✍ वासुदेव प्रजापति

परिवार में छोटे-बड़े अनेक सदस्य होते हैं। उन सबके स्वभाव, रुचि-अरुचि, गुण-दोष, क्षमताएँ आदि भिन्न-भिन्न होते हैं। कभी-कभी एक दूसरे की विरोधी आदतें भी होती हैं। उन सबको जानना, उन्हें सम्भालना, सबके साथ समायोजन करना, दोष दूर करने में मार्गदर्शन देना या दोषों को ढ़कना आदि बातें परिवार में सहज रूप से होनी चाहिए। इस तरह स्वीकार करना, सम्हालना और समायोजन करना सबको सिखाना माता-पिता का ही काम है। चुगली करना, लीपापोती करना, झूठ बोलना, छल-कपट करना, चोरी-छिपे व्यवहार करना आदि बातें घर में नहीं होनी चाहिए।
अतिथि सत्कार कैसे करना? यह भी घर के छोटों को विधिपूर्वक सिखाना चाहिए। विनयपूर्वक मधुर सम्भाषण, बड़ों की परिचर्या, उनकी आवश्यकताओं की जानकारी होना, उनकी रुचि-अरुचि की जानकारी प्राप्त करना आदि कार्यों का कौशल सिखाना चाहिए। अर्थात माता और पिता को मिलकर अपनी सन्तानों को घर की स्वच्छता करना, कपड़े-बर्तन, खाद्य सामग्री स्वच्छ करना, भोजन बनाना और करवाना, बिस्तर लगाना व समेटना, घर के आवश्यक सामान की खरीदी करना, घर के सामान को व्यवस्थित रखना, घर की साज-सज्जा करना आदि अनेक छोटे-बड़े काम पुत्रियों के साथ-साथ पुत्रों को भी अवश्य सिखाने चाहिए। जिस परिवार में सभी सदस्यों को ये सभी काम अच्छी तरह करने आते हैं, वह परिवार स्वावलम्बी होता है।
घर चलाने का कौशल आना
परिवार चलाने को ही घर चलाना कहते हैं। कुछ महिलाएँ घर चलाने में बड़ी कुशल होती हैं। घर चलाने के लिए प्रथम काम हैं, खाना-पीना, सोना-जागना और नहाना-धोना आदि। आज की अर्थनिष्ठ व्यवसथा में ‘रोटी कपड़ा और मकान’ की आवश्यकताओं को पूरी करने हेतु पैसा कमाने को ही प्राथमिकता देते हैं। परन्तु हमारे देश के सम्पन्न समाज में पैसा कमाना बहुत बड़ी बात नहीं थी। इसलिए अर्थार्जन को दूसरे क्रम पर रखा और घर चलाने के कौशल सिखाने को प्रथम क्रम पर रखा गया।
अर्थात भोजन के लिए पैसा कमाना इतना आवश्यक नहीं है, जितना भोजन बनाने का कौशल प्राप्त करना और भोजन के शास्त्र को जानना। इसके साथ ही अन्य दैनन्दिन जीवन की अन्यान्य गतिविधियों से सम्बन्धित कार्यों को सीखने की व्यवस्था भी परिवार में ही होनी चाहिए।
परिवार व्यवस्था विश्व में भारत की पहचान है। परिवार भावना अध्यात्म का सामाजिक स्वरूप है। ये दोनों बने रहें, ऐसी शिक्षा मुख्य रूप से घर में ही मिलती है। जब घर शिक्षा के केन्द्र बनेंगे और विद्यालय इस शिक्षा केन्द्र में दी जाने वाली शिक्षा के पूरक होंगे तब ही भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा होगी।
परिवार और सामाजिक दायित्व निभाना
सामाजिक समरसता में योगदान करना परिवार का सामाजिक दायित्व है। भेद को विविधता के रूप में स्वीकार करना, विविधता में सुन्दरता देखना और भेद को भेदभाव तक नहीं ले जाना प्रत्येक परिवार का दायित्व है। साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट नहीं होने देना भी प्रत्येक परिवार का सामाजिक दायित्व है। परिवार निवास, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, सामाजिकता व संस्कारिता आदि का केन्द्र होता है।
इन सभी बातों में घर प्रतिकूलताओं का त्याग करे, यह आवश्यक है।
स्खलन यदि सामाजिक अपराध हो तो उसका कठोरतापूर्वक परिमार्जन भी होना चाहिए और दण्ड भी मिलना चाहिए। उदाहरण के लिए पुत्र ने परीक्षा में नकल की तो उसे दण्ड भी मिलना चाहिए, और अनुत्तीर्ण होने का परिणाम भी भुगतना चाहिए। मान लो घर के पुत्र ने ही किसी पराई लडकी को छेड़ा तो उसे दण्ड भी मिलना चाहिए और उस लड़की से क्षमा भी माँगनी चाहिए।
परिवार का समाज के प्रति भी दायित्व है। जिस प्रकार व्यक्ति परिवार का अंग है, उसी प्रकार परिवार समाज की सांस्कृतिक इकाई है, परन्तु वह आर्थिक इकाई नहीं बन सकता। आर्थिक इकाई गाँव है। इसलिए परिवार को व्यावसायिक दृष्टि से गाँव के सभी व्यवसायियों के साथ समायोजन करना चाहिए। किसी विद्यार्थी को पढ़ने के लिए छात्रावास के स्थान पर किसी गृहस्थ के घर में निवास, भोजन तथा पढ़ाई आदि की व्यवस्था मिलनी चाहिए। विद्यादान जितना ही महत्त्व विद्या प्राप्त करने की सुविधाओं के दान का भी है।
परिवार में देशभक्ति के संस्कार मिलना
परिवार में देशभक्ति की भावना के संस्कार मिलने चाहिए। उपभोग की समस्त सामग्री स्वदेशी हो, इसका आग्रह रखना चाहिए। विदेशी वस्तु भले ही सस्ती, सुन्दर, सुलभ व सुविधाजनक हो, परन्तु उसे नहीं खरीदना चाहिए। महँगी होने पर भी स्वदेशी खरीदना ही उचित सिद्धान्त है।
युवा पीढ़ी का उद्दण्ड होना परिवार में शिक्षा न मिलने का परिणाम है। इस दृष्टि से बच्चों का संगोपन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसलिए माता-पिता और सन्तानें अधिकाधिक साथ जी सकें, ऐसी परिवार की जीवनचर्या बननी चाहिए। आज बड़े अर्थार्जन के लिए और छोटे पढ़ाई के लिए दिन का अधिकांश समय घर से बाहर तथा एक दूसरे से दूर बिताते हैं। जब साथ रहना होता ही नहीं है तब यह मामला बहुत कठिन हो जाता है।
परिवार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि समाज में अनाथालय, वृद्धाश्रम, अनाथ नारी संरक्षण गृह आदि संस्थाएँ न पनपे। बेरोजगारी, अनाथों, बच्चों, विधवाओं, वृद्धों को पेंशन देने की सरकारी व्यवस्थाएँ न बनें। कोई भी शिशु, बाल, तरुण या वृद्ध बिना परिवार के न रहें। वृद्धों, विद्वानों और सन्तों का उपसेवन अर्थात सेवा-सुश्रुषा करते हुए इनसे ज्ञान ग्रहण करने की प्रवृत्ति जहाँ नित्य निरन्तर बनी रहे, उस घर में कभी कलह नहीं होता, सदा सुख बरसता है।
कालबाह्य रीति-रिवाजों को छोड़ना
भारत की सनातन वर्ण व्यवस्था का हमने त्याग कर दिया है। परन्तु नए-नए वर्ण और नई वर्णव्यवस्था भी बन रही है। बिना नाम के नए वर्ण और वर्णभेद आ रहे हैं। इस नई वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता का परीक्षण कर परिवार को अपना वर्ण निश्चित कर लेना चाहिए।
कालबाह्य रीति-रिवाजों को तिलांजलि दे देनी चाहिए, यह कटुसत्य है। परन्तु आधुनिकता, वेज्ञानिकता और वैश्विकता के नाम पर जो नए रीति-रिवाज और अन्धश्रद्धाएँ पैदा होती हैं, उससे परिवार की सुरक्षा करने की कोई निश्चित व्यवस्था करनी चाहिए।
घर से बच्चों के विद्यालय की दूरी, घर से काम पर जाने वाले बड़ों के कार्यालय की दूरी अधिक न हों, ताकि आने-जाने में समय व्यर्थ न जाए, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। घर का व्यवसाय, घर के ही एक भाग में हो तो ऐसा घर भाग्यवान घर होता है। ऐसा होने से बहुत बड़ा लाभ तो अनावश्यक व्यय की बचत का है। दूसरा समय का अपव्यय नहीं होता और तीसरा घर के ही लोग सहयोगी के रूप में नित्य उपलब्ध रहते हैं।
छोटे परिवार के संकट से मुक्त होना
सामाजिकता से जुड़ा एक और बिन्दु है, ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ इस विषय में परिवारों को अपनी भूमिका को लेकर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। नगरीय क्षेत्र के शिक्षित लोग इसे अपना रहे हैं। परन्तु इसके कारण परिवार नष्ट हो रहे हैं। सब व्यक्ति स्वातन्त्र्य के नाम पर एकाकी और अनाथ बन रहे हैं। इस छोटे परिवार के संकट से अपने आपको मुक्त करने की आवश्यकता है। परिवार में परस्पर श्रद्धा, विश्वास और स्नेह का वातावरण पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके अभाव में मानसिक असुरक्षा में वृद्धि होती है।
आज के सन्दर्भ में देखें तो परिवार को अपने व्यवसाय की निश्चिति करने में कुछ बातों का विचार अवश्य करना चाहिए। सर्वप्रथम तो मनुष्य को बेरोजगार और निरुद्यमी बनाने वाला व्यवसाय ही नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जिसमें मनुष्य के स्थान पर यन्त्रों का प्रयोग होता हो, ऐसे व्यवसायों को टालना चाहिए। जिसमें मनुष्य के हाथ की कुशलता और बुद्धि की सृजन शीलता का उपयोग न होता हो, ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार के संकटों से मुक्त होने का उपाय है, ‘भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करना।’ हमें धैर्यपूर्वक, निष्ठापूर्वक, परिस्थिति को समझकर प्रयास करने होंगे। ये प्रयास व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर ही नहीं अपितु राष्ट्र जीवन के सभी स्तरों पर करने होंगे। इन प्रयासों के स्वरूप मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक, आर्थिक और राजनीतिक, भौतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के होंगे। हमें सभी प्रकार का सामर्थ्य भी प्राप्त करना होगा। हमारे पुरुषार्थ, हमारी स्थिति, हमारी आवश्यकता और राष्ट्र की नियति में श्रद्धा रखकर प्रयास करने होंगे। हमारे प्रयास अब निर्णायक भी हों, यह समय की माँग है। अतः हमें सम्पूर्ण मनोयोग से प्रयास करने होंगे। ऐसे प्रयास हुए तो कोई कारण नहीं कि यश प्राप्त न हों।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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