✍ गोपाल माहेश्वरी
रागिनी और रोहित के माता-पिता दोनों कर्मचारी हैं दोनों बच्चे विद्यालय जाने के समय के अतिरिक्त अपनी बूढ़ी दादी मां के पास ही रहते थे। दादी उनकी सबसे अच्छी मित्र भी थी। ये दिन ग्रीष्मकालीन अवकाश के थे। दोनों प्रतिदिन बच्चों की दुपहर दादी से कहानी सुनते बीतती थी।
आज भी वे कच्चे आमों के खट्टा मीठा शरबत के गिलास पकड़े एक नई कहानी की प्रतीक्षा कर रहे थे। दादी मां ने खाट पर अपना आसन जमाया और दाएं बाएं जम गए दोनों बच्चे। दादी की कहानी आरंभ करने की अपनी ही शैली थी। पहले वे कुछ प्रश्नोत्तर करके उत्सुकता जगाती, फिर पुरानी-पुरानी कहानियां सुनाते हुए उसे वर्तमान संदर्भ से ऐसे जोड़ देती कि बिना कहानी की शिक्षा बताए भी बच्चे उसमें छुपी सीख ग्रहण कर लेते।
दादी ने प्रश्न किया “अच्छा दोनों भाई-बहन जरा यह तो बताओ कि माता-पिता की भक्ति के आदर्श कौन-कौन हैं?”
रोहित ने कहा “एक है गणपति जी जिनकी कहानी आपने परसों ही सुनाई थी कि कैसे वे माता-पिता की परिक्रमा करके पूरी पृथ्वी की परिक्रमा लगाने की प्रतियोगिता में विजयी हुए थे।”
रागिनी ने कहा “भगवान राम भी तो माता-पिता की आज्ञा मान कर वन को चले गए थे। उनका तो राजतिलक होने वाला था पर माता कैकेई की इच्छा और पिता दशरथ जी की आज्ञा से वे चौदह वर्ष वनवास में रहे।”
दादी मुस्कुराई, उनके मुख पर संतोष था बच्चे उनकी सुनाई कहानियों को याद रखते हैं। बात आगे बढ़ाते हुए वे बोलीं “हां, एक नाम देवव्रत भीष्म का भी है उनकी कहानी भी कभी सुनाऊंगी। लेकिन ये माता-पिता के प्रति श्रद्धा, उनकी आज्ञा पालन और भक्ति के आदर्श हैं लेकिन एक नाम जो माता-पिता की सेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध है, वह है श्रवण कुमार।”
“तो आज उन्हीं की कहानी सुनाइए न दादीजी?” रोहित बोला।
“हां हां मुझे भी सुनना है दादीजी।” रागिनी ने जोड़ा। बच्चों की जिज्ञासा का हवनकुंड प्रज्वलित हो उठा था। अब दादी उनमें अपनी वाणी से आहुति डालकर ज्ञान यज्ञ का आरंभ करने को तैयार थीं।
“तो सुनो! श्रवण कुमार की कहानी रामायण की कथाओं में ही आती है।” दादी ने कहना आरंभ किया।
रोहित ने अपनी स्मरण शक्ति पर बल देते हुए कहा “दादी जी! कोरोना काल में टीवी पर रामायण देखते हुए कुछ आया तो था श्रवण कुमार पर……हां दशरथ जी का बाण लगा था उन्हें.. है न? पर पूरी कहानी याद नहीं कर पा रहा हूँ।”
“भैया! पूरी याद नहीं तो बीच में बोलकर क्यों कहानी का मजा बिगाड़ रहे हो?” रागिनी ने झल्लाकर कहा। फिर दादी से मीठे स्वर में बोली “दादी जी! आप बताइए पूरी कहानी।”
दादी ने समझाया “बताती हूँ रागिनी बेटी! पर भैया से ऐसे चिढ़कर बात नहीं करते।”
“ठीक है दादी जी! आगे से ध्यान रखूंगी।” रागिनी ने कहा तो दादी ने खूब स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ घुमाया और कहानी कहने लगी “बात राम जी के युग, त्रेता की है पर उनके जन्म के पहले की। रामलला के पिता अयोध्यापति महाराज दशरथ महान पराक्रमी सम्राट थे, इतने वीर कि देवताओं के राजा इन्द्र भी असुरों से युद्ध करते समय कई बार दशरथ जी की सहायता लेते थे। उनकी एक अद्भुत विशेषता थी कि वे बिना आंखों से देखे केवल शब्द सुनकर तीर का निशाना लगा सकते थे।”
“पृथ्वीराज चौहान जी की तरह? आपने सुनाई थी उनकी कहानी।” रागिनी बोले बिना न रह सकी।
अब रोहित को अवसर मिल गया था। वह बोला “दशरथ जी पृथ्वीराज जी की तरह नहीं बल्कि पृथ्वीराज जी दशरथ जी की भांति शब्दभेदी बाण चलाते थे।” छोटी बहिन पर अपनी जानकारी का रौब जमाने का अच्छा अवसर था यह। बात सटीक थी, तर्क ठीक था तो दादी का स्नेह भरा हाथ इस बार रोहित की पीठ पर घूम ही गया।
वह बहुत प्रोत्साहित हुआ और उत्साह से बोला “दादी जी! मुझे याद आ गई पूरी कहानी। मैं सुनाऊं? कुछ गलती हो तो आप सुधारना।” स्वर में उत्साह व विनम्रता एकसाथ प्रकट थे।
“सुनाओ, तुम सुनाओ।” दादी ने सहमति दी तो रोहित आत्मविश्वास से भर उठा।
“श्रवण कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को कावड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा करवाने निकला था।” वह कहने लगा।
“कावड़ यानि एक डंडे के दोनों ओर कुछ सामान लटकाकर, उस डंडे को कांधे पर रख कर ले जाने का साधन।…जैसे सावन के महीने में कांवड़िए गंगाजल भरकर ले जाते हैं। लेकिन श्रवण की कावड़ बड़ी थी। उसने दोनों ओर दो बांस के बने बड़े-बड़े टोकरे बांध रखे थे जिसमें उसने सामान नहीं बल्कि अपने माता-पिता को बैठाया था।” दादी ने बिना पूछे ही रागिनी की उलझन सुलझा दी।
रोहित ने कहानी आगे बढ़ाने को मुंह खोला पर रागिनी ने प्रश्न कर लिया “पर ऐसे कांवड़ में क्यों? बैलगाड़ी, घोड़ा, रथ या पैदल ही क्यों नहीं?”
रोहित बोला “दो कारण एक तो बहुत निर्धन थे तो गाड़ी घोड़े कहां से लाते? दूसरे श्रवण के माता-पिता बहुत बूढ़े हो चुके थे और देख भी नहीं सकते थे तो इतनी लंबी तीर्थ यात्रा पैदल भी कैसे होती?”
“तीर्थ यात्रा बहुत लंबी होती हैं?” रागिनी ने जिज्ञासा प्रकट की।
“बुद्धू कहीं की इतना भी नहीं जानती?” रोहित को टोका-टोकी पसंद न आई।
दादी ने फिर बात सम्हाली “ऐसा नहीं रोहित! कोई कुछ पूछे तो बताना चाहिए, उसे बुद्धू नहीं कहते।” फिर रागिनी को बताने लगी “बेटी! तुमने बड़ा बढ़िया प्रश्न किया है शाबास। देखो पूरी भारत भूमि पर ही अनेक पवित्र तीर्थ स्थान हैं। इनमें से भी कुछ बहुत प्रसिद्ध तीर्थों जैसे चार धाम या बारह ज्योतिर्लिंग या सात पुरियां या बावन शक्ति पीठों की भी यात्रा करें तो एक कोने से दूसरे कोने तक लगभग सारे भारत की परिक्रमा हो जाती हैं। अब हमारा देश इतना विशाल है तो ये यात्रा भी लंबी तो होंगी ही।”
“अब समझ में आया दादाजी!” कहते हुए रागिनी अपने कानों के पास हाथ हिलाते, जीभ दिखाकर रोहित को चिढ़ाया। दादी ने फिर टोका “गंदी बात रागिनी! भैया ने कहानी इधर-उधर की बातों में भटक न जाए इसलिए ही टोका था। अब ध्यान से आगे सुनो।”
रोहित आगे कहने लगा “उन्हें तीर्थयात्रा तो करना ही थी तो पुत्र ने उनकी इच्छा पूरी करने के लिए बिना कोई बहाना बनाए कावड़ में ले जाने का यह कठिन और अनूठा उपाय सोचा था। वे यात्रा करते अयोध्या के पास सरयू के किनारे आए। माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए किनारे से काफी दूर एक घने वृक्ष के नीचे माता-पिता को बैठाकर श्रवण कमंडल लिए जल भरने सरयू तक आया ही था। उसने जैसे ही कमंडल में पानी भरा गड़ड़ड़ड़ की आवाज हुई।”
“जैसी मैं अपने खेत के पास वाली नहर से गगरी भरती हूँ तब होती है, वैसी?” रागिनी को आनंद आ रहा था। उसने ताली बजाकर कहा।
“हां, पर वहां ताली बजाने जैसी कोई बात नहीं हुई। हुआ यों कि पास ही महाराज दशरथ अकेले ही वन विहार को आए हुए थे। कमंडल में जल भरने की आवाज से उन्हें भ्रम हुआ कि कोई हाथी पानी पी रहा है। वह कहीं नगर में घुसकर उत्पात न मचाए इतना ही सोचकर बिना अधिक सोच-विचार के उनका शब्दवेधी बाण चला और निर्दोष श्रवण को जा लगा।”
अरे! फिर?” रागिनी दुखी हो उठी। “उसकी चीख सुनकर दशरथ भागे हुए आए। श्रवण से सब हाल जाना। क्षमा मांगी। राज वैद्य से उपचार के लिए उसे राजभवन ले जाना चाहते थे पर श्रवण को अपना बचना असंभव लग रहा था। उसने मरते-मरते दशरथ से अपने दृष्टिहीन माता-पिता को पानी पिलाने का अनुरोध कर, प्राण त्याग दिए।” बताते हुए रोहित का स्वर भी भीगा-भीगा सा था। सबकी आंखें भर आईं थीं। दो पल सन्नाटा, दुखभरी चुप्पी छा गई।
“फिर क्या हुआ?” रागिनी ने पूछा।
रोहित के गले से आवाज न निकल सकी। दादी ने दुखभरी कहानी जल्दी समेटने के उद्देश्य से कहा “दशरथ जल पिलाने पहुंचे पर दृष्टिहीन होकर भी श्रवण के माता-पिता पहचान गए कि ये श्रवण नहीं कोई और है। दशरथ को सब सच बताना पड़ा और बेटे के न रहने का समाचार जानकर, बिना सोचे समझे अपनी विद्या का प्रयोग करने वाले दशरथ को, ‘राजन्! तुम भी पुत्र वियोग में प्राण त्यागोगे’ ऐसा शाप देकर वे वृद्ध माता-पिता भी स्वर्ग सिधार गए।” दादी भी सोच रही थी इस दुख भरे कथानक को कैसे सम्हाले? बच्चों को दुख भरे अंत की कहानियां नहीं सुनाना चाहिए। इससे उनके मन पर बुरा प्रभाव होता है ये बात वे अच्छी तरह जानती थी पर आज तो मानो असावधानी हो ही गई।
तभी बच्चों के पिताजी लौट आए। उनके दोनों हाथों में किराना सामान आदि कई वस्तुओं से भरे, बड़े-बड़े थैले। पिताजी पसीने से लथपथ लेकिन रोहित कहानी छोड़ उनकी ओर लपका और प्रश्न दागा “हमारे लिए क्या लाए ?” तभी पीछे-पीछे मां भी आती दिखाई दी। दोनों के कार्यालय अलग-अलग थे पर घर लौटने का समय लगभग एक ही होता था। मां के हाथों में साग भाजी और फल आदि से भरा थैला था। पिताजी से उत्तर मिलने के पहले ही रोहित मां से पूछ बैठा “आज भोजन में क्या बनाएंगी?” माता-पिता पंखा चालू करके सोफे पर निढाल से बैठ गए। उनके मुख पर अल -सी पीड़ा भरी मुस्कान थी। ‘हमारे लिए क्या लाए? आज क्या बनेगा?’ ये दो ऐसे प्रश्न हैं जिनका सदियों से हर माता-पिता प्रायः प्रतिदिन सामना करते हैं। प्रश्न बड़े सरल हैं, पर उत्तर साधते-साधते माता-पिता को कितनी कठिनाई होती होगी यह समझना बहुत कठिन है। बच्चे बहुत प्यारे होते हैं पर माता-पिता की हालत जाने बगैर उनके ये प्रश्न कभी-कभी दशरथ के शब्दभेदी बाण से अनजाने ही हृदय बेध जाते हैं।
तभी रागिनी पानी के गिलास लिए आती देख मां को आश्चर्य हुआ। “आज कौन सी कहानी सुनी थी?” वे पूछ बैठीं।
“श्रवण कुमार की।” रागिनी बोली।
“तभी माता-पिता की सेवा का भाव जागा हुआ है हमारी बेटी में। धीरे-धीरे तैयारी श्रवण कुमार बनने की?” पिताजी मुस्कुरा दिए।
रोहित खिसियाते हुए बोला “पर ये तो लड़की है, श्रवण कुमार तो लड़का था।”
“तो श्रवण कुमारी सही” मां हंस दी।
पिताजी ने समझाया “श्रवण कुमार केवल किसी कहानी का एक पात्र नहीं है बल्कि वह युगों-युगों से माता-पिता की सेवा का प्रतीक बना हुआ है। श्रवण ने अपने कांधों पर कावड़ उठाकर माता-पिता की इच्छा पूरी करने का उसकी परिस्थितियों में जो संभव था उपाय निकाला। जिन माता-पिता ने हमें बचपन में कांधों पर उठाकर प्रत्येक इच्छा पूरी की बड़े होकर बच्चे उनकी इच्छा, आवश्यकता का भार, सेवा व श्रद्धा से अपने कांधों पर उठाए, यही है श्रवण बनने का अर्थ। फिर चाहे ऐसा करते समय स्वयं को थोड़ा-बहुत कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े।” पिताजी दादी की दवाई और उनके लिए पूजा के ताजे फूल अपनी मां को सौंपते हुए कपड़े बदलने अंदर चले गए।
“माता-पिता की सेवा में बढ़ा हर एक चरण तीर्थ यात्रा है और हर एक काम भगवान की पूजा।” मां ने बच्चों से कहते हुए दादी से पूछा “मां जी! आज भोजन में क्या बनाऊं?”
“बहू! जो बच्चे कहें बनाओ भाई! हमारे तो ले बाल-गोपाल ही भगवान हैं।”
“पर हमारी पहली भगवान तो आप हीं हैं मां जी!” मां मुस्कुराते हुए बोलीं। पिताजी कपड़े बदल कर लौट आए और बच्चों से बोले “श्रवण कुमार होना एक आदर्श स्थिति है। न सही उतनी कठिन सेवा पर माता-पिता की छोटी-छोटी सेवा, सहायता करके भी हर बच्चा बन सकता है थोड़ा-थोड़ा श्रवण कुमार। फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की। श्रवण बनने का अवसर सबके पास है।”
बातें करते हुए माता-पिता के थैलों से बच्चों की मनपसंद चीजें बाहर आने लगी थीं।
अचानक अपने लिए मनपसंद चीजें चुनने को लटकने वाले रोहित में एक परिवर्तन दिखा। जब उसने कहा “मां! आपको आम पसंद हैं न? आप बैठिए मैं लाता हूँ काट कर।” मां बाकी सामान रसोई में ले जाने के लिए थैला उठाकर जाने लगी तो रागिनी और रोहित ने थैला हाथ मेसे ले लिया। थैला भारी था पर दोनों भाई-बहन उसे मिलकर उठाए अंदर जा रहे थे। दादी के मुख पर संतोष था कहानी की आनंदमय सम्पूर्णता का। रोहित और रागिनी के के मन में जन्म ले रहे थे छोटे-छोटे श्रवण कुमार।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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