✍ वासुदेव प्रजापति
नई व्यवस्था का विचार
हमें भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु नई व्यवस्था का विचार करना होगा, शिक्षा का एक नया प्रतिमान गढ़ना होगा। एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करते समय हम सरल से कठिन की ओर बढ़ सकें। तथा शिक्षकों के सूत्र संचालन में सर्वसामान्य लोगों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षा व्यवस्था की निन्दा न करते हुए अपनी योजना की क्रियान्विति में ही ध्यान केन्द्रित करें।
क्रियान्वयन की एक दिशा तो यह है कि दस वर्ष की आयु तक माता-पिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दे। घर ही विद्यालय की भूमिका का निर्वहन करे। इसमें चरित्र निर्माण, कार्य कुशलता, साक्षरता और व्यावहारिक गणित व विज्ञान की शिक्षा देने की व्यवस्था हो। जिस प्रकार अन्न-वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है, उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर ही हो। जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए माता-पिता को अर्थार्जन करना पड़ता है, ठीक वैसे ही बच्चों को शिक्षा देना भी एक आवश्यक काम होना चाहिए। घर की वृद्ध मंडली इसमें मूल्यवान सहयोग कर सकती है।
तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए नहीं, उनके माता-पिताओं के लिए विद्यालयों की आवश्यकता अवश्य है। यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है, उसमें भी विशेषकर वानप्रस्थियों का है। गृहस्थी विद्वानों को नहीं अपितु वानप्रस्थी विद्वानों को यह काम अपने हाथ में लेना चाहिए। वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों को समाजसेवी संस्था के रूप में अभिभावकों के लिए ऐसे विद्यालय चलाने चाहिए। ये विद्यालय पूर्णतया निशुल्क, परीक्षा विहीन और अनौपचारिक होने चाहिए। परन्तु इनमें विनय, अनुशासन, नियम पालन और आज्ञा पालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिए। इन विद्यालयों में परीक्षा और पैसे का नहीं, संस्कार और श्रद्धा का बन्धन होना चाहिए।
इन विद्यालयों में किन्हीं बाहरी नियमों की अनिवार्यता माता-पिता के लिए नहीं होनी चाहिए। अपितु प्रबोधन के माध्यम से उनकी आन्तरिक प्रेरणा ही जगानी चाहिए। जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथा श्रवण करना सबके लिए अनिवार्य नहीं होता है, फिर भी लोग जाते हैं, उसी प्रकार इन विद्यालयों में स्वैच्छा से जाना आवश्यक माना जाना चाहिए। यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अपराध माना जाना चाहिए।
उत्पादन केन्द्रों पर शिक्षा दी जाय
दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यार्थियों के लिए जो विद्यालय हों, वे व्यवसायों के आधार पर निश्चित होने चाहिए। दस वर्ष के विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना चाहिए। यह व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है। अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
इस दृष्टि से जितने भी उत्पादन केन्द्र हैं, उन सभी केन्द्रों को अपने उत्पादन से सम्बन्धित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। यह शिक्षा निशुल्क हों, इतना मात्र पर्याप्त नहीं हैं। इनमें पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों की पढ़ाई के लिए अन्य खर्चों की भी व्यवस्था करनी चाहिए। परन्तु इस बात की पूर्ण सावधानी भी रखनी चाहिए कि इसमें बाल मजदूरी का कानून, निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून तथा शिक्षा संस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बनें। इसके लिए शिक्षक, उद्योगपति, विद्वज्जन, धर्माचार्य आदि सरकार से बातचीत करके सब प्रकार की अनुकूलता निर्माण करें। शिक्षा के हित में सबका योगदान हो, यह अपेक्षित है।
हमारे दैनन्दिन जीवन से जुड़ी हुई जितनी भी बातें हैं, उन सबके जानकर लोगों को उन बातों की शिक्षा देने की व्यवस्था करनी चाहिए। हम वैद्य का उदाहरण लें, उनका काम केवल चिकित्सा करना नहीं है। वे चिकित्सा के साथ-साथ लोगों को स्वास्थ्य रक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस का प्रबोधन करें और माता-पिता के लिए चलने वाले विद्यालयों में आहार शास्त्र, आरोग्य शास्त्र, स्वच्छता आदि की व्यावहारिक शिक्षा दें। इन्हीं विद्यालयों में शिशु के लालन-पालन की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। व्यवसायों से जुड़े विद्यालयों में व्यवसाय का एक केन्द्रवर्ती विषय तो हो परन्तु साथ में संस्कृति, समाज, देश-दुनिया व धर्म की शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिए। क्योंकि हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है अपितु सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज बनाना है।
इन उत्पादन केन्द्रों के मालिकों को अपने उत्पादनों के विषय की शिक्षा देनी आनी चाहिए तथा धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, योग व संगीत के शिक्षकों की सहायता भी लेनी चाहिए। देश की नई पीढ़ी का शरीर स्वास्थ्य, मनोस्वास्थ्य, व्यवहार दक्षता, कार्य कुशलता और विवेक आदि सभी गुणों के विकास के लिए ऐसी शिक्षा आवश्यक है। इन विद्यालयों में शुल्क, नौकरी, परीक्षा व स्पर्धा जैसे दूषणों का प्रवेश न हों, इसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए।
सोलह वर्ष में अर्थार्जन शुरु हो जाय
सोलह वर्ष के होते होते प्रत्येक तरुण विद्यार्थी का उत्पादन और अर्थार्जन शुरु हो जाय, इसको अनिवार्य बनाना चाहिए। इन विद्यालयों को आर्थिक स्वावलम्बन, स्वाभिमान, स्व-गौरव से युक्त ऐसे युवा निर्माण करने चाहिए जो स्वतन्त्र व्यवसाय करें, परन्तु यह विचार न करें कि नौकरी में सुरक्षा है।
सोलह से पच्चीस वर्ष की आयु में दो-तीन आयामों से विचार किया जाना चाहिए। इसमें गृहस्थाश्रम की शिक्षा सबके लिए प्रमुख विषय हो, इसके साथ में समाज शास्त्र, संस्कृति, धर्म, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि सभी बातों का समावेश होना चाहिए। दूसरा आयाम हमारे मूल शास्त्रों के अध्ययन व अनुसंधान का है और तीसरा आयाम अपने व्यवसाय का प्रगत ज्ञान प्राप्त करना है। तीसरे में गृहस्थाश्रम की शिक्षा अनिवार्य हो, शेष दो में चयन की स्वतन्त्रता दी जा सकती है।
स्पष्ट है कि शास्त्रों का अध्ययन ज्ञान का सांस्कृतिक पक्ष है और व्यवसाय का प्रगत ज्ञान भौतिक पक्ष है। स्वाभाविक है कि भौतिक पक्ष का चयन करने वालों की संख्या अधिक होगी जबकि सांस्कृतिक पक्ष की कम, यह अपेक्षित भी है। शास्त्रों के अध्ययन और अनुसंधान के लिए तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बुद्धि के साथ सादगी, संयम, लोकहित की कामना और तपश्चर्या की आवश्यकता होगी। और भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु व्यावहारिक बुद्धि, धर्माचरण की तत्परता और समाज सेवा की भावना अपेक्षित है। दोनों ही पक्षों की समाज को आवश्यकता है। मोटा मोटा गणित यह कहता है कि शास्त्रों के अध्ययन हेतु दस से बीस प्रतिशत और व्यवसाय हेतु शेष अस्सी प्रतिशत विद्यार्थी उपलब्ध होंगे। प्रगत अध्ययन हेतु कुल विद्यार्थी संख्या के पच्चास प्रतिशत भी उपलब्ध हों तो बहुत हैं, शेष सभी प्रत्यक्ष उत्पादन कार्य में लगें, यह आवश्यक है।
शास्त्रों के अध्ययनार्थ गुरुकुल हों
बाबूगिरी, व्यवस्थापन, परिवहन आदि कार्यों में बहुत लोग नहीं लगने चाहिए। ये सब अनुत्पादक खर्च बढ़ाने वाले काम हैं। उत्पादन कार्य करने वाले ही अधिकाधिक संख्या में होने चाहिए। पन्द्रह वर्ष की आयु के बाद के अध्ययन हेतु प्रवेश के मापदण्ड अत्यन्त कठोर होने चाहिए, तभी गुणवत्ता बढ़ेगी।
शास्त्रों के अध्ययन के लिए वास्तव में गुरुकुल ही स्थापित होने चाहिए और उनमें ज्ञान साधना होनी चाहिए। गुरुकुलों में परीक्षा, प्रमाणपत्र, पदवी आदि सब कुछ हो सकता है, जो गुरुकुलों के द्वारा ही दिए जाने की व्यवस्था होगी। यह दस वर्ष की अवधि का अध्ययन होगा। ये गुरुकुल ज्ञानविश्व के और देश के गौरव को बढ़ाने वाले होंगे। इनमें विद्यार्थी ब्रह्मचारी हों और आचार्य गृहस्थ हो सकते हैं, होने भी चाहिए। ये गुरुकुल अनिवार्य रूप से आवासीय होने चाहिए। इनमें वैश्विक और सनातन सन्दर्भों सहित युगानुकूल शिक्षा का स्वरूप विकसित होना चाहिए। भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन और नई विद्या शाखाओं का निर्माण यहाँ होना अपेक्षित है। इन गुरुकुलों में गुरुकुल संचालकों की भावी पीढ़ी अनिवार्य रूप से तैयार होनी चाहिए। साथ ही माता-पिता की शिक्षा की जो व्यापक व्यवस्था है, उसके लिए भी मार्गदर्शन की योजना यहीं बननी चाहिए।
विद्यालयों के लिए करणीय प्रयास के प्रारम्भ में कामना की गई थी कि शिक्षा का वर्तमान ढ़ाँचा पूर्ण रूप से ध्वस्त हो जाय, परन्तु ऐसा होने के लिए दैवी चमत्कार और कठोर तपश्चर्या की आवश्यकता है। ऐसी तपश्चर्या जब तक प्रारम्भ होकर बलवती नहीं होगी तब तक वर्तमान ढ़ाँचा बना ही रहेगा। उसको विचार में लाने की बाध्यता भी बनी रहेगी। अब तक शिक्षा को रोगमुक्त करना, शिक्षा को स्वायत्त बनाना, वर्तमान ढ़ाँचे की परिष्कृति करना और नई व्यवस्था का विचार करना जैसे बिन्दुओं पर विचार हुआ है, वह पर्यायी व्यवस्था है। वर्तमान व्यवस्था के चलते ही पर्यायी व्यवस्था बनाना शुरु हो जाना चाहिए। वह प्रभावी बनने के बाद ही वर्तमान ढ़ाँचा समाप्त होगा। पर्यायी ढ़ाँचे का विकास तपश्चर्या का भाग है। यह तपश्चर्या करने के लिए समाजसेवी शिक्षकों को आगे आना ही होगा, तभी भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा सम्भव होगी।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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