✍ गोपाल माहेश्वरी
सुभाष जी एक सेवानिवृत्त आचार्य थे। लेकिन प्रतिदिन शाला के खेल मैदान पर आने का उनका क्रम अखंड व्रत की भांति था। आते और मैदान के किनारे वाले पीपल के पेड़ को घेरकर बने चबूतरे पर बैठे रहते। लोग कहते यह पीपल सुभाष जी का ज्ञान पीठ है और यह मैदान खुली संस्कार शाला।सफेद स्वच्छ धोती-कुर्ता पहन, सदा प्रसन्न दिखने वाले सुभाष जी इस मैदान पर खेलते बच्चों के सहज अभिभावक ,शिक्षक और न्यायमूर्ति भी थे। कौन बच्चा आज क्यों नहीं आया? यह चिंता सबसे पहले उन्हें ही होती। वे प्रत्येक नए बच्चे का स्वागत और परिचय अवश्य करते, चाहे वह थोड़े दिन के लिए ही अपने नाना, दादा, काका, मामा भुआ के यहां ही आया हो।
यह परिचय भी बड़ा मनोरंजक तो होता ही ज्ञानवर्धक भी होता। कभी वे उसके नाम का अर्थ पूछने-बताने लगते। उस नाम की कोई पौराणिक कहानी सुनाने लगते, तो कभी कोई ऐतिहासिक घटना, कभी-कभी किसी गीत या कविता की पंक्तियाँ जिनमें वह नाम आता हो बच्चों को याद करवा देते। इस अनूठी मनोवैज्ञानिक पद्धति के परिणाम भी स्पष्ट दिखाई देते थे। इन बच्चों से प्रायः जो भी उनका नाम पूछता उसे वे केवल नाम नहीं बताते, उसका अर्थ या कहानी या कविता भी बताते। यह पूछने वाले पर एक अलग ही प्रभाव डालता है। इनमें वे बच्चे भी होते जिन्हें अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़ना पड़ता था। इनमें से कुछ ही बड़े विद्यालयों में जाते अधिकांश तो उन विद्यालयों में ही पढ़ने जा रहे थे जो विद्यालय अंग्रेजी माध्यम का नाम बताकर पढ़ाने का मिला-जुला माध्यम ही अपनाए हुए थे। ऐसे विद्यालयों का मायावी आकर्षक प्रयोग होता कि बच्चे अंग्रेजी में परिचय देना सीख जाऍं?
सुभाष जी यहीं से उपचार आरंभ करते। बाकी सब चाहे अंग्रेजी में कहो पर परिचय का आरंभ ‘माय नेम इज माधव या माय सेल्फ जानकी’ अथवा ‘आय एम आशुतोष’ से नहीं ‘मेरा नाम माधव है या मैं जानकी हूँ अथवा मैं आशुतोष’ से ही होना चाहिए। वे किसी को ‘कोई काम ऐसे नहीं करो कि अपेक्षा यह काम ऐसे करो’ कह कर सिखाने के अभ्यस्त थे। नाम और परिचय को लेकर उनके अपने तर्क थे। वे पूछते “बताओ माधव का कोई अर्थ पूछे तो हिंदी में दस अर्थ बताओगे इस नाम से जुड़ी चार कहानी या एक-दो श्लोक बता सकते हो। यह भी बता सकते हो कि यह नाम किन-किन महापुरुषों का रहा है। यह सब अंग्रेजी में समझाना सरल है या अपनी भाषा में? अंग्रेजी वाक्य में जोड़कर माधव के पर्यायवाची भी बताना तो हिंदी या संस्कृत में ही पड़ेंगे न?”
कोई बहुत अपना-सा बनकर बच्चों का हृदय खोल दे तो मस्तिष्क अपने-आप खुलने लगता है। ऐसे में रट्टा मारने की आवश्यकता ही नहीं रहती सारी सीख हृदय में घुलती जातीं हैं, और चाहे शब्द बदल जाऍं बच्चे उसे अपने शब्दों में समझा सकने जैसा समझ जाते हैं। इन बच्चों के भी जिज्ञासा भरे प्रश्नों का जैसा सम्मान यहाँ होता वैसा तो घर, कक्षा या मित्र मंडली तक में भी नहीं होता।
राजाराम ने तर्क किया “ॳग्रेजी में क्यों नहीं कह सकते? हमारी मैम कहती है अंग्रेजी में भी सब कह सकते हैं।”
सुभाष जी ने समझाया “ठीक है राजाराम! कोई भी भाषा हो वह हमारे भावों की अभिव्यक्ति कर सकती है लेकिन हमारी स्वदेशी भाषा में यह जैसी सरल होती है उतनी विदेशी भाषा में नहीं।”
अचानक वे बोले “क्यों विभाष! इतने असहज क्यों हो?”
“कुछ नहीं आज मैं किसी और का कुर्ता पहन आया, बड़ा फंसा-फंसा सा है। मुझे दिखने में सुंदर लगा तो पहन लिया था।”
“तो सुंदर कुर्ते फंसे विभाष को कुर्ता पहनने का आनंद नहीं आ रहा है। है न?” वे हॅंसे तो बाकी बच्चे भी खिलखिलाकर हंस पड़े।
विभाष को चिढ़ हुई। सुभाष जी भी यह समझ गए थे। उन्होंने उसे बुलाकर स्नेह से पास बैठाया और उसका कुरता उतारकर रख दिया।
अब विभाष आधी बांह वाल बनियान में था “दूसरे के कुर्ते से अपनी बनियान में अच्छा लग रहा है न? फिर बेटा! खेल के मैदान के लिए कुर्ता वैसे भी ठीक वेश नहीं है।” सुभाष जी ने दुलार भरे स्वर में उसकी पीठ पर हाथ रखकर थपथपया। अब वे फिर अपने मूल विषय पर आ गए। “जैसे विभाष इस कुर्ते की चमक-दमक से ललचाकर कुर्ते में फंस गया था और उसका मन न खेल, न कहानी, किसी में बात नहीं लग पा रहा था। वह था तो अपनों के बीच पर कुर्ते में फंसा हुआ सबसे अलग-थलग अपनी ही छटपटाहट में उलझा था। जिसे वह हम सबको बताने मैं भी संकोच कर रहा था। वैसे ही अपनी भाषा व विदेशी भाषा के बीच अंतर अनुभव होता है। अच्छा बताओ राजाराम! अब तुम्हें अंग्रेजी में लार्ड रामा कहेंगे क्या?”
राजाराम चौंका “यह कैसे? नाम का अनुवाद नहीं होता। मैं राजाराम हूँ और अंग्रेजी क्या संसार की किसी भी भाषा में राजाराम ही कहलाऊॅंगा।”
“ठीक है बेटा! पर नाम की ही तरह उसका अर्थ, भाव, उसकी सांस्कृतिक भूमिका जो अपनी मातृभाषा में सहजता से खुलेपन से अनुभव हो सकते हैं वे अन्यभाषा में उतनी सहजता से जानना समझना कठिन होता है। राजाराम कहते ही भगवान रामचंद्र की सुंदर छवि मस्तिष्क में प्रगट होने लगती है, राजा को लार्ड कहा तो किसी अंग्रेज शासक का चित्र उभरेगा जो राम से मेल न खाएगा और हमारे मन मस्तिष्क में उलझन उत्पन्न करने लगेगा।”
“ऐ सुशी! ठीक से बैठ।” निर्मला बीच में बोल पड़ी।
“ठीक ही बैठी हूँ निरमा!” सुशीला ने पलटवार किया। सुभाष जी ने कुछ डाटने वाले स्वर में टोका “क्या है यह? सुशीला! निर्मला!”
वे सकपकाईं “कुछ नहीं कुछ नहीं हम तो बस वैसे ही।”
“वैसे ही नहीं, तुम्हारी आपस की बात तुम जानो पर यह नाम बिगाड़कर बोलना अच्छी बात नहीं है।इससे नाम का अर्थ खंडित होता है।”
राघव ने पूछा “लेकिन हमारे बड़े भी हमें लाड़ से घर के नाम से बुलाते हैं!”
“देखो बच्चो! यह रहस्य भी समझ लो। मूल नाम छोटा करने पर वह प्राय: हमारे लिए ही रह जाता है कई बार तो उसका कोई शाब्दिक अर्थ ही नहीं निकलता। वह केवल कहने व सुनने वाले दो ही व्यक्ति के बीच व्यवहार में आए तो अनन्य प्रेम का, स्नेह का प्रतीक है। लेकिन जब वह इतना सार्वजनिक हो जाए कि मूलनाम ही भूला-सा रह जाए सब लोग उसे ही व्यवहार में लाएं तो उपहास का कारण होता है। जैसे नन्दकिशोर को उसकी माँ नंदू कहे तो अलग बात है पर सब लोग नंदू कहने लगे तो ठीक नहीं।”
एक बच्चे का नाम सचमुच नन्दकिशोर था वह खडा़ होकर बोला “ये बबलू मुझे हमेशा नंदू-नंदू कहता है।”
सुभाष जी ने कहा “बबलू! अब ऐसा नहीं करना बेटा! बबलू ने कहा “अब नहीं कहूंगा ऐसा। लेकिन मेरे नाम का क्या अर्थ है यह तो बताइए।”
सुभाष जी खड़े होते हुए बोले “देखो कई नाम ऐसे रख दिए जाते हैं जिनका कोई निश्चित अर्थ नहीं होता जैसे बंटी, पिंकू, बबली, मोन्टी, पप्पू, विक्की, रानू और भी कई, पर ऐसे बिना अर्थ या जिनका अच्छा अर्थ न हो बिना सोचे-समझे ऐसे नाम हमारे व्यक्तित्व पर कुप्रभाव डालते हैं। नाम हमारे व्यक्तित्व का एक अदृश्य पर महत्वपूर्ण भाग है। इसलिए अपना नाम एक अर्थपूर्ण और समझने और पुकारने में सरल होना चाहिए। नाम से हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। ‘यथा नाम तथा गुण’ की कहावत ऐसे ही नहीं बन गई। सोच-समझकर नामकरण हो तो हम अपने माता-पिता की आकांक्षा और स्वयं भी अपने नाम के अनुरूप गुणों को बढा़ने के लिए प्रेरित होते हैं। कई बार ‘नाम बड़े और दर्शन खोटे ‘ की स्थिति भी बन जाती है क्योंकि हम अपने नाम का महत्व ही नहीं समझते हैं।”
वाणी ने अनुरोध भरे स्वर में कहा “बड़ा अच्छा लग रहा है। आप कुछ और भी बताइए न।” बाकी भी बच्चों ने कहा “हाँ हाँ, और भी कुछ बताइए।”
सुभाष जी दो पल रुके फिर बोले “हमारा नाम हमारी भाषा में ही होना चाहिए, स्वभाषा में।”
“यह स्वभाषा क्या?” राधिका ने टोका।
“स्वभाषा अर्थात अपनी भाषा जो सहज रूप से हमारे घर-परिवार, आसपास के लोग बोलते हैं।” माधुरी बोली।
“हाँ और जिसमें हमारे इतिहास, संस्कृति, विशेषताओं को परंपरा से बताया जाता रहा हो। जिसे हम बचपन से सुनते समझते बोलते रहे हों।” सुभाष जी ने और विस्तार किया।
“हमारी मातृभाषा।” रागिनी ने जोड़ा।
“जिसे हमसे घर में हमारी माँ बोलती है।” बलवंत ने और सरल किया।
“हाँ, बिल्कुल ठीक कहा रागिनी और बलवंत ने लेकिन स्वभाषा वे भी हैं जो हमारी भारत माता की भाषा संस्कृत, उड़िया, मराठी, गुजराती, असमिया, तमिल, कन्नड़, तेलुगू मलयालम आदि। ये सब भी हम सब भारतीयों की स्वभाषाएं ही हैं। इन्हें समझना, बोलना, इनके शब्दों का अपनी मातृभाषा में आवश्यकतानुसार उपयोग भी करना स्वभाषा की आराधना ही है।”
“अच्छा! इतनी सारी भाषाएं हैं हमारी तो फिर विदेशी भाषा को इतना महत्व देना तो भाषा माँ का अपमान होगा।” विनीता के मन की गहराई से निकली यह बात बाकी बच्चों के मन में भी उतरती चली गई।
“इसलिए सब अपने परिचय का पहला वाक्य तो मातृभाषा में ही बोलने का संकल्प करो। मातृभाषा में कहा गया किसी भाषण का पहला ही वाक्य बता देता है तुम कौन हो, कहाँ से हो। तुम्हारा कहा अपने परिचय का पहला वाक्य तुम्हारे आगे प्रस्तुत किए जाने वाले विषय का सांस्कृतिक बोध चिन्ह है।” सुभाष जी ने उचित अवसर जानकर दृढ़ता से कहा।
रागिनी ने कहा “बोधचिन्ह यानी ट्रेडमार्क?”
“नहीं, ट्रेडमार्क व्यावसायिक पहचान चिह्न है, बोध शब्द बहुत गहरा और व्यापक है। इसे ही समझो, अनुवाद के फेर मत उलझो।” बच्चे स्वीकारसूचक सिर हिला रहे थे पर आज के लिए इतना ही पर्याप्त समझकर सुभाष जी बात को समेटने के उद्देश्य से बोले “परिचय या संबोधन भर अपनी भाषा में करके यदि इतना बड़ा काम हो सकता है तो पूरी बात या भाषण ही अपनी भाषा में हो तो बात ही क्या? हम विदेशी भाषा में बोलकर प्रायः चमत्कार दिखाते हैं पर अपनी भाषा में बोलकर प्रभावित कर सकते हैं।”
“हाँ, हम यही करेंगे।” कई स्वर एक-साथ उठे जो मुठ्ठियां बांधे बच्चों के कंठ नहीं हृदय से निकले थे।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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