✍ प्रशांत पोळ
और सीता की दृष्टि, उस अद्भुत हिरण पर पड़ी..!
वह मृग सभी अर्थों में विलक्षण था। अत्यंत सुंदर था। अवर्णनीय था। उसे देखते ही जनक नंदिनी सीता में, उस सुवर्ण मय मृग के चमड़े से, आसन बनाने की चाह निर्माण हुई। सीता ने श्रीराम से कहा, “यह सुवर्ण मृग मुझे चाहिए। आप इसकी मृगयां करके, इसका सुनहरा चमड़ा मुझे दीजिए।”
उस मृग को देखकर, लक्ष्मण ने उसे मारने की, श्रीराम से आज्ञा मांगी। किंतु श्रीराम ने लक्ष्मण को रोका। उन्होंने कहा, “ऐसा अद्भुत मृग, जब देवराज इंद्र के नंदनवन में और कुबेर के चैत्ररथ वन में भी नहीं है, तो वह इस अरण्य में कैसे आएगा? यह मायावी मृग हो सकता है। इस वन में असुरों का क्षत्रप मारीच, मायावी रूप लेकर अनेक ऋषि-मुनियों को समाप्त कर चुका है, ऐसा हमने सुना है।
एतेन हि नृशंसेन मारीचेनाकृतात्मना।
वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुङ्गवाः॥३८॥
(अरण्यकांड / तैंतीसवा सर्ग)
किंतु फिर भी, यदि यह मायावी रूप धारण किए हुए मारीच है या कोई और असुर है, हमें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, इसे समाप्त करना आवश्यक है।
यदि वाऽयं तथा यन्मां भवेद्वदसि लक्ष्मण।
मायैषा राक्षसस्येति कर्तव्योस्य वधो मया ॥३७॥
(अरण्यकांड / तैंतालीस वा सर्ग)
श्रीराम ने लक्ष्मण को, सीता की रक्षा के लिए पर्णकुटी में रुकने को कहा, तथा वे उस स्वर्ण मृग की मृगया के लिए वन में चले गए।
श्रीराम के, वायु गति से छूटे बाण से, सुवर्ण मृग का रूप धारण किया हुआ मारीच, तुरंत मृत्युलोक सिधार गया। किंतु मृत्यु के पूर्व, बाण लगते ही, वह अपने भयानक राक्षस रूप में आया और उसने अत्यंत उच्च स्वर में “हे सीते! हे लक्ष्मण!” ऐसा श्रीराम की आवाज में पुकारा।
श्रीराम मारीच का षड्यंत्र समझ गए। किंतु वह मारीच की शिकार करते-करते, वन में काफी दूर चले आए थे। अतः वे तुरंत पर्णकुटी की ओर चल पड़े।
इधर पर्णकुटी में जब सीता ने आर्त स्वर में, ‘हे सीते, हे लक्ष्मण।’ यह श्रीराम के आवाज में शब्द सुने, तो उसे लगा श्रीराम पर बहुत भयंकर संकट आया है। वह व्याकुल होकर लक्ष्मण से, श्रीराम की सहायता के लिए जाने को कहने लगी। लक्ष्मण को श्रीराम पर पूर्ण विश्वास था। ‘यह तो छल कपट है’, ऐसा वह समझ रहे थे। किंतु सीता के अत्याग्रह से वे, उस आवाज की दिशा में निकल पड़े। अब पर्णकुटी में, सीता माई अकेली बची थी!
रावण की योजना सफल हो रही थी।
साधु के वश में रावण, पर्णकुटी में आया और भिक्षा लेने के बहाने उसने सीता माई का हरण कर लिया।
कुछ दूरी पर, रावण का स्वर्णमयी मायावी रथ खड़ा था। इस रथ में रावण ने, सीता को डांटते-डपटते बिठा दिया। सीता माई का रो-रो कर बुरा हाल था। वे अत्यंत उच्च स्वर में, “हे राम। मेरे प्रिय राम।” ऐसा विलाप कर रही थी। विलाप करते-करते सीता ने वृक्ष पर बैठे जटायु को देखा। उसे देखकर सीता क्रंदन करने लगी।
सीता की करुण पुकार सुनकर। जटायु को क्रोध आया। उसने रावण को समझाने का प्रयास किया। किंतु काममोहित रावण, कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं था। उसने जटायु को झिडकार दिया। जटायु ने प्राणपण से रावण का प्रतिकार किया। रावण से उसका घनघोर युद्ध हुआ। अंत में रावण की तलवार से, जटायु के पंख, पैर और पार्श्वभाग कट गया। मरणासन्न अवस्था में, श्रीराम का जाप करते हुए जटायु वहीं पड़ा रहा।
रावण को दूषण देते हुए, श्रीराम को पुकारते हुए, सीता का आक्रोश जारी था। अब अपने मायावी रथ को विमान में बदलकर, रावण, आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़ता जा रहा था। सीता लगातार रावण को धिक्कार रही थी।
आकाश मार्ग से जाते हुए, सीता ने अपने आभूषण, अपने सुनहरे रंग के उत्तरीय में बांधे और नीचे छोड़ दिए। इस समय रावण का मायावी विमान, पंपा सरोवर के ऊपर से, लंकापुरी के लिए जा रहा था। रावण ने लंकापुरी में, अपने अंतःपुर में, सीता को रख दिया।
रावण ने अपने आठ निष्ठावान राक्षस अधिपतियों को, जनस्थान में, गुप्तचर के रूप में रवाना किया। जनस्थान में रहकर, श्रीराम की जानकारी लेकर, रावण को बतलाते रहना, यह उनका कार्य था।
अब वह सीता को अपनी भार्या बनाने का प्रयास करने लगा। किंतु सीता लगातार रावण को फटकारते रही। धिक्कारते रही। यह देखकर रावण ने सीता को अशोक वाटिका में भेज दिया।
इधर पंचवटी के पर्णकुटी में..
श्रीराम, कुछ अनहोनी की आशंका में द्रुत गति से पर्णकुटी पहुंचे। लक्ष्मण भी इसी समय वहां पहुंचे। पर्णकुटी खाली थी। विदेहनंदिनी सीता, वहां नहीं थी!
सीता के वियोग में श्रीराम विलाप करने लगे। आसपास के वृक्षों से, सीता का क्षेम-कुशल पूछने लगे। दोनों भाइयों ने पर्णकुटी के आसपास का सारा अरण्य छान मारा। किंतु सीता कहीं नहीं मिली। वे गोदावरी के तट पर भी गए, कि सीता कमल लाने के लिए तो वहां नहीं गई। किंतु हाय! सीता का कोई चिन्ह सामने नहीं आ रहा है।
भ्राता लक्ष्मण श्रीराम से कहते हैं, “आर्य, जब आप ‘सीता कहां है’ ऐसा उच्च स्वर में पूछते हैं, तो यह मृग, दक्षिण दिशा की ओर देखने लगते हैं। अतः हमें दक्षिण दिशा में जाना चाहिए।
ये दोनो बंधु, दक्षिण दिशा में जनस्थान की ओर बढ़ चले। वहां उन्हें रक्त से सना, मरणासन्न अवस्था में पड़ा, जटायु दिखा। उसने बताया कि लंकाधिपति रावण, सीता का हरण करके ले गया है, तथा उसने ही मेरी यह अवस्था की है।
इतना बताना ही था, कि अंतिम सांसे से गिन रहे जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये। श्रीराम ने उसका अंतिम क्रियाकर्म विधिपूर्वक किया।
अब यह स्पष्ट हो गया है कि लंकाधिपति रावण ने ही सीता का हरण किया है। वही रावण, जिसकी खोज में श्रीराम पिछले तेरह वर्षों से लगे है। वहीं रावण जो एक बार भी श्रीराम के सामने नहीं आया। प्रत्येक अवसर पर, ताटिका, खर, दूषण, त्रिशिरा, मारीच जैसे उसके क्षत्रपों ने हीं श्रीराम का सामना किया।
दानवों का आतंक समूल नष्ट करने, जिस रावण को समाप्त करना आवश्यक था, शूर्पणखा को विद्रूप बनाकर, श्रीराम ने जिस रावण को ललकारा था, उसी रावण ने सीता माई का हरण किया है।
श्रीराम की कल्पना थी कि शूर्पणखा की स्थिति देखकर रावण उनसे सीधे भिड़ेगा। सीधा सामना करेगा। किंतु रावण ने यहां भी अपना पापी और कपटी स्वभाव दिखा दिया।
रावण, सीता को सीधे लंका लेकर गया है, या उसने उसे आर्यावर्त में ही किसी अरण्य में छुपा कर रखा है, यह स्पष्ट नहीं हैं।
इसलिए श्रीराम-लक्ष्मण, दक्षिण की ओर चलने लगे। जनस्थान से तीन कोस दूर, क्रौंचारण्य में उन्होंने प्रवेश किया। वहां उनका सामना ‘कबंध’ नाम के असुर से हुआ। कबंध ने ही उन्हें पंपा सरोवर में जाकर, सुग्रीव से मित्रता करने को कहा तथा मतंग मुनि का आश्रम भी बताया।
पंपा सरोवर के पश्चिमी तट पर उन्हें बहुसंख्य वृक्षों से घिरा एक सुरम्य आश्रम दिखा। इस आश्रम में एक वृद्ध और सिद्ध तपस्विनी रहती थी – शबरी! श्रीराम के वनवास के प्रारंभिक दिनों में, चित्रकूट पर्वत पर निवास के समय ही, शबरी के गुरु ने शबरी से कहा था, कि ‘शत्रुदमन, रघुकुलवीर, श्रीराम तुम्हारे आश्रम अवश्य आएंगे। उनका पूरा स्वागत सत्कार करना। तब से शबरी, श्रीराम की प्रतीक्षा में थी। आज उसकी प्रतीक्षा सार्थक हुई। प्रभु श्रीरामचंद्र ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। शबरी कृतार्थ हो गई!
शबरी की कुटी से श्रीराम-लक्ष्मण, पंपा पुष्करिणी में पहुंचे। सामने ॠष्यमूक पर्वत था। वानरराज सुग्रीव उस समय वहां विचरण कर रहे थे। उन्होंने इन दो तेजस्वी युवकों को देखा। उन्हें लगा, उनको समाप्त करने के लिए ही, भ्राता ‘वाली’ ने, इन दो धनुर्धारियों को भेजा है। सुग्रीव ने पवनसुत हनुमान को, इन दो तेजस्वी युवकों की जानकारी लेने उनके पास भेजा।
यहां एक नया इतिहास लिखा जा रहा था! युगों-युगों तक जिनके उदाहरण दिए जाएंगे, जिनके दाखिले सुनाए जाएंगे, जिनके कारण किस्से-कहानियां अटी पड़ी रहेगी, ऐसी मित्रता का सूत्रपात होने जा रहा था!
श्रीराम और हनुमान की पहली भेंट!
हनुमान ने अत्यंत विनीत भाव से, उन दो रघुवंशी वीरों के पास जाकर, मधुर वाणी में उनके साथ वार्तालाप प्रारंभ किया। उन्होंने कहा, “वानर शिरोमणियों के राजा, सुग्रीव के भेजने से मैं आपके यहां आया हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं भी वानर जाति का (वनवासी) हूँ।
प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना।
राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान्नाम वानरः ॥२१॥
(किंष्किंधाकांड / तीसरा सर्ग)
हनुमान की यह बातें सुनकर, श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “जिसके कार्य साधक दूत, ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हो, उस राजा के सभी मनोरथ, दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं।
एवं गुणगणैर्युक्ता यस्य स्युः कार्यसाधकाः।
तस्य सिध्यन्ति सर्वाऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिताः॥३५॥
(किष्किंधा कांड / तीसरा सर्ग)
हनुमान की मध्यस्थता से श्रीराम-सुग्रीव की मित्रता हुई। सुग्रीव अपने बारे में सारी जानकारी श्रीराम को दी। ऋष्यमूक के एक शिखर, मलय पर्वत पर बैठकर यह सारा वार्तालाप हो रहा है। सुग्रीव ने बताया कि ‘किस प्रकार से उनके भाई वाली ने, युद्ध में हराकर न केवल राज्य छीन लिया, वरन् उनकी पत्नी भी उनसे छीन ली। अब वह आतंकित होकर, भय के छाये में, वन में, इस दुर्गम पर्वत के आश्रय से रह रहे हैं।
सुग्रीव, श्रीराम से प्रार्थना करते हैं कि अन्याय पूर्वक राज्य और पत्नी को हथियाने वाले वाली का वे वध कर दे। श्रीराम उसे स्वीकार करते हैं।
वे वाली के बारे में अधिक जानकारी लेते हैं। किसी समय वाली ने लंकाधिपति रावण को भी परास्त किया था। किंतु इन दिनों, वह एक प्रकार से रावण के क्षत्रप के रूप में कार्य कर रहा है। इस पूरे क्षेत्र में वाली का आतंक है। मतंग मुनि जैसे श्रेष्ठ महर्षि का भी उसने अपमान किया है। इसलिए मतंग मुनि ने, वाली को शाप भी दिया है।
इसी बीच, सुग्रीव, हनुमान और वानर समूह, श्रीराम-लक्ष्मण को सुवर्णमय उत्तरीय में बांधे आभूषण दिखाते हैं, कि एक स्त्री ने आक्रोश करते हुए यह आभूषण यहां गिराये थे। श्रीराम तत्काल उन्हें पहचान लेते हैं। सीता के वियोग में पुनः वे शोकाकुल हो जाते हैं।
अर्थात, अब तो अब यहां तो तय है, कि रावण, सीता को लेकर लंका में ही गया है। इसका अर्थ है, लंका में जाकर रावण से युद्ध करना और सीता को छुड़ाना।
रावण से युद्ध का अवसर तो श्रीराम अपने वनवास के प्रारंभ से ढूंढ रहे थे। वो अब बन रहा है। किंतु वह भी कैसी परिस्थिति में? जब सीता, रावण की कैद में है, तब!
श्रीराम सोचते हैं। रावण का अंत दैवी चमत्कार के बगैर करना, यह तो पहले से तय है। रावण का वध करेंगे तो जन सामान्य को साथ लेकर। इसके लिए ये वानर, अर्थात वनों में रहने वाले नर, अर्थात वनवासी, उपयुक्त है। इनको संगठित करके रावण का अंत किया जा सकता है।
उसके लिए पहले, वनवासियों में आतंक का पर्याय बने हुए वाली का वध करना आवश्यक है। श्रीराम सुग्रीव को कहते हैं, “वाली को ललकारो। उसके साथ युद्ध करो। बाकी में देख लेता हूँ।
सुग्रीव पहले तो झिझकता है। किंतु बाद में श्रीराम की आज्ञा से वाली को ललकारता है। वाली महाबली है। उत्तम योद्धा है। वह सुग्रीव से युद्ध करने मैदान में आया।
सुग्रीव-वाली का घनघोर युद्ध प्रारंभ हुआ। वाली, सुग्रीव पर भारी पड़ रहा था। यह देखकर, श्रीराम ने अपने तेजस्वी बाण को, वाली पर छोड़ा। बाण के आघात से आहत होकर वाली, जमीन पर गिर गया।
सामने धनुष लिए श्रीराम को देखकर वाली, श्रीराम को फटकारने लगा। उन्हें दूषण देने लगा। ‘अन्याय पूर्वक आक्रमण किया’, ऐसा कहने लगा।
श्रीराम ने इस पर, वाली को विस्तृत रूप से उत्तर दिया। श्रीराम ने कहा, “वानर राज, तुम धर्म से भ्रष्ट हो। स्वेच्छाचारी हो गए हो। और अपने भाई की स्त्री रूमाका का का उपभोग लेते हो। तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हें यह दंड दिया गया है।
तद्व्यतीतस्य ते धर्मात्कामवृत्तस्य वानर।
भ्रातृभार्यावमर्शेऽस्मिन्दण्डोऽयं प्रतिपादितः॥२०॥
(किंष्किंधाकांड / अठारहवा सर्ग)
श्री राम के तर्कों से संतुष्ट वाली, अपने अपराध के लिए क्षमा मांगते हुए देहत्याग करता है।
श्रीराम, किष्किंधा पर, सुग्रीव का राज्याभिषेक करवाते हैं। वाली पुत्र अंगद को युवराज के रूप में स्थापित करते हैं। इस पूरे समारोह में, श्रीराम प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं रहते।
श्रीराम की योजना है, रावण से लड़ने हेतु सेना के निर्माण की। रावण बलशाली है, धनवान है, अस्त्र-शस्त्रों से परिपूर्ण है, यह जानकारी श्रीराम को है। ऐसे बलाढ्य और शक्तिशाली असुर का निर्दालन करने, एक सशक्त और मजबूत सेना की आवश्यकता है।
इस हेतु श्रीराम-लक्ष्मण, प्रस्त्रवणगिरी पर निवास कर रहे हैं।
हनुमान की सहायता से, वे लक्ष्मण के साथ, वानरों अर्थात वनवासियों को युद्ध का प्रशिक्षण दे रहे हैं। सुग्रीव की सेना के अधिकारी, इस सैन्य प्रशिक्षण में सहायता कर रहे हैं। यह वर्षा ऋतु का समय है। चाहते तो श्रीराम-लक्ष्मण, इसी ऋतु में लंका के समीप पहुंच जाते। किंतु रावण का निर्दालन करने, सेना आवश्यक है, जिसकी तैयारी यहां चल रही है।
वर्षा ऋतु समाप्त होते-होते, श्रीराम की सेना, प्रशिक्षित होकर तैयार है, रावण का सामना करने के लिए..!
ऐसे समय, श्रीराम लक्ष्मण को कहते हैं, “जाओ, सुग्रीव से कहो, अब हम हमारी यह सेना लेकर, लंका की दिशा में बढ़ चलेंगे..!”
और पढ़ें : लोकनायक श्रीराम – 8
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