भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 114 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – सामाजिक स्तर पर करणीय प्रयास-2)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

पश्चिमी सभ्यता को अपनाने के फलस्वरूप भारतीय समाज का मानस भी बदला है। मानस बदलने के कारण परिवार इकाई छोटी होती जा रही है। नव दम्पति को अब एक ही सन्तान चाहिए। हमारी लोकोक्तियों को हम पुरानी बातें मानकर उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। जैसे हमारे पुरखों ने कहा है,”एक आँख में आँख नहीं और एक पूत में पूत नहीं।” यह लोकोक्ति आज भी प्रासंगिक है परन्तु हम इसकी उपेक्षा कर एक ही सन्तान चाहिए पर टिके हुए हैं। परिवार की शक्ति हमारी दृष्टि से ओझल हो रही है। परिवार की शक्ति से सम्बन्धित एक रोचक दृष्टांत ध्यान में लाते हैं।

एक गुरुकुल था। उस गुरुकुल के गुरु एक संन्यासी थे। उस गुरुकुल में एक से बढ़कर एक विद्यार्थी थे। उनमें से एक हट्टा-कट्टा विद्यार्थी पहलवान था। वह प्रतिदिन कसकर दंड-बैठक लगाता, सूर्यनमस्कार करता। कुश्ती में सबको पछाड़ता। गुरुकुल में स्थित बड़े-बड़े पेड़ों की टहनियों को अकेला अपने बल से झुका देता। वह अपने गुरुजी से बहुत प्रभावित था और स्वयं उनके जैसा बलिष्ठ ब्रह्मचारी बनना चाहता था।

शिक्षा पूर्ण होने पर घर लौटने का दिन आया। उसके साथी गुरुजी को दक्षिणा देकर खुशी-खुशी घर जाने लगे। उसने गुरुजी से कहा गुरुदेव मैं तो आपकी भाँति ब्रह्मचारी बनना चाहता हूँ। घर लौटकर गृहस्थी बनकर अपने शारीरक बल को क्षीण नहीं करना चाहता। आप तो मुझे यहीं गुरुकुल में रहकर बलोपासना करने की स्वीकृति प्रदान करें। गुरुजी ने उसे “धन्यो: गृहस्थाश्रमी” का पाठ पढ़ाया। पितृऋण से उऋण होने की बात समझाई। वह गुरुजी की बात मानकर घर लौट आया।

अब उसने विवाह किया और अपनी गृहस्थी को सुखपूर्वक चलाने लगा। धीरे-धीरे गृहस्थी बढ़ने लगी। एक-एक कर चार पुत्र हुए। चारों ही पिता की भाँति हृष्टपुष्ट और बलवान। एक दिन उसे गुरुजी से मिलने की इच्छा हुई। अपनी पत्नी व चारों पुत्रों को साथ ले चल पड़ा गुरुकुल। गुरुजी से उसने अपने पूरे परिवार का परिचय करवाया। गुरुजी ने कुशल-क्षेम पूछी। उसने बताया गुरुजी वैसे तो सब ठीक है, भगवान की कृपा है। परन्तु गृहस्थी बनकर मैंने अपने शारीरिक बल को खो दिया है। इस बात का मुझे बड़ा दुख है।

गुरुजी ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वे उनको आश्रम दिखाने लगे। दिखाते-दिखाते वे एक पेड़ के नीचे ले आए और उससे पूछा, इस पेड़ को पहचानते हो? हाँ गुरुदेव! अच्छी तरह। उस डाली को मैं तब अकेला ही झुका दिया करता था परन्तु अब मुझमें वह बल नहीं है। गुरुजी ने उससे कहा, उस समय तो तुम अकेले थे अब कितने हो? अब तो हम पाँच हैं। चलो पाँचों मिलकर उसी टहनी को झुकाओ। जब पाँचों ने उस टहनी को पकड़कर झुकाया तो बड़ी सरलता से उसे जमीन को छुआ दिया। गुरुजी बोले, बताओ बल बढ़ा या कम हुआ? वह आश्चर्य पूर्वक बोला, गूरुजी बल तो बढ़ गया! मैं तो यही सोच-सोच कर दुबला हो रहा था कि गृहस्थी बनने से मेरा बल क्षीण हो गया। परन्तु आज आपने मेरी आँखें खोल दी कि मैं गृहस्थी बनकर चौगुणा बलशाली हो गया हूँ। अन्यथा आज तक अकेला ही रहता। वाह! धन्य है गृहस्थाश्रम।

समाज की मानसिकता

परिवारों में एक ही सन्तान चाहिए। इस मानसिकता का प्रचलन बढ़ने से भाई या बहन नहीं होते, फलस्वरूप परिवार में रक्षाबन्धन या भैयादूज के त्योहार मनाने बन्द हो गए। दूसरी तरफ ‘वेलेंटाइन डे’ का प्रचलन बढ़ रहा है। हमारी संस्कृति में तो साथ पढ़ने वाले भी भाई-बहन ही माने जाते हैं, जबकि पाश्चात्य संस्कृति में वे मित्र माने जाते हैं। हम उसे अपनाए जा रहे हैं। क्या इस मानसिकता को ठीक करना संस्कृति के रक्षकों का दायित्व नहीं है? वास्तविकता यह है कि बच्चों के उचित संगोपन के अभाव में यह सब हो रहा है।

किशोरावस्था के लड़कों और लड़कियों की मानसिकता चिन्ता का विषय बना हुआ है। पश्चिमी देशों के स्कूली बच्चों के बस्तों में पिस्तौल मिलना सामान्य बात है। सार्वजनिक रूप से बड़ों का अनादर बढ़ रहा है। बाल अधिकार के नाम पर बाल व किशोर वय के लड़के-लड़कियों को दण्ड देने पर कानूनी कार्यवाही का भय खाए जा रहा है। यह सब पारिवारिक व सामाजिक विघटन तथा भावी पीढ़ी की बर्बादी के ही लक्षण हैं। गोष्ठियों, सभा-सम्मेलनों और धर्म सभाओं के माध्यम से बाल-अधिकार, बाल-संस्कार, बाल शिक्षा और सामाजिकता आदि विषयों पर गंभीर चर्चा और लोक प्रबोधन के आयोजन करने की नितान्त आवश्यकता प्रतीत होती है।

अनाचार और बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं, सब ऐसा ही मानते हैं। इनके विरुद्ध कानून भी बने हुए हैं। परन्तु कानून ठीक से लागू नहीं किए जाते, ऐसी पर्याप्त शिकायतें सुनने में आती हैं। इसे रोकने हेतु कठोर कानून बनने चाहिए और सख्ती से लागू किए जाने चाहिए, ऐसी आवाजें चहूँ ओर से सुनाई पड़ती हैं। परन्तु बलात्कार केवल कानून व दण्ड का विषय नहीं है। यह तो संस्कारक्षम वातावरण और मनोवैज्ञानिक उपचार का विषय है। हम यह व्यवस्था नहीं करेंगे तो कानून और दण्ड बहुत अल्प मात्रा में ही बलात्कार को रोक सकते हैं। परिवार संस्था, धर्म संस्था और शिक्षा संस्था के सम्मिलित प्रयासों से ही इसे रोका जा सकता है।

अनाचार के लिए कानून नहीं है। एक को जो कृत्य अनाचार लगता है, वही दूसरे व्यक्ति को अनाचार नहीं लगता, अर्थात अनाचार व्यक्ति सापेक्ष है। उसे कानूनी मापदण्ड से सिद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए लड़के व लड़कियों का सहवास किस सीमा तक अनाचार है और किस सीमा में अनाचार नहीं है, इसका विचार तो व्यवहार करने वालों को ही करना चाहिए। सांस्कृतिक बन्धन सदैव स्वैच्छिक होते हैं। अतः बढ़ते हुए अनाचार को रोकने के उपाय शुद्ध रूप से धर्म का विषय है। अनेक समाज हितैषी, सामाजिक कार्य करने वाले, विद्वज्जन, धर्माचार्य इसे अनाचार न मानकर आधुनिकता ही मानते हैं। इसलिए भी इसका उपाय नहीं हो पा रहा है। तथापि संस्कार और शिष्टाचार दोनों दृष्टि से इसका विचार करना चाहिए।

परिवार भावना से सामाजिक सुरक्षा

सामाजिक संगठनों के सम्बन्धों और कार्यप्रणाली का आधार परिवार भावना होता है। परिवार की भाँति क्षमा, उदारता, सहयोग आदि का महत्त्व होता है। कार्य और कार्यकर्ता दोनों के प्रति स्नेह होता है। किन्तु जब परिवार भावना के स्थान पर ‘प्रोफेशनल’ बनने का भूत सवार हो जाता है अर्थात पूरी तरह व्यावसायिक हो जाने का आग्रह किया जाता है। व्यावसायिक बनने का सीधा सम्बन्ध पैसों से जुड़ना होता है। पैसा भले ही खर्च करना पड़े परन्तु काम अच्छा होना चाहिए, यह तर्क दिया जाता है। दूसरी ओर परिवार में यह देखा जाता है कि काम भले ही उतना अच्छा नहीं हुआ होगा किन्तु करने वाले ने सच्चे मन से किया है, इसलिए मूल्यवान है। इस प्रकार परिवार भावना से सामाजिकता की सुरक्षा होती है, जो आवश्यक है। व्यावसायिकता से सामाजिकता की सुरक्षा कभी नहीं होती, इस बात को हमें समझना चाहिए।

भारतीय परम्परा के अनुसार वे कार्य जो सामाजिक स्तर पर होने आवश्यक माना गएँ हैं, वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे आदि काम सरकार ने अपने हाथ में ले रखे हैं। जबकि इन सब कार्यों का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं। इस दृष्टि से एक ओर अन्न सत्र या भंडारा चलाना और दूसरी ओर अर्थार्जन के अवसर देकर मुफ्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना, ये दोनों काम एक साथ किए जाते थे। यह समाज की जिम्मेदारी है कि कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहें। मंदिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे। यात्रियों के लिए धर्मशाला, प्याऊ, अन्न सत्र आदि के होने से होटलों की अनिवार्यता नहीं रहेगी और सरकार पर बोझ भी नहीं पड़ेगा।

वानप्रस्थियों की जिम्मेदारी

आज समाज के वृद्धों को ‘सिनियर सिटीजन’ अथवा वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। हम उन्हें ‘वानप्रस्थी’ भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदल जाता है, वह जीवनलक्षी हो जाता है। वानप्रस्थी सदैव समाज का व अपने  कल्याण का विचार करता है। यह वानप्रस्थियों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित व असंस्कारी न रहे। इसलिए आज वानप्रस्थियों को छोटे-छोटे समूह बनाने चाहिए। प्रारम्भ में स्वाध्याय करना चाहिए व चिन्तन करना चाहिए। दूसरा समाज प्रबोधन का कार्य करना चाहिए। प्रत्येक परिवार को दिन में एक घंटा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात चार-पाँच घंटे ऐसे काम में लगाने चाहिए, जिससे कोई भौतिक लाभ न हों। उदाहरणस्वरूप शिक्षित वानप्रस्थी बच्चों को पढ़ाने व संस्कार देने का काम कर सकते हैं। उनके माता-पिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में जोड़ें, जिसमें विद्यालय की पढ़ाई, किसी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हों। वानप्रस्थी उन बच्चों को स्वदेशी, भारतभक्ति, सदाचार व संस्कार का महत्त्व समझाए। इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिए।

जो मुफ्त में मिलता है वह निकृष्ट होता है, ऐसा कहने का प्रचलन तो बढ़ा है परन्तु मुफ्त में वस्तु पाने का आकर्षण भी बढ़ा है। जब किसी सामग्री की ‘सेल’ लगती है तब एक पर एक मुफ्त वस्तु मिलती है। जब भी कोई वस्तु रियासत दर पर मिलती है, तब लोग बिना विचार किए उस पर टूट पड़ते हैं। दूसरे के पैसे से यात्रा करना अच्छा लगता है। सरकारी गाड़ी में बिना अधिकार यात्रा करना अच्छा लगता है। रेल या बस में जाँच नहीं होगी, यह कहा जाए तो बिना टिकट यात्रा करने में मजा आता है। यह तो शुद्ध रूप से अनीति है। ज्ञान कभी भी पैसों से नहीं मिलना चाहिए, वह निशुल्क मिलना चाहिए। ज्ञान मुफ्त में मिले तो उसकी कीमत नहीं मानना और जो मुफ्त में नहीं लेना चाहिए, उसे मुफ्त में प्राप्त कर लेते हैं। इसका यही अर्थ निकलता है कि हमारी मानसिकता में ही भारी गड़बड़ है। जो मनोचिकित्सकों का विषय नहीं है, समाज शिक्षकों का विषय है।

हमने ऐसी मानसिकता बना ली है कि झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाले लोगों में बुद्धि व संस्कार कम होते हैं, जबकि धनवानों में अधिक होते हैं। इसलिए झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों के लिए संस्कार केन्द्र चलाते हैं। दूसरी ओर धनवानों के बच्चों के लिए संस्कार केन्द्र चलाना आवश्यक नहीं मानते। हमें अपनी इस धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। संस्कार, मौलिकता और बुद्धि की ग्रहणशीलता के कुछ परीक्षण तैयार कर यदि दोनों प्रकार के बालकों की परीक्षा ली जाए तो हम पाएँगे कि झुग्गी-झोपड़ी के बच्चे धनवान बच्चों को पीछे छोड़ देंगे। कुछ बातों में ये बच्चे वंचित हैं तो कुछ में वे वंचित हैं। धनवानों के बच्चे जिन आधारभूत गुणों से वंचित हैं, वही चिन्ता का विषय है। यदि दोनों को समान अवसर दिए जाएँ तो झुग्गी-झोपड़ी के बच्चे अपने आधारभूत मौलिकता जैसे गुणों के कारण धनवान बच्चों से आगे निकल जाएँगे। हमें दोनों की चिन्ता अलग तरीके से करनी होगी। दोनों के लिए अलग-अलग संस्कार केन्द्र चलाने होंगे, हमें आज की धारणाएँ बदलनी होंगी। जब सामाजिक मानसिकता बदलेगी, तभी शिक्षा में सामाजिकता और संस्कारिता का समावेश होगा।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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