✍ वासुदेव प्रजापति
विद्यालय समाज में ज्ञान का केन्द्र है। वहाँ जैसी ज्ञान की साधना होती है, वैसा ही समाज का सत्त्व निर्माण होता है। जिस समाज का संचालन, नियमन व नियंत्रण ज्ञान के द्वारा होता है, वह समाज श्रेष्ठ समाज माना जाता है, क्योंकि सभी संचालकों में ज्ञान सर्वश्रेष्ठ संचालक है। यदि समाज को समृद्धि व संस्कृति दोनों में श्रेष्ठ बनाना है तो ज्ञाननिष्ठ बनना आवश्यक है। इस दृष्टि से हमारे विद्यालयों को समर्थ बनने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हमारे विद्यालयों के अंतर्बाह्य परिवर्तन से ही हो सकती है। ऐसा परिवर्तन वे स्वयं करें तभी सार्थक हो सकता है। दूसरों के करने से यह नहीं होने वाला। वर्तमान समय के विद्यालय अपना अन्तर्बाह्य रूप परिवर्तन किस प्रकार से करें? एतदर्थ कुछ विचार सूत्र यहाँ दिए जा रहे हैं –
शिक्षा को रोगमुक्त करना
एक कल्पना मात्र करें, यदि एक ऐसा भूकम्प आ जाए जिसमें देश के छोटे-बड़े सभी विद्यालय ढह जाय, उनका नाम मात्र भी अवशेष न रहे। और ऐसी भीषण आग लग जाय जिसमें देशभर के सभी कार्यालयों में जो भी कागज-पत्र हैं, उनमें से शिक्षा विषयक कानून, नियम, नीति, योजनाएँ व जानकारी आदि की फाइलें जलकर भस्म हो जाय और भस्म भी हवा के साथ उड़कर बिखर जाय। इनके साथ एक ऐसा सम्मोहन अस्त्र चले जिससे सभी शिक्षितों को अपनी शिक्षा का विस्मरण हो जाय, इस भूकम्प और आग का विस्मरण हो जाय और विश्व में यूरोप और अमेरिका जैसे देश हैं, उनका भी विस्मरण हो जाय। कुल मिलाकर कहना यह है कि गत दो सौ वर्षों की शिक्षा का इतिहास मिट जाए और उसका नामोनिशान भी न रहे। और शिक्षा का पंचांग अठारहवीं शताब्दी से सीधा इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक पर आ जाए।
इतनी अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान व उपचार कर उसे पूर्णरूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से अथवा कठोर तपस्या से ही हो सकता है। चमत्कार देवों का काम है जबकि तपश्चर्या मनुष्यों का। अत: कठोर तपश्चर्या के परिणामस्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है। इस कठोर तपस्या के लिए शिक्षकों को ही अग्रसर होना होगा। शिक्षकों के अतिरिक्त किसी ने तपस्या की तो उसका परिणाम नहीं होगा। शिक्षकों को लोगों का साथ न भी मिला तब भी शिक्षक स्वयं ही सब कुछ कर लेंगे।
शिक्षा की स्वायत्तता
विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा का काम इसलिए कठिन है कि अब विद्यालय स्वायत्त नहीं हैं। घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त है। विवाह का पंजियन और जन्म-मृत्यु का पंजियन छोड़ दिया जाय तो शेष सभी बातों में परिवार स्वायत्त है। घर का खानपान, वेशभूषा, शिक्षा, चिकित्सादि क्या करनी है, बच्चों के विवाह किसके साथ करना है आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं है। घर के लोग मिलकर ये सभी बातें तय करते हैं। परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है, सब कुछ सरकार ही तय करती है। घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षा वालों की नहीं होती। शिक्षा वालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी। ये दोनों दूसरों द्वारा नियन्त्रित होते हैं। अतः सबसे पहला काम घर की भाँति विद्यालय को भी स्वायत्त बनाना है। शिक्षा सम्बन्धित जो प्रशासनिक व्यवस्थाएँ हैं, उनके ढह जाने की आशंका है। इसका तात्पर्य यह है कि पहले शिक्षा को मुक्त हवा में श्वास लेने देना चाहिए। सरकार यदि समझदार है तो वह स्वयं शिक्षा को मुक्त कर देगी। यदि नहीं करती है तो शिक्षकों को अपनी तपश्चर्या के बल पर शिक्षा मुक्त करवानी पड़ेगी।
सरकार यदि शिक्षा को मुक्त कर भी दे, तब भी शिक्षकों के सामर्थ्य का प्रश्न तो बना ही रहेगा। सामर्थ्य के दो पहलू हैं, ज्ञान व साहस। शिक्षकों को ज्ञान साधना तो करनी ही होगी, साथ में साहस भी जुटाना होगा। यह कार्य सरल नहीं है, आज जिन्हें शिक्षक कहा जाता है उनमें से बहुत कम लोग ऐसा साहस जुटा पाएँगे। परिणाम स्वरूप साधना करने वाले समर्थ शिक्षकों की संख्या बहुत कम हो जाएगी। परन्तु संख्या के बल पर नहीं, सामर्थ्य के बल पर ही कार्य सिद्ध होते हैं।
विद्यालय का घटक विद्यार्थी
विद्यालय का प्रथम घटक शिक्षक है और द्वितीय घटक विद्यार्थी है। शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें शिक्षा मूर्त रूप धारण करती है। केवल भवन को विद्यालय नहीं कहा जा सकता, विद्यालय उस स्थान को कहा जाता है, जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी दोनों मिलकर अध्ययन व अध्यापन करते हैं। अध्यापन के कार्य में तथा विद्यालय के संचालन में तथा व्यवस्था में विद्यार्थियों को सहभागी बनाना ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण चरण है जो शिक्षक और विद्यार्थी के बीच आत्मीय सम्बन्ध बनने के बाद सम्भव होता है। शिक्षक और विद्यार्थी के संयुक्त प्रयासों से विद्यालय चलता है। यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की स्वाभाविक स्थिति है और यही करणीय भी है।
शिक्षक को सहयोग करना विद्यार्थी का पहला काम है। शिक्षक के लिए साधन-सामग्री तैयार करके रखना, शिक्षक का आसन बिछाना, स्वच्छता करना जैसे सेवा कार्य करना विद्यार्थी का काम है। विद्यालय परिसर को स्वच्छ, व्यवस्थित और सजाकर रखना विद्यार्थी का काम है। छोटी कक्षा के विद्यार्थियों को शिक्षक के निर्देशानुसार पढ़ाना भी विद्यार्थी का काम है। यही अध्यापन में सहयोग करना है। शिक्षक शिक्षा की सेवा किस प्रकार करता है, यह समझना विद्यार्थी का काम है। पढ़ने का अर्थ केवल जानकारी प्राप्त करना या विषय समझना मात्र नहीं है। पढ़ने का अर्थ केवल संस्कारों को ग्रहण कर चरित्रवान बनना भी नहीं है। पढ़ने का अर्थ शिक्षक की जीवन दृष्टि प्राप्त करना भी है।
जो विद्यार्थी शिक्षक से उसका व्रत भी ग्रहण करता है, वह शिक्षक भी बन सकता है। विद्यार्थी से शिक्षक बनने की इस प्रक्रिया की भारत में प्रतिष्ठा है। कोई भी विद्यार्थी शिक्षक नहीं बन सकता। अपने विद्यार्थियों में से श्रेष्ठ विद्यार्थियों को दीक्षित कर उन्हें शिक्षक बनाना और अपना दायित्व उन्हें सौंपना शिक्षक की सबसे बड़ी शिक्षा सेवा है, क्योंकि ऐसा होने पर ही ज्ञान परम्परा बनी रहती है। आज विद्यालय और शिक्षा क्षेत्र भौतिकता और यान्त्रिकता के गर्त में धँस रहे हैं। उन्हें बचाने का काम शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर कर सकते हैं।
शिक्षा शिक्षक के हाथ में हो
जब शिक्षक और विद्यार्थी की स्थिति ठीक हो जाती है, तब शिक्षा की समस्याओं के प्रति ध्यान देना सम्भव होता है। भारतीय शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह केवल तकनीकी दृष्टि से भारतीय है जबकि ज्ञानात्मक, भावात्मक या व्यवस्थात्मक दृष्टि से भारतीय नहीं है। अतः शिक्षा भारतीय कैसे बनेगी? इसका विचार शिक्षकों को ही करना होगा। यह विचार केवल उच्च विद्या विभूषित शिक्षक ही कर सकेंगे, ऐसी बात नहीं है। जाग्रत शिक्षक भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा केवल ज्ञानवान बनाने के लिए नहीं होती, चरित्रवान बनाने के लिए भी होती है। यह जानने के लिए उच्च विद्या विभूषित नहीं होना पड़ता, समझदार होना पड़ता है। अतः प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक शिक्षक को शिक्षा में ज्ञान के साथ चरित्र के विकास को महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहिए।
ज्ञान कवल जानकारी मात्र नहीं है, वह भावना और क्रिया भी है। क्रिया से तात्पर्य है, व्यवहार। विद्यार्थियों को ज्ञानवान, चरित्रवान और क्रियावान बनाने से शिक्षा पूर्ण होती है। यह भारतीय शिक्षा का एक सूत्र है। इस सूत्र को अपनाकर शिक्षक शिक्षा को भारतीय बना सकता है। यह सूत्र प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक समान रूप से लागू है। शिक्षक इतना ध्यान अवश्य रखे कि नौकरी और सेवा में जो अन्तर है, मन में उसकी स्पष्टता होनी चाहिए। नौकरी को आज तक सेवा ही कहा जाता है, परन्तु दोनों के मूल में ही अन्तर है। शिक्षक सेवा करने वाला सेवक है, किसकी सेवा करता है? वह शिक्षा की सेवा करता है, ज्ञान की सेवा करता है। वह सरस्वती का पुत्र बनकर सरस्वती की सेवा करता है। वह ग्रन्थों की सुरक्षा कर ग्रन्थ सेवा करता है। वह देश के ज्ञान को समृद्ध बनाकर देश की सेवा करता है, परन्तु वह शिक्षा का, सरस्वती का, ग्रन्थ का और देश का नौकर नहीं है। उसे चिन्तन करना चाहिए कि वह किसका नौकर बनने के लिए बाध्य हुआ है और क्यों?
आज शिक्षक किसका नौकर है? शिक्षक संचालकों का नौकर है, शिक्षक सरकार नामक व्यवस्था का नौकर है। शिक्षक शिक्षा कर्मी के रूप में नौकर है। उसके मन में यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि अपने साथ उसने ज्ञान और सरस्वती को भी नौकर बनाया है। यह नौकर बनने की बाध्यता कैसे निर्माण हुई, किसने निर्माण की? हमारे देश में पहले तो ऐसा नहीं था। आज पैसों ने सबको ग्रस लिया है। अर्थ ने पहले सत्ता को ग्रस लिया, अर्थ और सत्ता ने मिलकर ज्ञान को ग्रस लिया है। इसलिए पैसा देने वाला प्रथम शासक को अपने अनुकूल बनाता है और दोनों मिलकर शिक्षा को अपने अनुकूल बनाते हैं। शिक्षक ने इस अनिष्ट व्यवस्था को स्वीकार क्यों किया है? व्यक्तिगत स्तर पर केवल पैसे प्राप्त करने के लिए शिक्षक ने नौकरी करना स्वीकार किया है। शिक्षक जब व्यवस्था का नौकर बनना अस्वीकार करेगा तब ही भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रारम्भ होगा।
शिक्षक मालिक भी न बने
शिक्षक नौकर नहीं बने का अर्थ यह भी नहीं है कि वह मालिक बन जाए। आज जो कोचिंग इंस्टीट्यूट और ट्यूशन क्लासेज चलते हैं, उसमें शिक्षक मालिक है। किसी शिक्षा संस्था का संचालक बनता है, तब भी वह मालिक है। एक उद्योगपति होते हुए शिक्षा संस्था चलाता है तो वह भी मालिक है। परन्तु पहले उदाहरण में वह व्यवस्था का नौकर ही तो है, क्योंकि वह वही पढ़ाता है जो व्यवस्था बताती है। दूसरे और तीसरे उदाहरण में तो वह शिक्षक ही नहीं रहता, शिक्षक को मिटाकर वह संचालक व उद्योगपति बन गया है। नौकर न बनने का यह अर्थ नहीं है।
शिक्षक जब शिक्षक बने रहते हुए पढ़ाने के लिए स्वयं को व्यवस्था से मुक्त करेगा, तब वह नौकर नहीं रहेगा। आज की स्थिति में व्यवस्था से मुक्त होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि व्यवस्था सर्वग्रासी बन गई है। परन्तु वह व्यवस्था के नौकर से ज्ञान के सेवक में रूपान्तरित हो सकता है। शिक्षक को एक और बात का विचार करना होगा। वह अकेला व्यवस्था से मुक्त होकर, शिक्षा का सेवक बनकर एक विद्यालय चला सकता है, उससे भारतीय शिक्षा का एक प्रयोग तो अवश्य होगा किन्तु देशभर में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा नहीं होगी, सम्पूर्ण देश में भारतीय शिक्षा की सार्वत्रिक स्वीकृति नहीं होगी और न मुख्य प्रवाह में शिक्षा अधिकृत ही होगी।
भारतीय शिक्षा को इस प्रकार देश की मुख्य धारा बनाने हेतु शिक्षकों को संगठित होना होगा। देशभर के शिक्षक मिलकर अपनी तपश्चर्या के बलपर ही देश की वर्तमान शिक्षा को भारतीय शिक्षा बना सकते हैं।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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