भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 113 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – सामाजिक स्तर पर करणीय प्रयास-1)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

जैसे व्यक्ति एक इकाई है, वैसे ही परिवार व विद्यालय भी एक इकाई है। किन्तु समाज इकाई नहीं है, वह तो एक सागर है। इनमें विद्यालय सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई है। विद्यालय बदलेगा तो समाज बदलेगा, समाज बदलने से परिवार और व्यक्ति को बदलने में सरलता होगी। विचार करें, विद्यालय कब बदलेगा? जब शिक्षक बदलेगा तब विद्यालय बदलेगा। अर्थात शिक्षक से प्रारम्भ कर समाज तक के परिवर्तन की प्रक्रिया एक बीज से पत्र-पुष्प-फल सहित सम्पूर्ण वृक्ष के परिवर्तन की यात्रा है। अतः शिक्षक बीज है तो समाज सम्पूर्ण वृक्ष है।

आज की स्थिति में बीज दुर्बल है, उसे सुरक्षा की, सम्हालने की और पोषण की आवश्यकता है। अतः सम्पूर्ण समाज में अनुकूल मानसिकता, वातावरण और व्यवस्था चाहिए। हमें सामाजिक स्तर पर भी विचार करना होगा। समाज में अनेक प्रवाह होते हैं, अनेक गतिविधियाँ होती हैं, अनेक व्यवस्थाएँ होती हैं और अनेक संस्थाएँ होती हैं। इन सबके सम्बन्ध में विचार करना ही सामाजिक स्तर पर विचार करना है। समाज में किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं होता, अनेक लोग मिलकर काम करते हैं, उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिप्राय होते हैं। ऐसी स्थिति में अनेक बातों का समायोजन करने से ही परिवर्तन होता है। अतः सामाजिक स्तर पर भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु हम क्या-क्या कर सकते हैं, ऐसे कुछ विचारसूत्रों की यहाँ विवेचना करेंगे।

व्यवस्थाओं में परिवर्तन करना

सामाजिक संस्थाओं के द्वारा अनेक बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, उनमें अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ होती हैं। उनमें से कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है —

  1. प्लास्टिक का प्रयोग बिल्कुल न हों। मंच पर अतिथियों के लिए रखी जाने वाली पानी की बोतल प्लास्टिक की न हों। कार्यक्रम का फलक (बेनर), चाय और अल्पाहार के कप आदि प्लास्टिक के न हों। मुद्रित सामग्री के वितरण हेतु पोलीथीन के आवरण (कवर) न हों। इनका प्रयोग करने से गलत सन्देश जाता है और नहीं करने से समाज में सही सन्देश जाता है।
  2. सभा-सम्मेलनों में साज-सज्जा प्लास्टिक के फूलों और तोरणों से होती है, उसे आग्रह पूर्वक टालना चाहिए।
  3. पीने के पानी की व्यवस्था यन्त्रों और रसायनों से शुद्ध किए हुए पानी की होती है। इसके स्थान पर मिट्टी या स्टील के बड़े पात्रों या घड़ों की व्यवस्था करनी चाहिए। लोगों की शुद्ध पानी विषयक गलत धारणाओं को बदलना चाहिए।
  4. सभा व सम्मेलनों में लोग मंच पर जूते पहनकर ही चले जाते हैं। जिस प्रकार मंदिर में या घर में जूते पहनकर नहीं जाया जाता उसी प्रकार मंच पर भी जूते पहनकर नहीं जाना चाहिए। कार्य व कार्यक्रम की शोभा व पवित्रता बनाए रखनी चाहिए।
  5. धर्मसभा, विवाह समारोह, संस्कृति-चिन्तन जैसे कार्यक्रमों में निमन्त्रितों को भारतीय वेश पहनकर आने का निवेदन करना चाहिए। भारतीय वेश का आग्रह अवश्य करना चाहिए परन्तु दुराग्रह न हो, यह सावधानी भी अवश्य रखनी चाहिए। विवाह संस्कार भारतीय समाज का सर्वमान्य संस्कार है। यह पूर्णरूपेण भारतीय परिवेश में और भारतीय पद्धति से हो ऐसा प्रचलन बढ़े, इसका आग्रह रखना चाहिए।
  6. विवाह सहित लगभग सभी सार्वजनिक समारोहों में भोजन करने की पद्धति में संस्कारों का ह्रास दिखाई देता है। जूते पहनकर, खड़े-खड़े या चलते-फिरते बिना किसी के आग्रह- मनुहार के, बिना किसी के भरोसे भोजन करना भारतीय मानस को कैसे भा जाता है, आश्चर्यजनक है।
  7. ऐसे समारोहों में जितनी भी ‘यूज एण्ड थ्रो’ की वस्तुएँ होती हैं। उनका उपयोग होने के बाद स्वच्छता, पर्यावरण, अतिरिक्त खर्च पर कितना अधिक असर पड़ता है, इसका भी विचार करना चाहिए।
  8. रेल या बस की यात्रा में, होटलों में, समारोहों में अन्न का कितना अपव्यय होता है, इसकी कल्पना मात्र से हम सिंहर जाते हैं। इसके कारण हमारी असंस्कारिता और दारिद्रता हैं। घरों में भोजन नहीं करना, बाजार में खाने के प्रति आकर्षण होना असंस्कार व अव्यावहारिक बुद्धि का द्योतक है।
  9. नवरात्रि जैसे उत्सवों में दिखाई देने वाली उच्छृंखलता और उत्सव समाप्ति के बाद बढ़ते हुए गर्भपातों की संख्या हमारे सांस्कृतिक अध:पतन का लक्षण है। ये उत्सव धार्मिक व सांस्कृतिक हैं, इनका पवित्र स्वरूप बनाए रखने का दायित्व सामाजिक संस्थाओं एवं शिक्षा संस्थाओं का हैं।
  10. आजकल फिजूलखर्ची, दिखावे के लिए खर्च करने की आदत बढ़ गई है। यह व्यर्थ का खर्चा व्यक्तिगत और सार्वजनिक दोनों स्तरों पर होता है। इससे पैसा एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता है, जिससे बाजार चलता है परन्तु श्रम व संसाधनों का अपव्यय बहुत होता है। समारोहों की साज-सज्जा देखकर यह बात सरलता से समझ में आ जाती है।
  11. सार्वजनिक स्थानों पर विज्ञापन ही विज्ञापन दिखाई देते हैं। इनसे वस्तुओं, मार्गों, बगीचों आदि का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है, इसके साथ-साथ हमारी दर्शनेन्द्रीय पर भी अत्याचार होता है। पैसा हम पर इतना हावी हो गया है या बाजार इतना प्रभावी हो गया है कि अच्छी बातों को हम अच्छी रहने ही नहीं देते।

सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक कौन?

आज इस प्रश्न पर पर्याप्त चिन्तन करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। आमजन तो यही जानता है कि सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक पुलिस या कानून हैं। यह मान्यता ठीक नहीं है, भारतीय समाज व्यवस्था में परिवार के वरिष्ठजन, शिक्षक व धर्माचार्य ही सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक होते हैं। इन्हें घरों में, विद्यालयों में और कथा व सत्संग में युवा और युवतियों को सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाने की बड़ी आवश्यकता है। रेल, बस, सभा, उत्सव तथा मेलों आदि में सामाजिक शिष्टाचारों की  कमी होती जा रही है, जो हम सबकी चिन्ता का विषय बना हुआ है।

उत्तेजना, तनाव, उद्वेगादि मानसिक विकारों का प्रभाव सार्वजनिक वातावरण पर पड़ता है। फलतः वातावरण अशान्त हो जाता है। बात-बात में झगड़ा, मारा-मारी और अन्य स्वरूपों की हिंसा के लिए यह वातावरण ही कारण रूप है। सार्वजनिक वातावरण को शान्ति और सौहार्द की तरंगों से भरने हेतु जप, सत्संग, नामस्मरण, सामूहिक योगाभ्यास आदि का प्रचलन बढ़ाना चाहिए। इसके प्रभाव से हिंसा भी कम होगी।

आज सार्वजनिक व्यायामशालाओं और खेल के मैदानों की संख्या में बहुत कमी आई है। बाल, किशोर, युवा न तो व्यायाम करते हैं और न खेल खेलते  हैं। वाट्सएप, वीडियो गेम्स, फेसबुक, चेटिंग आदि के व्यसनी हो गए हैं। स्वास्थ्य और संस्कारों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। हमारी भावी पीढ़ी का चारित्रिक पतन हो रहा है। यह समाज के कर्णधारों की चिन्ता का विषय बनना चाहिए। समाज हितैषी व्यक्तियों, संस्थाओं, संगठनों को इसकी चिन्ता करनी चाहिए।

भारत विश्व का युवा देश है

आज विश्व में भारत की गणना युवा देश के रूप में हो रही है। युवा हमारे देश की सम्पदा है। परन्तु इस सम्पदा को अकर्मण्यता, अज्ञान और असंस्कारिता का ग्रहण लग गया है। इससे बचने के उपाय करने की नितान्त आवश्यकता है।

हमारे युवक-युवतियों का बड़ी आयु में विवाह होना, घटती हुई उनकी जनन क्षमता, परिवारों का विघटन आदि के कारण जन्म लेने वाले नवजातों को जन्म पूर्व से ही दुर्बल बना रहे हैं। शारीरक और मानसिक दुर्बलता के साथ जन्मे हुए बच्चों को कोई भी वैद्य बलवान तथा निरोगी नहीं बना सकता। कोई भी शिक्षक उसे बुद्धिमान और सज्जन नहीं बना सकता। इस दृष्टि से वर्तमान किशोर और युवावस्था के लड़के और लड़कियों के विकास की योजना बनानी चाहिए।

अंग्रेजी माध्यम, अन्तरराष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड, विदेशी वस्तुएँ और अमेरिका में नौकरी का आकर्षण युवाओं में दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इससे होने वाला विकास मृग-मरीचिका मात्र है। परन्तु इन मृगों को परावृत्त करने की शक्ति किसी में दिखाई नहीं देती।

आज का युवा दायित्वहीन हो गया है। हम मानते हैं कि मोबाइल एवं यातायात के साधनों के कारण अब सम्पर्क आसान हो गया है, परन्तु अनुभव तो यह कहता है कि इनके कारण दायित्व हीनता बढ़ी है। पहले किसी कार्यक्रम की सूचना मात्र मौखिक या पोस्टकार्ड से देने पर भी मिल जाती थी और उसका पालन होता था। आज मोबाइल और इंटरनेट होने पर भी बार-बार सूचना देनी पड़ती है, फिर भी उसका पालन नहीं होता। आधुनिक सुविधा ने हमारा कर्तृत्व शिथिल कर दिया है। हमें युवाओं को दायित्ववान बनने की प्रेरणा देनी चाहिए।

लोक शिक्षा को हाथ में लेना

हमारे देश की संसद जिस प्रकार से चलती है और जैसा उसे टीवी पर दिखाया जाता है, वह किसी के लिए भी प्रेरणादायी नहीं है। हमारे देश में प्राचीन काल से सभा के शिष्टाचार सिखाए जाते रहे हैं। इन शिष्टाचारों को भंग करना, जनसामान्य को स्वीकार नहीं होना चाहिए। क्योंकि जनसामान्य को यह अधिकार है कि उनके द्वारा चुने हुए जन प्रतिनिधियों पर वे इतना विश्वास तो रखें कि वे शिष्टाचारों का पालन करें। अतः हमें लोक शिक्षा को पुनः अपने हाथ में लेना चाहिए।

लोक शिक्षा के व्यवस्थित तन्त्र के अभाव में आज विज्ञापन, चुनावी घोषणाएँ और नारेबाज़ी, टीवी के धारावाहिक आदि लोक शिक्षा के माध्यम बन गए हैं। इनका उद्देश्य लोक शिक्षा नहीं है, मनोरंजन के द्वारा धन कमाना है। फलस्वरूप समाज दिशाहीन और अनाथ हो गया है। जनसामान्य को भटकाने वाले सभी कारक प्रभावी हैं। इस स्थिति में लोक शिक्षा के तन्त्र को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।

लोक शिक्षा धर्मशिक्षा का क्षेत्र है, परन्तु आज की शिक्षा व्यवस्था की भाँति धर्म व्यवस्था भी बाजार और राजनीति की शिकार बन गई है। ऐसी स्थिति में प्रजा की रक्षा कौन करेगा? इसका सीधा सा उत्तर यही है कि पुनः शिक्षक को ही लोक शिक्षा का कार्य विद्यालयों के माध्यम से अपने हाथ में लेना होगा। लोक शिक्षा के इस काम को शिक्षक धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में भी कर सकता है।

समाज में विश्वास जगाना

समाज में आज परस्पर विश्वास का अभाव हो गया है। एक व्यक्ति दूसरे की कही गई बात को तुरन्त नहीं मानता। कोई व्यक्ति सद्भावना से समाज हित का काम कर सकता है, ऐसा कोई मानता ही नहीं। यह स्थिति ठीक नहीं है, दुनिया विश्वास पर चलती है, कानून से नहीं। अतः परस्पर विश्वास बढ़ाने की आवश्यकता है। अनेक प्रकार के आयोजनों में ‘हम आपका विश्वास करते हैं’ ऐसा भाव जगाने वाले छोटे-छोटे उपाय सार्वजनिक कार्यक्रमों में करने चाहिए।

इसी प्रकार छोटी-छोटी बातों का प्रमाण नहीं माँगना। लिखित सूचनाओं का आग्रह नहीं करना, लिखित में उत्तर नहीं माँगना, आपका क्या भरोसा? प्रश्नचिह्न नहीं लगाना। बार-बार अविश्वास प्रकट नहीं करना आदि प्रयोग करने चाहिए।

इन सब प्रयोगों के साथ हमें विश्वसनीय बनना भी बहुत आवश्यक है। झूठे वादे नहीं करना। कही हुई बात से पीछे नहीं हटना, किसी ने हमसे सहायता माँगी तो मना नहीं करना। कभी किसी के साथ विश्वासघात नहीं करना जैसी अनेक बातें हैं, जिनसे विश्वास बना रहता और बढ़ता है। जिस समाज में परस्पर विश्वास की मात्रा अधिक होती है, वहाँ तनाव व लड़ाई-झगड़े बहुत कम होते हैं, समाज एक बना रहता है। हमारे लिए सामाजिक स्तर पर करणीय ये सब छोटे-छोटे प्रयास हैं, इन्हें करके हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा कर सकते हैं।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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