✍ वासुदेव प्रजापति
वर्तमान ढ़ाँचें की परिष्कृति
शिक्षा के वर्तमान ढाँचें में सबसे पहले आन्तरिक परिष्कृति की आवश्यकता है। आन्तरिक परिष्कृति के उपाय बहुत सरल नहीं तो बहुत कठिन भी नहीं हैं। कुछ भी किए बिना इतने भीषण रोग को दूर करने के उपाय हम कैसे कर पाएँगें?
पहला कठिन उपाय है अपनी सन्तानों को पाँच वर्ष की आयु तक विद्यालय नहीं भेजना। सम्पूर्ण विश्व के सभी शिक्षा शास्त्री इस विषय पर एकमत हैं कि बालक व बालिका को पाँच वर्ष से पहले औपचारिक शिक्षा नहीं देनी चाहिए। भारत में तो यह व्यवस्था युगों से प्रस्थापित है, इसलिए आज भी मान्य होनी चाहिए। परन्तु हमारा मानस ही इसे स्वीकार नहीं कर रहा है। इस छोटी सी परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात के लिए हमें अभियान चलाने पड़ेंगे। एक ओर बच्चों के अभिभावकों को समझाना पड़ेगा, वहीं दूसरी ओर विद्यालय के संचालकों को समझाना पड़ेगा कि वे ऐसे विद्यालय न चलावें। बाजारीकरण के प्रभाव के चलते शिशु शिक्षा का यह क्षेत्र भरपूर आमदनी वाला क्षेत्र है। इसलिए इससे परावृत करना अति कठिन कार्य है। परन्तु अनेक उपायों का अवलम्बन लेकर इसे करना होगा।
इसके साथ ही गर्भाधान से पाँच वर्ष तक के शिशु की शिक्षा संस्कारों के माध्यम से घरों में हो, इस दृष्टि से माता-पिता को व्यावहारिक, भावात्मक और ज्ञानात्मक शिक्षा देने की व्यवस्था विद्यालयों में करनी होगी। शिक्षा शास्त्र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्था और शिशु अवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पड़ेगा, और साहित्य भी निर्माण करना होगा।
पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या बढ़े
आज देश में सरकारी और गैर सरकारी, लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं। इनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या करोडों में होगी। इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक उन्हें पढ़ावे तो सही। आठ वर्ष तक पढ़ने के बाद भी विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना भी नहीं आता है तो उसका जिम्मेदार शिक्षक ही है। पढ़ाना शिक्षक की इच्छा पर निर्भर करता है। कोई भी नियम, कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता। यदि शिक्षक न पढ़ावे तो कोई कुछ नहीं कर सकता। हम तो केवल भगवान से यह प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वे शिक्षकों के हृदय में पढ़ाने की इच्छा जाग्रत करें।
आज भी न पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या शून्य नहीं हुई है। यह देश व विद्यार्थियों का भाग्य ही है जो अभी समाप्त नहीं हुआ है, यह इस बात का प्रमाण है। हम प्रार्थना करें कि भगवान पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या बढ़ावें। नहीं पढ़ाने का ठेका केवल प्राथमिक विद्यालयों तक सीमित नहीं है, इसका विस्तार विश्वविद्यालयों तक हुआ है। यही कारण है कि वहाँ के शोध निबन्ध अत्यन्त ही घटिया स्तर के होते हैं, जो पीएचडी की पदवी प्राप्त करने हेतु लिखे जाते हैं। आज की शिक्षा व्यवस्था न पढ़ाने वाले छोटे से छोटे या बड़े से बड़े शिक्षक का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती, क्योंकि ऐसा करने की उसमें क्षमता ही नहीं होती। जिस प्रकार निर्जीव मृतदेह किसी पेड़ के सूखे पत्ते को हिला भी नहीं सकती, उसी प्रकार जड़ व्यवस्था एक जीवित शिक्षक का कुछ नहीं कर सकती।
शिक्षकों को हाथ जोड़कर, शीश झुकाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनकी अनुनय-विनय करके, उनमें विश्वास जताकर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर तथा उन्हें प्रार्थना करके ही पढ़ाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है। विधायक और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है। हमारा निवेदन जितना सही होगा, उतनी ही अधिक संख्या में हमें सही शिक्षक मिलेंगे। हमारा निवेदन जितना नकारात्मक होगा, उतने ही गैर जिम्मेदार शिक्षक मिलेंगे। यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगों के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है। ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं, उन विद्यालयों के लिए विचारणीय व करणीय बातें आगे बताई गई हैं।
प्राथमिक में परीक्षा व स्पर्धा नहीं
प्राथमिक विद्यालयों में शुद्ध उच्चारण, शुद्ध लेखन, व्यावहारिक गणित, अधिकाधिक कंठस्थीकरण, अधिकतम क्रियाकलाप और नाच-गाना भी अपेक्षित हैं। परन्तु दस वर्ष की आयु तक परीक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। सरकार ने भी शिक्षा शास्त्रियों के परामर्श से परीक्षा न लेने का नियम बनाया था जो कहीं-कहीं पर अभी भी है। परन्तु कुछ शिक्षकों ने इसका यह अर्थ निकाल लिया कि ‘जब परीक्षा ही नहीं तो पढ़ाई किसलिए?’ यह सूत्र लेकर चलने वाले शिक्षकों ने पढ़ना-पढ़ाना बन्द कर दिया। यह सूत्र भी सही शिक्षकों के विद्यालयों में ही चल सकता है, जो पढ़ाते ही नहीं हैं, उनके लिए किसी भी नियम का होना या नहीं होना दोनों बराबर है।
जिस प्रकार परीक्षा नहीं उसी प्रकार स्पर्धा या प्रतियोगिता को भी हटा देना चाहिए। यह पूर्णतया अमानवीय और अशैक्षिक है। यह विकास का अवरोधक भी है। आज विज्ञान, तन्त्रज्ञान, संगणक, अंग्रेजी व प्रबन्ध आदि विषयों की शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। किन्तु जीवन के सांस्कृतिक पक्ष की घोर उपेक्षा की जाती है। इतिहास, समाज शास्त्र, धर्म शास्त्र, गृह शास्त्र और अर्थ शास्त्र जैसे विषयों की व्यावहारिक शिक्षा सभी स्तरों पर अनिवार्य होनी चाहिए। सामाजिक दायित्व बोध और कृतिशील देशभक्ति ऐसे विषय हैं, जिसके बिना कोई भी व्यक्ति सही अर्थ में भारत का नागरिक नहीं बन सकता। इन दोनों विषयों की शिक्षा घर, विद्यालय व समाज में सर्वत्र देने की व्यवस्था बनानी चाहिए।
स्वतन्त्र चिन्तन विकसित हो
आज के विद्यार्थियों को विचार करना नहीं सिखाया जाता। परिणाम स्वरूप उनका स्वयं का चिन्तन विकसित नहीं होता, उनका अपना मत नहीं बनता। वे केवल तोतारटन्त करते हैं और दूसरों के मत से चलते हैं। उन्हें वैचारिक स्वतन्त्रता का लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता। इसलिए किशोरावस्था में विचार आधारित शिक्षा दी जानी चाहिए। विचार आधारित शिक्षा मिलने से युवावस्था में स्वतन्त्र चिन्तन विकसित हो सकेगा।
स्वतन्त्र चिन्तन की शक्ति अनुसंधान के लिए अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में न मौलिक अनुसन्धान होता है और न युगानुकूल अनुसन्धान। इसलिए युवावस्था की शिक्षा को चिन्तन आधारित बनाना चाहिए। छोटी आयु में तो बहुत अधिक पाठ्यक्रम और भारी बस्ता होता है, परन्तु आयु बढ़ने के साथ-साथ पढ़ाई कम होती जाती है, उसकी गुणवत्ता का भी ह्रास होता जाता है। पन्द्रह वर्ष की पढ़ाई के बाद प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी को समय और श्रम के हिसाब से कुछ भी नहीं आता। यह मात्र व्यक्ति ही नहीं राष्ट्र की मानसिक और बौद्धिक सम्पदा का अपव्यय है।
मन की शिक्षा व संस्कारिता का अभाव
हमारे देश में प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक किसी भी स्तर के पाठ्यक्रम में मन का विषय ही नहीं है। इसका परिणाम सामाजिक अशान्ति और व्यक्तिगत स्तर पर निराशा, हताशा जैसे आत्मघाती मानस के रूप में दिखाई देता है। इसका उपाय सभी स्तरों पर करने की आवश्यकता है। इसी प्रकार संस्कारिता का अभाव भी सर्वत्र दिखाई दे रहा है। सभ्यता और शिष्टता कम हो रहे हैं। मानवता कम हो रही है, आसुरी वृत्ति बढ़ रही है। इसका भी चिन्तन करने की आवश्यकता है।
आज विद्यालयों में संचालकों और शिक्षकों में मालिक और नौकरों जैसे सम्बन्ध दिखाई देते हैं। अभिभावकों व शिक्षकों में ग्राहक और सेल्समैन जैसे तथा अभिभावकों व संचालकों में ग्राहक और व्यापारी जैसे सम्बन्ध बन गए हैं और शिक्षा का क्षेत्र बाजार बन गया है। इस स्थिति में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा की कोई सम्भावना नहीं है। इस विषम स्थिति को बदलने के लिए तीनों का मानस बदलने की आवश्यकता है।
मानस परिवर्तन की प्रक्रिया के सूत्रधार शिक्षकों को ही बनना पड़ेगा। शिक्षा को बाजार बनने से बचाने का काम शिक्षकों का ही है। यदि वे स्वयं को नौकर मानते हैं और उस स्थिति को स्वीकार कर लेते हैं तो शिक्षा का सम्मान बना रहे, इसका कोई उपाय नहीं है।
शिक्षक स्वयं को आचार्य बनाएँ
शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्धों को पिता और पुत्र के सम्बन्ध में बदलना शिक्षक के हाथ में है। यदि शिक्षक को विद्यार्थी प्रिय लगने लगे तो यह रूपान्तरण सहज होता है। जब शिक्षक के हृदय में प्रेम होता है तब विद्यार्थी के मन में शिक्षक के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है। शिक्षक स्वयं का आचार्य में रूपान्तरण करे, यह आवश्यक है और वह चाहे तो सम्भव भी है। क्योंकि स्वयं का रूपान्तरण करना उसके ही अधिकार क्षेत्र की बात है। शिक्षक आचार्य बनकर विद्यार्थी का चरित्र निर्माण करता है। चरित्र केवल भावनात्मक नहीं होता, आचारात्मक भी होता है। विद्यार्थियों को आचारवान बनाकर शिक्षक आचार्य बन सकता है।
जब शिक्षक अपने आपको आचार्य में रूपान्तरित करता है, तब विद्यार्थी की सही शिक्षा प्रारम्भ होती है। विषयों के जानकार विद्यार्थी जब चरित्रवान बनते हैं, तब वे शिक्षित कहे जाने योग्य बनते हैं। भारत में शिक्षित व्यक्ति का चरित्रवान होना अपेक्षित है। आज की आधुनिक सोच यह है कि ज्ञान और चरित्र का कोई सम्बन्ध नहीं है, जबकि भारत का मानना है कि ज्ञान और चरित्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब शिक्षक विद्यार्थी के आदर का पात्र बनता है, तब वह आदर अभिभावकों में भी संक्रान्त होता है। आचारवान शिक्षक स्वयं के चरित्र से भी अभिभावकों के आदर का पात्र बनता है। यदि शिक्षक ही स्वयं को आचारवान न बनाना चाहे तो उसे पैसा अवश्य मिलेगा परन्तु आदर नहीं मिलेगा।
आज शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु है
यंत्रों के इस युग में शिक्षा भी यांत्रिक हो गई है। यांत्रिक होकर वह बाजार में खरीदी व बेची जाने वाली वस्तु बन गई है। इस निर्जीव बनी शिक्षा को पुनः जीवमान बनाने की प्रक्रिया शिक्षक के आचार्य बनने की प्रक्रिया के साथ जुड़ी है। शिक्षक आचार्य बनकर अपने साथ शिक्षा को भी सम्मान दिलाता है। जब शिक्षक विद्यार्थी और अभिभावकों के आदर का पात्र बनता है, तब संचालक भी उसका आदर करने लगते हैं। यदि शिक्षक स्वयं को नौकर मानना बन्द कर दे तो अन्य लोग भी उसे नौकर मानने को बाध्य नहीं होंगे।
शिक्षा के भारतीयकरण का यह प्रारम्भ बिन्दु है। इसी प्रकार विद्यालय के स्वरूप परिवर्तन का भी यह प्रारम्भ बिन्दु है। यह कार्य सरल नहीं है, यह स्पष्ट समझ में आने वाली बात है क्योंकि शिक्षक को आचार्य बनने के लिए न कोई प्रेरक परिस्थिति है और न कोई प्रभावी चरित्र ही है। फिर भी स्वभाव से ही जो शिक्षक हो, वह स्वप्रेरणा से ऐसा कर सकता है। परन्तु शिक्षा क्षेत्र में जो स्वभाव से ही शिक्षक हो ऐसे लोग आते ही नहीं है, यह भी आज की वास्तविकता है। जो स्वभाव से शिक्षक है, उनके ही आधार पर ही भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 110 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा विद्यालय में करणीय प्रयास-1)
Facebook Comments