✍ प्रशांत पोळ
उड़ती हुई धूल के साथ आती विशाल सेना को देखकर, लक्ष्मण को लगा कि भरत हम पर आक्रमण करने आ रहे हैं। किंतु श्रीराम ने उन्हें समझाया, कि भरत हमसे युद्ध करने आ ही नहीं सकते।
भरत, श्रीराम से मिलकर अत्यधिक भावविभोर हैं। पर्णकुटी में जानकी और लक्ष्मण के साथ श्रीराम का निवास देखकर वे अत्यंत दु:खी होते हैं। श्रीराम से, वापस अयोध्या चलने का आग्रह करते हैं। श्रीराम भरत को पुनः समझाते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि पिता, राजा दशरथ, हमें छोड़कर चले गए, तो वे अत्यंत दु:खी होकर विलाप करते हैं।
अपने पिता के लिये जलांजलि दान, पिंडदान आदि क्रियाकर्म करके, श्रीराम, अपने पिता के सभी अंत्यसंस्कार पुर्ण करते हैं।
भरत, श्रीराम को अयोध्या चलने के लिये तथा राज्य ग्रहण करने के लिए बारंबार आग्रह कर रहे है, और श्रीराम, बार-बार भरत को समझा रहे हैं। श्रीराम कहते हैं, “सभी संग्रहों का अंत विनाश हैं। लौकिक उन्नतियों का अंत पतन हैं। संयोग का अंत वियोग हैं और जीवन का मृत्यु हैं।”
सर्वे क्षयान्ताः निचयाः पतनान्ता समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥१६॥
(अयोध्या कांड / एक सौ पाचवां सर्ग)
“अतः राजा दशरथ के मृत्यु का शोक न करते हुए, राज्य चलने पर ध्यान देना उचित रहेगा।”
इस प्रकार से विभिन्न तर्कों के साथ, समझा बुझाकर, श्रीराम, भरत को अयोध्या जाने के लिए कहते हैं। भरत उनसे एक ही मांग करते हैं – श्रीराम की खड़ाऊं। श्रीराम की चरण पादुका।
भरत कहते हैं, “आपकी इन चरण पादुकाओं को सिंहासन पर रखकर मैं राजकाज करूंगा। यह राज्य आपका है। चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात, वापस आकर, आप अपने इस राज्य को पुनः ग्रहण करें।”
कोशल जनपद वापस जाकर, उन चरण पादुकाओं को अयोध्या के सिंहासन पर रखकर, भरत उन चरण पादुकाओं का राज्याभिषेक करते हैं, और श्रीराम के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का कार्य देखना प्रारंभ करते हैं।
इधर चित्रकूट में…
भरत के जाने के बाद, चित्रकूट में श्रीराम देखते हैं कि वहां के तपस्वी चिंतित हैं, उद्विग्न है, कष्ट में है। कुछ एक तो चित्रकूट छोड़कर भी जा चुके हैं। श्रीराम के पूछने पर ऋषि उन्हें बताते हैं कि, ‘यहां पर दानवों का बड़ा ही आतंक है। इस आतंक का सूत्रधार रावण है। इस क्षेत्र में, वनप्रांत में, रावण का छोटा भाई ‘खर’ यह आतंक का पर्याय बन चुका है। विशेषतः आपके यहां आने के बाद, खर और उसके सहयोगी राक्षस, हमें पीड़ित कर रहे हैं। यज्ञ-याग प्रारंभ होते ही, वे यज्ञकुंड में पानी का छिड़काव करते हैं। हवन सामग्री को फेंक देते हैं।
रावणावरजः कश्चित् खरो नामेह राक्षसः।
उत्पाट्य तापसान्सर्वाञ्जनस्थाननिकेतनान् ॥११॥
(अयोध्या कांड / एक सौ सोलहवां सर्ग)
इस पीड़ा से बचने के लिए ऋषि-मुनियों का वह समूह आश्रम छोड़कर जा रहा है।
श्रीराम सोचते हैं कि इस दानवी शक्ति से कैसा निपटा जाए। क्योंकि अब ऋषि-मुनियों का वास इस क्षेत्र में नहीं है, तो खर और उसके सहयोगी दानवों की टोली यहां आतंक मचाने नहीं आएगी, यह तय है। अतः स्वयं श्रीराम भी, जानकी और लक्ष्मण के साथ उस आश्रम को छोड़, आगे प्रवास पर निकलने की योजना बनाते हैं।
वहां से वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचते हैं। वे तीनों, अत्रि ऋषि और सती अनसूया के आशीर्वाद लेते हैं। माता अनसूया, सीता का सत्कार करती है।
कुछ समय वहां बिताने के पश्चात, वे ऋषिगणों से आगे की यात्रा हेतु अनुमति मांगते हैं। ऋषिगण उन्हें बताते हैं कि ‘इस वन के मार्ग में खूंखार और क्रूर दानवों का आतंक है। अतः आप दोनों बंधु, उन दुष्टात्मा दानवों को यहां से मार भगाइए।’
श्रीराम सोचने के लिए विवश है। अयोध्या के बाहर वे जहां भी गए हैं, उन्हें उन सभी जगह दानवों का आतंक दिख रहा है। मानो पूरे आर्यावर्त में, इस आतंक की काली छाया छाई हुई है।
अत्रि ऋषि के आश्रम से प्रस्थान कर, श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण के साथ दंडकारण्य नामक घने वन में प्रवेश करने लगे। इस वन में भी ऋषि-मुनि और तपस्वी निवास करते हैं। श्रीराम-जानकी को देखकर वे ऋषि-मुनि बड़े ही आदर के साथ उनके पास आए। उन तपस्वियों ने श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण को आशीर्वचन दिए।
श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण, इन ऋषियों के आश्रम में रात्रि विश्राम कर पुनः आगे के प्रवास पर चल देते हैं। आगे उनको ‘विराध’ नाम का एक दानव मिलता है, जो ऋषि-मुनियों का खून पीता है। उसने सीता को उठा लिया। यह देखकर श्रीराम-लक्ष्मण ने, अपने तीखे बाणों से उस पर आक्रमण किया। जिन हाथों से उसने सीता को उठाया था, वो दोनों भुजाएं काट दी। फिर भी वह नहीं मरा। इस विराध राक्षस ने तपस्या करके विशेष सिद्धि प्राप्त की थी। अतः लक्ष्मण ने जमीन में एक खूब बड़ा गड्ढा किया, जिसमें श्रीराम ने इस विराध राक्षस को दफनाकर उसका अंत किया।
विराध का वध करके श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण शरभंग मुनि के आश्रम में पहुंचे। श्रीराम के सान्निध्य में, शरभंग मुनि ने अपना देहत्याग किया। वे इसी क्षण के लिये, श्रीराम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
शरभंग मुनि के ब्रह्मलोक में जाने के पश्चात, उस आश्रम एवं आसपास के अनेक ऋषि-मुनि और वानप्रस्थी, श्रीराम से मिलने आए। उन्होंने श्रीराम को अपना दुखड़ा सुनाया, कि ‘किस प्रकार से असुरी शक्तियां उन्हें जीवन जीने देना नहीं चाहती। इन राक्षसों ने, इस वन में, तपस्वी मुनियों में, ऐसा भयंकर आतंक मचा के रखा है, कि उनसे अब सहा नहीं जाता।’
एवं वयं न मृष्यामो विप्रकारं तपस्विनाम्।
क्रियमाणं वने घोरं रक्षोभिर्भीमकर्मभिः ॥१८॥
(अरण्यकांड / छठवा सर्ग)
ये सभी तपस्वी ऋषि-मुनि, श्रीराम से आग्रह कर रहे हैं कि वह असुरों का निर्दालन करें।
वहां से आगे चलकर श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण समवेत, सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुंचे। वहां पर उन्होंने एक रात बिताई। अगले दिन, दंडकारण्य में फिर प्रवास प्रारंभ हुआ। सीता ने श्रीराम से ‘निरपराध प्राणियों का वध न करने का तथा अहिंसा के व्रत का पालन करने का’ आग्रह किया।
इस पर श्रीराम ने जनकनंदिनी सीता को समझाया। ‘निरपराध प्राणियों को न मारना तो उनके जीवन का मूल्य है। किंतु क्षत्रिय धनुष इसलिए धारण करते हैं, कि यदि कोई दुखी है, या संकट में पड़ा है, तो उसकी रक्षा कर सके।’
“विशेषतः दंडकारण्य में रहने वाले, कठोर व्रत का पालन करने वाले सभी तपस्वी, इन आसुरी शक्तियों के कारण अत्यंत कष्ट का जीवन जी रहे हैं। इन सभी आसुरी शक्तियों के निर्दालन की मैंने प्रतिज्ञा की है।”
इन दानवों से भयभीत, ऋषि-मुनियों ने, मनोभाव से कहा “हे श्रीराम, दंडकारण्य में इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले अनेक बहरूपिये राक्षस रहते हैं। उनसे हमें बड़ा कष्ट पहुंच रहा है। अतः उनके भय से आप हमारी रक्षा कीजिये।”
किं करोमीति च मया व्याहृतं द्विजसन्निधौ।
सर्वैरेतैस्समागम्य वागियं समुदाहृता ॥१०॥
राक्षसैर्दण्डकारण्ये बहुभिः कामरूपिभिः।
अर्दितास्स्म दृढं राम भवान्नस्तत्र रक्षतु ॥११॥
(अरण्यकांड / दसवा सर्ग)
दंडकारण्य में विहार करते-करते, श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण ने पंपासर तीर्थ के दर्शन किए। विभिन्न आश्रमों में ऋषियों का आशीर्वाद लेते हुए इन तीनों का भ्रमण चल रहा था।
कालचक्र अपनी गति से घूम ही रहा था…!
कहीं दस महीने, तो कहीं वर्ष भर; कहीं सात महीने, तो कहीं डेढ़ वर्ष। ऐसा करते-करते, श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण ने, दस वर्ष से ज्यादा समय दंडकारण्य में व्यतीत किया।
इस पूरे प्रवास और निवास में, श्रीराम अनुभव कर रहे थे, उन ऋषि-मुनियों के, सामान्य पौर जनों के कष्ट, जो दानवी आतंक के कारण हो रहे थे। सभी स्थानों पर भिन्न-भिन्न आसुरी शक्तियों का आतंक है। किंतु इन सब का सूत्रधार है, सुदूर दक्षिण में बैठा लंकाधिपति रावण। वह प्रत्यक्ष सामने नहीं आता। सारे आर्यावर्त में उसने अपने क्षत्रप बिठाकर रखे हैं। इन क्षत्रपों के माध्यम से, उसने पूरे आर्यावर्त को अपने आतंक के कब्जे में ले रखा है।
आतंक से मुक्ति पाने के लिए, उन क्षत्रपों को मारना आवश्यक है। किंतु यह स्थाई उपाय नहीं है। महर्षि विश्वामित्र ने दी हुई आज्ञा के अनुसार, यदि आर्यावर्त को निष्कंटक करना है, तो रावण का निर्दालन अवश्यंभावी है।
माता कैकेई ने दिए हुए इस वनवास का सुखद फल है, कि आतंक का केंद्र ज्ञात हुआ है। और साथ ही तय हुआ है जीवन का अगला लक्ष्य – रावण का निर्दालन..!
समस्या यह है कि रावण तो सामने नहीं आ रहा है। उसके निर्दालन के लिए, उससे भिड़ना आवश्यक है। इसलिए श्रीराम मन में निश्चय करते हैं, कि यदि रावण सामने नहीं आता है, तो हम ही उसको ललकारने की, उससे भिड़ने की, योजना बनाएंगे।
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