आषाढ़ का वह दिन

✍ गोपाल माहेश्वरी

आषाढ़ मास आरंभ हो चुका था। गरमियों का सूनेपन से ऊब चुका आकाश इस माह कभी भी चित्र-विचित्र छोटे-बड़े बादलों से भर उठता जैसे बीच की भोजन अवकाश वाली घंटी बजते ही, शाला का सूना मैदान खेलते-चहकते बच्चों से भर जाता है। अब शाला का यह मेला तो भरता है बीस-पच्चीस मिनटों के लिए लेकिन आकाश के आंगन में ये बादलों के झुण्ड खेलते रहेंगे तीन-चार महिने।

बरसात आती है तो सुगंधा को थोड़ी कठिनाई तो होती है शाला जाने में, खासकर जब दिन की शुरुआत ही खूब झमाझम बरसात वाली हो और शाला ले जाने वाली बस भी न आए, पर तब गुलाबी फूलों वाली बरसाती पहने पिताजी की मोटरसाइकिल पर शाला जाने में आनंद भी बहुत आता है।

आज तो सुगंधा के बचपन का सबसे अच्छा बरसाती दिन था। भोर से ही वर्षा हो रही थी कभी रिमझिम कभी झमाझम। अपने प्रतिदिन के अभ्यास के अनुसार उसने जैसे ही अपने कमरे की खिड़की खोली हवा के एक तेज झोंके से पक्की सहेली की तरह बिना रोक-टोक अंदर चली आई फुहार ने उसका मुंह धुलवा दिया।

“अरेऽ!” सुगंधा चौंकी फिर पट से खिड़की के कांच वाले पल्ले बंदकर दिए और अंदर से रिमझिम से तेज होती बरसात देखने लगी। वह बस थोड़ी ही दूर वह भी धुंधला-धुधला ही देख पा रही थी। खिड़की के कांच ऐसे लग रहे थे जैसे गर्म दूध पीते हुए उसकी भाप से चश्मे से दिखने लगता है। झोंके तेज हो जाते तो लगता खिड़की नहीं माँ द्वारा गैस पर चढ़ाई दूध की भगोनी है जिसमें दूध उफनने को उतावला हो रहा है।

सुगंधा का मन मचल रहा था इस दूधिया परदे के पीछे छुपे संसार को देखने के लिए। कोतुहल था पीछे तक सब ऐसा ही है या कुछ अलग दृश्य होंगे?

“अरे रे! ये क्या हुआ?” माँ के स्वर से सुगंधा का ध्यान टूटा। वह पलटी तो देखा, खिड़की के पास ही रखी उसकी पढ़ाई वाली मेज पर रात को जिस कापी पर उसने लाल, पीले, नीले, सिंदूरी फूल बनाकर रंग सूखने के लिए कापी खुली ही छोड़ दी थी, खिड़की से चली आई फुहार से भीग कर वे रंग फैल चुके हैं। आज सुगंधा की सुबह इतनी अच्छी हुई थी कि वह दुखी होने की बजाय मुस्कुराते हुए बोली “कोई बात नहीं माँ मैं फिर बना सकती हूँ ये।”

“तुम्हारी मेहनत बेकार कर दी इस बरसात ने ।” माँ ने कहा।

“नहीं माँ! बल्कि देखो न, कैसे हिलमिल गए हैं सारे रंग। गीले होकर कितने ताजे लग रहे हैं।” वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।

“शाबास बेटी! शाबास! तुम हमेशा ऐसी ही सोच रखना।” घनश्याम जी ने पीछे से आकर अपनी बेटी को बाहों में समेटते हुए उसके गाल पर तीन-चार पप्पियां जड़ दीं। घनश्याम जी अपनी बेटी के स्वभाव को अपनी कविताओं की तरह बारीकियों से गढ़ते थे। उनकी पत्नी बरखा भी पूरा सांथ देती। पिता कल्पना की उड़ान और विचारों की गहराई तो माँ जैसे छंदों का अनुशासन थीं और सुगंधा जैसे इन दोनों की सुंदर सी बाल कविता थी।

लेकिन कोई भी पूरे समय कविता के भाव लोक में नहीं जी सकता, सुबह-सुबह की भाग-दौड़ आखिर उनके जीवन का भी यथार्थ थी ही। एक तो वैसे ही सब आज जरा देर से ही जागे फिर इस सब सुखद संवाद में भी थोड़ा समय लग ही गया। टोकना बरखा को ही पड़ा “अच्छा अच्छा कवि महोदय और उनकी कविता सुगंधा! आप लोग घड़ी भी देख लीजिए। कितना समय गंवा चुके हैं आप?” बरखा का मीठा-सा उलाहना ऐसे लगा जैसे खिलती हुई गुलाब की कली के नीचे से हरा मुलायम कांटा छू गया हो।

“इसे समय गंवाना नहीं, बोना कहते हैं बरखा जी!” बरखा मुस्कुराई उसे ऐसे ही किसी उत्तर की आशा थी। घनश्याम आगे बोले “जैसे किसान कुछ बोता है तो जो ऊगता है वही सालभर काम आता है स्वयं के भी और अन्यों के भी। वैसे ही हैं ये आनंद के बीज।”

“जी धन्यवाद यह बताने के लिए, लेकिन आप करते रहिए ये खेती मुझे तो रसोई भी सम्हलनी है। मैं तो चली नहाने।” बरखा स्नानघर की ओर बढ़ गई।

“लो, अब तो छुट्टी आधे घंटे की, अब न मैं नहा सकता हूँ न तुम।” बेटी के गाल थपथपाते हुए पिता ने कहा।

“क्या मैं एक सुझाव दे सकती हूँ महोदय!” सुगंधा ने खड़े होकर हाथ जोड़े कुछ झुककर कहा।

“अवश्य देवी!” घनश्याम जी ने भी खड़े होकर वैसे ही नाटकीय अंदाज में उत्तर दिया। पिता-पुत्री खिलखिलाकर हंस पड़े।

“हमें देरी न हो इसका भी एक उपाय है मेरे पास।” बरखा उत्साह से बोली। उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही पिता की अंगुली पकड़ी और दरवाजा खोल छत की सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगी।

पिता ने बेटी का मन पढ़ लिया। बोले “पर हमारा आनंद किसी का काम न बढ़ा दे।” कहते-कहते घनश्याम जी अपनी कमीज और सुगंधा की फ्राक खोल दी। सफेद झक शमीज में अपनी बेटी को खिलखिलाती देखकर बोले “अब सुगंधा तो स्वयं ही एक नन्हीं बदली-सी दिख रही है।”

“हाँ, और ये सीढ़ियां हैं पहाड़।” बेटी ने लाड़भरे स्वर से ठुनककर कहा।

“तो बदली कौन-सी चढ़कर जाएगी, उसे तो उड़ना आता है।” पिता ने पुत्री को पीठ पर उठाया और “ये उड़ चली नन्हीं- सी बदली” कहते-कहते तेजी से सीढ़ियां चढ़ गए।

यह परिवार इस पांच मंजिला इमारत के ऊपरी माले पर रहता था। दो पल में पिता-पुत्री खुली छत पर जा पहुंचे। छत पर मानो एक अनूठा मायालोक बसा हुआ था। ठंडी हवाओं की सरगम पर वर्षा की बौछारें छमाछम नाच रहीं थीं। चारों ओर ढेर सारे मोतियों जैसी बूंदें बरस रहीं थीं। पानी के कारण आंखें झपकाते सुगंधा अपने पिताजी के साथ खुलेमन से भीगने लगी।

“अजी! कहां चले गए दोनों? नहा लो नल में पानी चला जाएगा।” नीचे से बरखा का जोर से निकला स्वर वर्षा के शोर में धीमा होकर सुनाई दिया। तभी अचानक वर्षा बंद हो गई।

“क्या माँ! आपने आकाश का फुहारा ही बंद कर दिया। हम नहा ही तो रहे थे।” सुगंधा ने उलाहना दिया।

“अरे वाह! आनंद आ रहा तब माँ नहीं थी और आनंद अधूरा छूटा तो शिकायत माँ से!! यह तो ठीक बात नहीं हुई न?” पिता ने प्यार से बेटी को टोका।

एक तो बादलों ने अचानक नहलाना रोक दिया ऊपर से पिताजी की यह शिक्षा सुगंधा का फूल-सा मुखड़ा थोड़ा कुम्हलाया-सा दिखा।

“अरे वह देखो! न माँ ने टोका न बादल ने रोका। बस तुम वर्षा का स्वागत कर रही थीं तो वर्षा भी तुम्हारे लिए कुछ और नया दिखाने के लिए जरा थम गई है।” कुशल माली की कला जैसे पिता ने बेटी का मुख-पुष्प पुनः खिला दिया।

“क्या दिखाना चाहती है वर्षा?” सुगंधा की उत्सुकता चरम पर थी।

“पीछे मुड़कर देखो।” पिता ने कांधे पकड़कर उसे घुमा दिया।

“अरे वाह!! कितना बड़ा!! कितना सुन्दर है!! क्या है यह?” बेटी ने प्रसन्नता से ताली बजाते हुए पूछा।

“हमारी सुगंधा की चित्रकला वाली कापी का भीगा हुआ पन्ना, लगता है खिड़की से उड़कर आकाश पर जा चिका है।” वे बेटी की कल्पना को पंख लगा रहे थे।

“वाह लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी और बैंगनी, सारे रंग एक साथ!!” सुगंधा आनंद भरे आश्चर्य में डूबी थी।

“जैसे सहेलियां एक दूसरे के गले में हाथ डाले नाचने को तैयार खड़ी हों?” घनश्याम जी का भी कवि-मन जाग चुका था।

बरखा चटपटी हरी चटनी व मकई के भुट्टों के गरमागरम पकौड़ों की प्लेट लिए आते-आते बोली “अरे! यह इन्द्रधनुष आप दोनों अकेले ही देखेंगे मेरी तो किसी को याद भी नहीं आई।”

मोर्चा घनश्याम जी ने सम्हाला “अरे भाई! बरखा बिना इन्द्रधनुष न आकाश में दिख सकता है न हमारे परिवार में। क्यों बेटी!” सुगंधा ने ‘बिल्कुल सही’ कहते हुए सिर इतनी जोर से हिलाई कि बरखा हंसे बिना न रह सकी। हाथों में पकौड़ा उठाए घनश्याम जी बोले “आप न आतीं तो हमें बताता ही कौन कि यह हमारी बेटी की चित्रकला की कापी का पन्ना नहीं इन्द्रधनुष है?”

“वह भी समझती है कि कापी का पन्ना इतना बड़ा तो नहीं होता कवि महोदय!” बरखा ने पति के मीठे कटाक्ष का वैसा ही उत्तर दिया।

गुनगुनी धूप खिल उठी थी। गीले कपड़े सूखने लगे। इन्द्रधनुष फीका पड़ते हुए अदृश्य होता जा रहा था। सुगंधा ने साफ आकाश देखा तो पूछा “अरे! कहां चली गईं वे छोटी-छोटी बदलियां?”

“मौसम की पाठशाला में बरसने का नया पाठ सीखने।” बरखा ने उसे शाला की याद भी दिला दी और सुंदर उत्तर भी दे दिया।

“अरे! मुझे भी तो शाला जाना है। देर हो गई आज तो।” सुगंधा हड़बड़ाई सी सीढ़ियों की ओर भागी।

“धीरे उतरो। तुम्हें देर नहीं होगी सुगंधा!” माँ के स्वर में दृढ़ आश्वासन था, फिर वह पति की ओर देखकर मुस्कुराते हुए धीरे से बोली “तुम्हारे पिताजी को समय को पकड़ना जो आता है।”

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

और पढ़ें : आरती

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *