स्व-बोध की सप्तपदी

✍ शिरोमणि दुबे

कोई भी राष्ट्र जब अपने स्वबोध के विषय में विस्मृति का शिकार होने लगता है। जब सभ्य समाज अपनी सनातन परंपराओं पर गर्व करने के बजाय घृणा करने लगता है। वे देश दुनिया में अपने अस्तित्व को बचाकर नहीं रख सके। बड़े-बड़े सशक्त राष्ट्र जो अपने पूर्वजों, पुरखों, परंपराओं, विरासत को भूल गए, उन देशों को इतिहास ने दुनिया के मानचित्र से मिटा दिया। दुनिया को हैसियत के बल पर हांकने वाले रूस जैसे राष्ट्र भी राष्ट्रबोध के अभाव में टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गए। आज उन देशों की गाथाएं केवल इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई हैं। फारस जिसे आज ईरान कहते हैं उसके पास अपना कहने लायक कुछ नहीं बचा। राष्ट्र बोध के अभाव में न भाषा बची न महापुरुष बचे। पूजा के स्थान ढहा दिए गए। पर्शिया के धार्मिक ग्रंथों को जला दिया गया । ग्रीक गणराज्य अपने स्वत्व को भूल गया। परिणामतः वहां के मठ, मंदिर, मूर्तियां, देवी-देवता सब मिटा दिए गए । आज अरस्तु, सुकरात, मेगस्थनीज, पाइथागोरस जैसे दार्शनिक, गणितज्ञ ग्रीक की पहचान नहीं है।

जब विरासत को बचाने वाला समाज खड़ा नहीं होता है तब राष्ट्र के रूप में उन देशों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। हमारे देश में भी दुनिया की सबसे हिंसक, क्रूर जातियों के सैकडों हमले होते रहे। देश को मिटाने के लिए शक, हूण, कुषाण, यवन तथा यूनानी आते रहे। लेकिन भारत इन आक्रमणों के बाद भी स्वयं को बचाकर रख पाया क्योंकि हमारी राष्ट्रीय चेतना हमेशा जीवित रही। हालांकि अरब, इस्लाम के आक्रमणों ने हमारे देश को हिला कर रख दिया था। बाद में अंग्रेज, डच, फ्रेंच, पुर्तगालियों ने भी भारत के ‘स्व’ पर जोरदार प्रहार किये। लेकिन वे हिंदुस्तान के राष्ट्रीय अस्मिता को समाप्त नहीं कर सके। तब इतिहास में लिखा गया –

यूनान, मिश्र, रोम, सब मिट गए जहां से,

बाकी बचा है अभी नामो निशां हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।

भारत में स्वाधीनता के बाद शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन के लिए देश के जन को 72 वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। इन सात दशकों में मैकाले मॉडल ने नौकर तो पैदा किये लेकिन वर्तमान शिक्षा प्रणाली नायकों का निर्माण करने में लगभग विफल सिद्ध हुई। इसलिए आज भी जेएनयू से जाधवपुर तक विश्वविद्यालयों में देश को तोड़ने वाले नारे लगते हैं। देश की बर्बादी के पोस्टर प्रकाशित हैं। स्वाधीनता के बाद देश की वाम बिरादरी एक विमर्श खड़ा करने में लगी रही कि भारत कोई राष्ट्र नहीं है। भारत का अपना कोई इतिहास नहीं है।

हम पराधीनता के पाश से जैसे-तैसे छुटकारा तो पा गए लेकिन स्वतंत्र नहीं हो सके। प्रत्येक राष्ट्र का अपना ‘स्व’ होता है जिसे उस राष्ट्र की चिति कहते हैं। स्व में प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र को गढ़ने की क्षमता होती है। प्रत्येक राष्ट्र अपने ‘स्व’ के आधार पर तंत्र का विकास करता है तब सुशासन की स्थापना होती है। सच्चे अर्थों में स्वराज की निर्मिति होती है। हमारी चेतना के वाहक दयानंद, विवेकानंद, शिवाजी, तिलक ने स्वदेश, स्वराज का केवल गुणगान ही नहीं किया बल्कि आदिलशाही, निजामशाही को परास्त कर शिवाजी ने हिंदवी साम्राज्य की स्थापना की थी। महर्षि दयानंद ने स्वभाषा, स्वदेशी के लिए पूरा जीवन लगा दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने स्वतंत्रता की सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता और परतंत्रता का अंतर शासन की बागडोर का स्वदेशियों और विदेशियों के हाथ में रहना भर नहीं है। महत्वपूर्ण यह जान लेना है कि विदेशी शासक सुशासन दे सकता है स्वराज नहीं दे सकता। गीता में ‘स्व’ की सुंदर व्याख्या की गई है – “स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः”

इसे शिक्षा प्रणाली की विडंबना ही कहा जाएगा कि आज भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के आविष्कारक के रूप में आइजक न्यूटन को विद्यार्थियों को रटाया जाता है लेकिन भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य को भुला दिया गया। ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी पूर्व के प्रसिद्ध शल्य चिकित्सा आचार्य सुश्रुत को आज मेडिकल साइंस में पढ़ाया ही नहीं जाता। आज तक मेडिकल की पुस्तकों में महान शल्य चिकित्सक को दो पृष्ठ भी उपलब्ध नहीं हो सके। हमारे देश में 85 प्रकार की भस्म गांव के लोग बनाते थे। आज भस्मों का रसायन शास्त्र में कोई उल्लेख नहीं होता। यहां तक कि हमारे देश का प्राचीन रस शास्त्र हमें कभी पढ़ाया नहीं गया। हमारे देश की विडम्बना यह है कि देश ने उन गणितज्ञों को भुला दिया जिन्होंने संपूर्ण दुनिया को अंकशास्त्र, बीजगणित, ज्यामिति, दशमलव, पाई जैसी अवधारणाएं सिखाई थीं। काल गणना के विषय में भारतीय पंचांग के आगे यूरोप के कैलेंडर पासंग में भी नहीं है।

समय को मापने की सबसे छोटी इकाई परमाणु जो सेकंड का 60750वां भाग होती है ऐसी सूक्ष्म कालगणना हमें न पढाई गयी न बताई गई। आज भी हमारे विद्यार्थियों को भारतीय नव वर्ष का प्रारंभ दिवस याद नहीं है। हिंदी महीनों के नाम नक्षत्रों की गति के आधार पर निर्धारित किए गए हैं, यह ज्योतिष विद्यार्थियों को सिखाया नहीं गया। आज भी छोटे से गांव का पुरोहित पंचांग देखकर बता देता है कि अगले साल सूर्य ग्रहण कब आएगा। 12 वर्ष के बाद कुंभ का मेला कब लगेगा। मंगल, बुद्ध, चंद्रमा की दशा उसका प्रभाव हमारे पुरोहित पंचांग से बताते हैं। लेकिन भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा को अवैज्ञानिक, कालवाह्य बताकर उसे झुठलाने का प्रयत्न होता रहा। अंग्रेजों के जाने के बाद भी पश्चिम की जूठन पर पलने वाली यूरोप बिरादरी के द्वारा भारत के प्राचीन गणतंत्र को नकारने का विमर्श खड़ा किया गया। जबकि बाबा साहब अंबेडकर जी ने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में कहा था कि बेशक हम आज गणराज्य बन रहे हैं, रिपब्लिक बन रहे हैं लेकिन यह पहली बार नहीं बन रहे हैं। पहले भी हमारे देश में संसद होती थी। निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा सत्ता संचालन किया जाता था। आज भी इतिहास में वैशाली, वत्स, अंग जैसे 16 गणराज्यों का उल्लेख मिलता है।

जो अच्छा है उसे स्वीकारें। इस सृष्टि में जो भी सत्य, शिव और सुंदर है उसे ग्रहण करें। भारत में अपने चारों ओर के वातायनों को हमेशा खुला रखा है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है – “आ नो भद्रा: कृतवो यंतु विश्वतः”। दुनिया में जो जो श्रेष्ठ विचार हैं, उसे ग्रहण करें। लेकिन अपने ‘स्व’ को भी बचाए रखना उतना ही महत्व का कार्य है। हमारे देश पर पहला आक्रमण भाषा पर ही हुआ इसलिए अनेक विजातीय शब्द हमारी भाषा में घुल मिल गए। हेलो का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं है लेकिन आज यह शब्द हर एक की वाणी पर रहता है। ‘ममी’ मरी हुई, ‘डैड’ मरा हुआ जीवित माता-पिता के लिए इन शब्दों का प्रयोग करना भाषाई नंगई के सिवा और क्या हो सकता है। इजरायल जैसा छोटा सा देश जब अपनी भाषा में गरजता है अरब राष्ट्रों की घिग्घी बंध जाती है। अब जॉनी जॉनी यस पापा जैसी पोइम के स्थान पर “उठो लाल अब आंखें खोलो पानी लाई हूँ मुंह धो लो” जैसी कविताएं सिखानी होगी। अन्यथा अब जो पीढ़ी जन्म लेगी उसके पास कार तो होगी लेकिन संस्कार नहीं होंगे। हम भारतीय परिधान को छोड़ते जा रहे हैं। मांगलिक आयोजनों, पर्वों, अनुष्ठानों जयंतियों, उत्सवों पर भी अमंगल वेष का चलन हमारे भारतीयत्व पर ढेरों प्रश्न खड़े करता है। परिधान हमारी पहचान है पहले फटे कपड़े पहनना अशुभ माना जाता था। आज सिले कपड़ों को फाड़ कर पहनने का चलन हमें कहां तक गिरा देगा आज कहना कठिन है।

आज हमारी रसोई में रस नहीं है। होटलिंग, बॉटलिंग के इस दौर में शराब और कबाब ने हमारे भोजन को विषाक्त कर दिया है। हमारे घर की रसोई में बर्तनों के खनकने की आवाजें अब कम सुनाई देती हैं। जहां रसोई में 800 प्रकार के भोजन, षडरस व्यंजन बनते थे। आज 4 दिन की सड़ी हुई मैदा से तैयार किए गये अखाद्य पदार्थों को युवा शहर की चौपाटी पर चटकारे लेकर बड़े चाव से खाता है। हमारे घर की रसोई कभी ठंडी नहीं होती थी। उसमें गाय, अतिथि, भिक्षुक तथा कुत्ता सबका पेट भरने के लिए अन्न रहता था। रसोई से जीवन रस मिलता है इसी ‘स्व’ को निरंतर जगाने की आवश्यकता है। भजन का अर्थ सेवा करना है। हमने धूप, दीप, नैवेद्य चढ़ाकर भगवान की आरती को भजन मान लिया है। लेकिन आरती के अंतिम अंतरा की अंतिम पंक्ति ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भावार्थ जन जीवन में जितनी गहराई तक उतर जाता है, भजन उतना ही पक्का होता है। इसलिए पड़ोसी के घर में रात का चूल्हा जलता रहे मानवता की यही सच्ची सेवा भगवान का भजन है पूजन भी है। आज अपने घरों के मानचित्र पश्चिमी मॉडल पर बन रहे हैं उनमें आंगन होता ही नहीं है। पश्चिमी देशों में घरों में आंगन नहीं होने की वजह समझ में आती है क्योंकि उत्तरी गोलार्ध में अधिक ठंड पड़ती है लेकिन भारत के घरों में कर्क रेखा के निकट होने के बाद भी आंगन नहीं होना समझ से परे है। वास्तविक घर तो वही है जहां पूजा घर, ग्रंथालय, चित्रावली रंगोली, दीपक और तुलसी की स्थापना की गई है। गृहणी के बिना गृह मकान हो सकता है, ठहरने का स्थान हो सकता है लेकिन घर नहीं हो सकता है। भ्रमण हमारी परिवार परंपरा का भाग रहा है। हम देव दर्शन के लिए चारों धाम की यात्रा करते हैं। वैष्णोदेवी के दर्शन के लिए जाते हैं इससे हमारा जीवन धन्य होता है। लेकिन जिन्होंने स्वत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, उन स्थानों के दर्शन को तीर्थ दर्शन के समान ही माना गया है। पद्मिनी के जौहर कुंड को देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाया करते हैं। जलियांवाला बाग जहां बैसाखी के दिन हजारों देश भक्तों के सीनों को पार कर गोलियां दीवार में जा धंसी थीं। आज भी हजारों लोग बलिदान की इन समाधियों पर वंदन करने के लिए शीश झुकाए खड़े मिलते हैं।

आकाश, धरती, पहाड़, नदियां, सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र मंडल इन सभी घटकों के प्रति पूज्य भाव रखना यही स्वबोध है। जो देता है, वह देवता है। प्रकृति हमारा पालन करती है इसलिए प्रकृति मेरी मां है। प्रकृति का शोषण नहीं पोषण करना है। प्रकृति के साथ एकात्म भाव यहीं हिंदुत्व है। चिड़िया, पक्षी, गाय, चींटी, कुत्ता सभी में एक ही आत्म तत्व है। द्वैत बाहर दिखाई देता है लेकिन अंदर तो अद्वैत ही है। इसलिए गौरैया के पंख उखाड़ते नहीं हैं। राजा रंति देव 40 दिन के उपवास के बाद सामने रखे भोजन के थाल को भिक्षुक को देकर स्वयं तृप्त अनुभव करते हैं। परमात्मा तो बहुत दयालु-कृपालु है चींटी को चुन भर देते हैं, हाथी को मन भर देते हैं। ऐसे दीनानाथ दयालु सबका मन हर लेते हैं।

मितव्ययी जीवन जीना हमारे देश परंपरा रही है। अधिक संग्रह, संचय तथा अधिक उपभोग का निषेध हमारे शास्त्रों में किया गया है। हमारे साहित्य में लिखा है –

साईं इतना दीजिए या में कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय।

अधिक संग्रह करना ही भ्रष्टाचार का मूल है। धर्म के आधार पर अर्थोपार्जन करने का निर्देश हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में दिया है –

तेन त्यक्तेन भुञजीथाः मा गृधः कस्यस्विद धनम्।।

इसीलिए राजा रात्रि में भ्रमण के लिए निकलते थे। वह देखते थे कि मेरे राज्य में कोई भूखा तो नहीं है। कोई बीमार तो नहीं है। अपने पास जो कुछ है उसमें दूसरों की सेवा के लिए कुछ भाग निकालना ‘स्व’ कहलाता है। जो कमाया है, उसमें से दो, यही भारतीय संस्कृति है। खेत से गेहूं निकाल कर उसमें से लुहार, कुम्हार, बढ़ई, नाई, दाई सभी का भाग निकाला जाता था। उसके बाद जो बचता था, उसे अपने घर पर लाते थे। यही अपने देश की सनातन परंपरा रही है –

शत हस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर”

सौ हाथों से उपार्जन करो, हजार हाथों से दान करो यही भारतीय मनीषा का निर्देश था।

अंततः ‘स्व’ का बोध, स्वत्व का जागरण यह कार्य सत्ता-सरकारों की चुहलबाजियों से होने वाला नहीं है। यह कार्य गुरुकुलों, विद्या मंदिरों में आचार्यों, उपाध्यायों, मनीषियों के चरणों में बैठकर निरंतर साधना-उपासना से होगा। परानुकरण अंधानुकरण तथा पश्चिम की निरे बासी-उबासी जीवन के अनुकरण से भारत का युवा आज भ्रमित है। आज का युवा हताश, बदहवास इसलिए नहीं है कि उसके पास सामर्थ्य नहीं है, योग्यता नहीं है बल्कि इसलिए वह उदास है कि ‘स्व’ के लिए जीवन लगाने वाले नायक उसे पढ़ाए ही नहीं गए। ध्यान रहे भोर तो प्रतिदिन होती है लेकिन ऐसी भोर जिससे सारा विश्व प्रकाशित हो जाए, यही भोर का शुक्ल पक्ष है। तमस कितना ही गहरा क्यों ना हो एक टिमटिमाता दिया उस तमस को उजाले में बदल सकता है। बस शर्त एक ही है तेल की अंतिम बूंद तक दीपक को जलना होगा।

(लेखक विद्या भारती मध्यभारत प्रान्त के प्रदेश सचिव है।)

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