मूल लेखकः (मराठी) दिलीप वसंत बेतकेकर
अनुवादः (हिन्दी) डॉ. रमेश चौगांवकर
प्रत्येक विद्यार्थी की सामाजिक आर्थिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि असमान रहती है। शिक्षक के लिए इसे जानना आवश्यक है। सभी के लिए समान उदाहरण लागू होना संभव नहीं है इस बात को ध्यान में रखना होगा। अनेक शिक्षक बुद्धिमान, ज्ञानसम्पन्न होते हुए भी छात्रों के समक्ष उनकी प्रस्तुति प्रभावशाली नहीं होती है। परिणामस्वरूप अध्यापन नीरस, उबाऊ हो जाता है। इस नीरसता, उबाऊपन को तब ही दूर किया जा सकता है जब शिक्षक अथक प्रयास कर अध्यापन में मिठास लायें, लगन निर्माण करें। अध्यापन में कभी-कभी हलके-फुल्के चुटकुलों का समावेश कर छात्रों में अध्ययन के प्रति रुचि निर्माण करनी चाहिए!!
इदं मे ब्रह्म क्षत्रं चोभे श्रियमष्नुताम्।
मयि देवा दधातु श्रियमुत्तमां तस्मै ते स्वाहा।।
अर्थात् मेरे ज्ञान में वृद्धि से मेरे बल में वृद्धि हो, और हे प्रभु मुझे कीर्ति, धन, ऐश्वर्य की प्राप्ति हो, जो मुझे आपके चरणों में ही अर्पित करना है।
ये है एक वैदिक प्रार्थना! कितनी विशाल, अर्थपूर्ण और उदात्त! इसे प्रत्येक शिक्षक को कक्षा में प्रवेश के पूर्व, मन ही मन बोलना चाहिए। इतना ही नहीं, यदि यह प्रार्थना कक्षा में अध्यापन प्रारम्भ करने के पूर्व अर्थ सहित समस्त छात्रों को समझाते हुए, उनके मुख से भी पाठ करवाया जाए तो अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता एक सुरमय ऊँचाई प्राप्त करेगी। ऐसे अध्ययन-अध्यापन की फल प्राप्ति भी निश्चित ही अधिक होगी।
अधिकतर देखा जाता है कि शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते समय यह उद्देश्य लेकर जाता है कि यह पाठ्यांश उस निश्चित समय में पूर्ण करना ही है, और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए वह स्वतः तैयार की हुई पाठ्य-सामग्री किसी भी प्रकार से विद्यार्थी के मस्तिष्क में ठूंसने का प्रयास करता है, चाहे छात्र के समझ में आए अथवा नहीं!
परंतु पठन-पाठन की प्रक्रिया इतनी सरल नहीं होती। यह एक संवेदनशील और गंभीर प्रक्रिया है। कुछ उलझन भरी भी होती है। कुछ घटक दृश्य होते हैं, कुछ आँखों से न दिखाई देने वाले-अदृश्य रहते हैं। चर्म चक्षुओं को अनुभव न होने वाली अंतरक्रियाएं अनुभव करने हेतु मनःचक्षु, प्रज्ञाचक्षु आवश्यक होते हैं। जिन शिक्षकों के पास ये होते हैं वे अध्यापक सफल हो पाते हैं।
अमेरिकन जर्नल में अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया के संदर्भ में एक रोचक किंतु विचारणीय बात का उल्लेख है- ‘यह ऐसी प्रक्रिया है जिससे अध्यापक के कॉपी की जानकारियाँ, पेन की सहायता से छात्र की कॉपी में स्थानांतरित होती हैं, किन्तु दोनों के ही मस्तिष्क रिक्त रहते हैं।
यह केवल हांस्य नहीं, विचारणीय गंभीर विषय है। अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में शिक्षक को दृश्य और अदृश्य ऐसे दोनों घटक विचारार्थ लेने चाहिए। जिस प्रकार हम अष्टभुजा देवी की पूजा करते हैं, उसी प्रकार शिक्षक को भी अष्टावधान अंगीकृत करना चाहिए।
शिक्षक अष्टावधानी ही हों।
शिक्षक के लिए कक्षा में चालीस-पचास मिनिट की अवधि एक बाजीगर के तमाशे में, तार पर संतुलन कर चलने का खेल दिखाने के समान होती है। इसमें शिक्षक को अनेक बातों पर जैसे भाव व्यवधान, अवधान आदि पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है तभी पठन-पाठन की प्रक्रिया सफल होती है।
कक्षा व्यवस्थापन अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। कक्षा की निश्चित समयावधि में, निश्चित किया हुआ पाठ्यघटक, उद्देश्यपूर्ण रीति से, प्रत्येक छात्र की क्षमता को ध्यान में रखते हुए, अध्यापन करना सरल-सहज नहीं होता है। हर छात्र की आत्मसात करने की पद्धति, उसकी क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। कुछ छात्र पढ़ते हुए, देखते हुए अधिक समझ पाते हैं तो कुछ सुन कर अच्छा सीख पाते हैं। कुछ छात्रों को कृति द्वारा, प्रत्यक्ष दर्शन-पद्धति से अधिक समझ में आता है। इसलिए अध्यापक को अध्यापन करते समय इन सभी पद्धतियों को अपनाना पड़ता है। यह कार्य कितना कठिन है इसका अनुमान, शिक्षक के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति को लगाना असम्भव ही है। सभी शिक्षकों को भी ऐसा अवधान रखना सम्भव नहीं हो पाता।
कक्षा में शिक्षक के समक्ष बैठे तीस-चालीस विद्यार्थी अपने स्वतंत्र अनुभव लिए हुए होते हैं। प्रत्येक की सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और स्तर असमान होता है। शिक्षक को यह सब ध्यान में रखना पड़ता है। सभी के लिए एक समान उदाहरण लागू होना असम्भव है।
अनेक शिक्षक बुद्धिमान, ज्ञान सम्पन्न होते हुए भी छात्रों के समक्ष उनकी प्रस्तुति प्रभावषाली नहीं होती है। संभाषण-कौशल के अभाव में अध्यापन नीरस, उबाऊ हो जाता है। इस हेतु विशेष प्रयास और अधिक ज्ञानार्जन कर अध्यापन में मिठास लाकर छात्रों में लगन निर्माण करना आवश्यक है। अध्यापन एकरस न हो। कक्षा में जाने का समय ध्यान में रहे।
अध्यापन में कभी-कभी हल्के-फुल्के, मनोरंजनात्मक चुटकुलों का समावेश कर छात्रों में अध्ययन के प्रति रुचि निर्माण करनी चाहिए। छात्रों का शब्दभंडार कैसा और कितना है, इस बात का अनुमान शिक्षक को रहे तो लाभप्रद होता है। ग्रामीण और शहरी, जनजातीय क्षेत्रों के विद्यार्थियों का शब्दभंडार समान होना सम्भव नहीं है।
छात्रों की शारीरिक भावभंगिमा पहचानना शिक्षक के लिए अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा अध्यापन प्रभावहीन हो जाता है। शाला परिसर में अथवा कक्षाओं का निरीक्षण करते हुए, अनेक बार अत्यंत आलोचना किए जाने योग्य दृश्य देखने को मिलते हैं। कक्षाओं में शिक्षक अपने स्थान पर खड़े रहकर पूर्ण समयावधि व्याख्यान देते रहते हैं, परंतु कक्षा के छात्रों की अनावश्यक देहबोली, भावभंगिमाएं, उन्हें दिखाई नहीं देतीं, अथवा वे उन्हें नजरअंदाज करते हैं। उबासी लेना, डेस्क पर सिर झुकाए रखना, अनावश्यक हाथ-पैर हिलाना, आपस में बातचीत करना, कहीं और दृष्टि गड़ाए रखना, ऐसी अनेक घटनाएँ दिखाई देती है, परंतु इन्हें नजरअंदाज कर शिक्षक अपना पाठ्यांश जैसे-तैसे समाप्त करने में व्यस्त दिखता है। ऐसा निर्विकार, स्थितप्रज्ञ शिक्षक किस काम का?
आसान से कठिन की ओर, अज्ञानी से ज्ञानी की ओर, निकट से दूर की ओर, ये अध्यापन का महत्त्वपूर्ण सूत्र है- इन सूत्रों का उद्देश्यपूर्ण प्रयोग अध्यापन प्रक्रिया में करना चाहिए। शिक्षक स्वयं भी एक मनुष्य है। उसका भी अपना एक व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन होता है। उसकी स्वयं की भी कुछ कठिनाइयाँ, अड़चनें, बाधाएं, सीमाएं आदि होना स्वाभाविक है, परंतु कक्षा में प्रवेश करने के पूर्व ये सभी उसे बाहर ही छोड़ने की कला अपनानी होगी जो वास्तव में कठिन कार्य है। इस कार्य को कुशलतापूर्वक करने से ही अध्यापन में सफलता प्राप्त हो सकेगी।
कोविड काल में कुछ अच्छी बातें भी दृष्टिगोचर हुईं। उनमें से एक है ‘ऑनलाइन अध्यापन’। जिस अध्यापक को अध्यापन में सुधार करने की इच्छा हो अथवा अध्यापन गुणवत्तापूर्ण करना हो, उसे आधुनिक तंत्र ज्ञान की सहायता लेना आवश्यक है।
कुछ विद्यालयों में, कक्षाओं में कैमरा लगे होते हैं। उनका होना अनेक शिक्षकों की दृष्टि में नकारात्मक होता है। कैमरा मतलब शिक्षकों की जासूसी करना, ऐसी धारणा होती है। परंतु इन्हीं कैमरा का उपयोग शिक्षक अपनी अध्यापन पद्धति के सुधार करने में कर सकते हैं। अपने अध्यापन के दृश्य कैमरा में देखकर अथवा अपने ही मोबाइल में रेकार्ड कर अपना परीक्षण स्वयं कर, उसमें गुणवत्ता ला सकते हैं। ‘मैं स्वयं ही अपना सुधारकर्ता’ हो की भावना होनी चाहिए।
हम साधक हैं और अध्यापन कार्य मेरी साधना है इस बात को भूलें नहीं। इसी प्रामाणिक भावना से कार्य किया जाए तो आचार्य विनोबा भावे के कथन – “जहाँ ‘साधना’ पराकाष्ठा स्तर पर पहुँचती है वहाँ ‘सिद्धि’ नतमस्तक होकर समक्ष उपस्थित रहती है”- का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है।
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