हावी है
राजतन्त्र समाज जीवन का एक आयाम है। वास्तव में राजतन्त्र समाजतन्त्र के अधीन होना चाहिये परन्तु आज तो वह समाजतन्त्र पर ही हावी हो गया है। आज समाज में कोई व्यवस्था दिखाई नहीं देती, अर्थार्जन क्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं, शिक्षाक्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं। इसलिए इन सब पर राज्य का हावी होना स्वाभाविक ही है। राज्य के लिए हमने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया है। भारत की आजादी के समय अर्थात सन 1947 तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था, राजाओं का राज्य था। सन 1947 में ऐसा क्या कारण उपस्थित हुआ कि हमने रातोंरात लोकतन्त्र अपना लिया? इस मूल प्रश्न को पूछने और उसका उत्तर पाने का विचार भी हमें नहीं आता। यह क्या महान आश्चर्यजनक नहीं है? लोकतन्त्र को हमने ऐसे अपना लिया है जैसे वह हमारे अस्तित्व का एक अंश है।
भारत में जैसी लोकतन्त्र की संकल्पना है वैसी व्यवस्था कभी नहीं रही। जिस ‘डेमोक्रेसी’ शब्द को हमने लोकतन्त्र माना है, वह लोकतन्त्र की भारतीय संकल्पना से सर्वथा भिन्न है। तनिक विचार करें कि पाँच अनाड़ियों का मत एक विद्वान के मत से पाँच गुणा अधिक है। दो-चार गुण्डों का मत एक सन्त के मत से, दस स्वार्थी व कपटी लोगों का मत एक बुद्धिमान और सेवाभावी सज्जन के मत से चार गुणा, पाँच गुणा या दस गुणा अधिक प्रभावी है और लोकतन्त्र में यही मान्य है। ऐसी व्यवस्था वाला समाज कभी चल नहीं सकता, यह बात हमें समझ में आनी चाहिए। यह व्यवस्था नहीं है, घोर अनवस्था है। संविधान, कानून व न्यायालय इस अनवस्था की रक्षा के लिए है। कोई इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता। एक फ्रेंच विद्वान ने कहा है कि बिना शिक्षा के लोकतन्त्र एक दम्भ है, मात्र छलावा है। फिर भी हम लोकतन्त्र के अनुरूप शिक्षा नहीं दे रहे हैं। अतः समाज के सामने यह बहुत बड़ा जटिल प्रश्न है। इस समस्या का हल खोजने की कितनी बड़ी जिम्मेदारी विद्वानों, धार्मिकों, राजनीतिज्ञों व समाज हितैषियों पर है।
हमारी आन्तरिक शक्ति अधिक है
युगों-युगों से जो हमारा सांस्कृतिक प्रवाह बह रहा है, उसके संस्कार हमारे चित्त पर अमिट हैं। इसलिए हमारी परिवार व्यवस्था आज भी चल रही है। हमारी आन्तरिक शक्ति ही इतनी प्रबल है कि सभी प्रकार की विपरीतताओं का आक्रमण उसे तोड़ नहीं सका है। वह छिन्न-भिन्न तो हो रही है फिर भी आज तक बनी हुई है। यही एक मात्र आशा है।
हमारा सामाजिक संगठन आज कितना व्यवस्था हीन हो गया है, तब भी वह चल रहा है। हमारे अन्त:करण में जो अच्छाई है, जो सज्जनता है उसी के बल पर चल रहा है। कानून अपेक्षा नहीं करता तब भी अच्छाई है। यह अच्छाई, ये संस्कार, यह सज्जनता हमारा मूल प्रवाह है, यही हमारा अन्त:स्रोत है। हम मानते हैं कि जहाँ दो नदियों का संगम होता है वहाँ तीसरी नदी सरस्वती होती है। जो गुप्त रहती है, उसे हम त्रिवेणी कहते हैं। हमारे भीतर की जो अच्छाई है, वह गुप्त सरस्वती के समान अन्त:स्रोता है। वही भारतीय समाज का जीवनरस है, जो हमें एक भारतीय के रूप में जीवित रखता है।
इस अन्त:स्रोत के आधार पर हमें नई व्यवसथाएँ निर्माण करनी होगी। आज पश्चिम की जो नई व्यवस्थाएँ स्थापित नहीं हो पा रही है उसका कारण भी हमारे भीतर का वह जीवन रस ही है। जागृत मन को अपरिचित यह जीवनरस अन्तर्मन की प्रेरणा है, इसीलिये हम अभारतीय होने से बचे हुए हैं। विश्व में यह एकमात्र उदाहरण है। अब हमें सत्य, धर्म, ज्ञान और पराक्रम के आधार पर समाज व्यवस्था को पुनः सुदृढ़ करना है। इसीलिये भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा आवश्क है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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