✍ गोपाल माहेश्वरी
“आरती! जरा गाय को चारा डाल दे, भूखी होगी।” माँ ने कहा।
“अभी डाल देती हूँ माँ!” आरती लगते जेष्ठ को चौदह बरस की होगी पर घर के छोटे-छोटे दसियों काम फुदकते उछलते बड़े उत्साह से करती है। छोटे-छोटे घघरा-चोली पर बार बार खिसक कर परेशान करती ओढ़नी यही साधारण-सी ग्रामीण वेशभूषा में घूमते रहने वाली आरती की बोली में गुड़ जैसी मिठास थी। गाय को चारा डालने गई तो वहीं रम गई।
माँ ने पुकारा “आरू! कहां चह गई रे?” सब आरती को प्यार से आरू ही बुलाते थे।
“आती हूँ माँ! यह गौरी आने ही नहीं दे रही। कहती है मेरे साथ खेलो।” गौरी उनकी गंगा गाय की बछिया है।
आरती का उत्तर सुन माँ मुस्कुरा दी “गौरी ने तेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया होगा है न?” माँ जानती थी गौरी और आरू जैसे एकप्राण थे।
“आरू मैं शिव मंदिर जा रहा हूँ। तू चलेगी?” आरती के बापू ने टेर लगाई।
“मैं अभी आई।” जाने यह बापू से कहा या गौरी से पर वह बछिया के गले मिल गंगा को पुचकार कर, घाघरी से हाथ पोंछते आकर बापू के घुटनों से लिपट गई।
दोनों गांव के शिव मंदिर की ओर चल दिए। रास्ते में उसकी कुछ बराबरी की सहेलियां मिलीं “आरू! खेलेगी हमारे साथ?” एक ने पुकारा।
“अभी नहीं अभी शिवजी बुला रहे हैं।” “शिवजी बात करते हैं तुझसे!?”
“हांऽऽ।” उसके उत्तर पर सब हंस दिए पर वह गंभीर थी।
शिव मंदिर पहुंचकर उसने मधुर कंठ से शिवाष्टक ‘नमामीशमीशान निर्वाण रूपं’ गाया। सभी विभोर हो उठे। पंडित जी से पैर छूकर आशीर्वाद लिए बाहर बैठे निर्धनों को मुट्ठी-मुट्ठी अनाज दिया फिर लौटते समय अपनी सहेलियों के पास ही रुक गई। सब गांव की छोटी-सी नदी के रेतीले तट पर खेलती रहीं।
आरती कब खेलती कब काम करती यह अलग-अलग परखना कठिन था। कभी लगता हर काम उसके खेल का हिस्सा है तो कभी लगता, खेलते-खेलते भी वह प्रतिपल कुछ सीखती है, अनजाने ही कुछ सिखाती भी है। यह उसकी विलक्षण बुद्धि के कारण होता था। उसके स्वभाव में वह सरलता भरी निर्भीकता थी कि बड़े से बड़े व्यक्ति को भी अपनी बात कहने में कोई उसे अटकाव, कोई झिझक नहीं होती थी। यद्यपि कुछ लोग उसकी इस निर्भीक स्पष्टवादिता से प्रभावित भी थे पर बहुत ऐसे भी थे जो इसे छोटे मुंह बड़ी बात कहकर उपेक्षा भी कर देते थे। इतनी छोटी-सी बच्ची की, भली बातें भी उनको उपदेश लगतीं और वे इसे ठीक नहीं मानते थे। आरती को कहां अंतर पड़ता था? कोई माने न माने, उसे तो जो ठीक लगा कह देती। वह इतनी तार्किकता, विनम्रता और सहजता से अपनी बात कहती कि कोई उसको चाहते हुए भी काट न पाता था।
उस दिन शिव मंदिर के बाहर बैठने वाली एक भिखारिन के डेढ़-दो वर्ष के छोटे-से बच्चे ने मंदिर के अंदर जा रहे पंडित जी के पीठ पर लटकते उत्तरीय को पकड़ लिया। पंडित जी तो ज्वालामुखी की तरह फट पड़े, अपवित्रता की बात कहते हुए पैरों से बच्चे को इतनी जोर से ठुकराया कि उसके दांत, होठों पर गड़ गए। खून बहने लगा। बच्चा बिलबिला उठा। आरती वहीं खड़ी थी। पंडित जी के मंत्र उच्चारण करने वाले मुख से आज जो धारा प्रवाह शब्द निकले जा रहे थे उन्हें साधारण लोग गालियां कहते हैं। आरती ने बच्चे को गोद में उठाया तो पंडितजी की त्यौरियां और चढ़ गईं।
“आरती! आज से तुम भी मंदिर में न आ सकोगी। इस अपवित्र अछूत भिखारिन के बच्चे को छू रही हो?” वे जानते थे आरती के लिए उसे उसके शिवजी से दूर करना सबसे कठोर दण्ड है। डर यह भी था कि उसने बच्चे को गोद में लिया है तो अब कुछ ऐसा करेगी जिससे उनके क्रोध का जो प्रभाव अन्य लोगों पर दिख रहा है वह कम हो जाएगा।
वे बोले “मैं जाता हूँ पुनः स्नान करने तब तक मंदिर के कपाट बंद रहेंगे।” अनेक नियमित दर्शनार्थी विवश होकर चुपचाप खड़े थे, उन्हें दर्शन करके अपने-अपने कामों पर जाना था। कुछ रुके कुछ जाने लगे।
भिखारिन भूमि पर लेट कर क्षमा माँग रही थी, उसका अपने बच्चे को उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। बच्चा रोए जा रहा था। आरती से रहा नहीं गया। वह आगे बढ़ी तो उसके पिता ने हाथ पकड़ कर रोकना चाहा, लेकिन झटके से हाथ छुड़ाकर उसने बच्चे को उठाया। वह भी छोटी ही थी दूसरे बच्चा भी बहुत व्याकुल था। जैसे तैसे गोद में लिया तो और मचलने लगा। आरती ने जोर से कहा “चुऽऽप।” जोर की डपट सुनकर बच्चा पलभर चुप हुआ फिर जैसे शिकायत कर रहा हो, स्नान करने जाने को मुड़ चुके पंडितजी की और हिचकी लेते हुए अंगुली दिखाकर बोला “इनने माला (मारा)।” यह सुनकर पंडित जी क्रोध से पलटे तो बच्चा डरकर आरती के कांधे से चिपक गया।
“मार खाकर डर जाना, रोते रहना बहुत बुरी बात है। इनने मारा है न तो क्या करेगा? “वह पंडितजी के पास आ गई। बच्चे में जाने कैसे साहस आया और उसने पंडित जी के हाथ पर जोर से काट लिया। बच्चों के दांत बहुत पैने होते हैं रक्त की दो बूंदें छलछला आईं। सब पर जैसे बिजली गिर पड़ी। कोई नहीं जानता था अब क्या होगा? भय भरा सन्नाटा छा गया। केवल आरती बच्चे को उसकी माँ को सौंपते हुए बोली “क्षमा कीजिए पंडित जी! लेकिन आपका क्रोध ही अनुचित था। बच्चा क्या जाने, क्या पवित्र क्या अपवित्र? फिर हमारे शिवजी शवों की भस्म रमाकर भी सबको पवित्र करने वाले, श्मशान में रहने वाले भोले बाबा। देवता हो या राक्षस जो उन्हें श्रद्धा से पुकारे उसी पर प्रसन्न हो जाने वाले। भूत-प्रेत तक उनके अप्रिय नहीं तो एक अभागी माँ के अबोध बच्चे के शिवजी को इतना जानने, मानने, समझाने वाले महाज्ञाता पुजारी के कपड़े का कोना छू लेने से अपवित्रता कैसे फैल गई?”
पंडित जी चुप। क्या कहे? इस आरती ने तो सबके सामने उनकी आरती उतार दी। “तो मुझे क्या करना था यह भी बता दो ज्ञान की पुतली!” बोले वे दांत पीस कर पर स्वर अनचाहे भी ढीला पड़ रहा था। यह अनुभव होते ही अगला वाक्य सारे लोगों की ओर देखते हुए पूरा बल लगाकर कहा “अरे! हमारी कोई मान-मर्यादा है इस गांव में? जहां हमारा इतना अपमान हो रहा हो उस गांव में एक पल भी हम अब नहीं रुकेंगे।” पंडित जी धमकी का ब्रह्मास्त्र चला चुके थे।
“आप नहीं ये भिखारिन जाएगी यहां से।” दो लोग भिखारिन की ओर बढ़े।
“और यह आरती भी।” एक और उग्र स्वर गूंजा।
आरती के पिता उसका हाथ पकड़े हुए वहां से चले जाने का प्रयास कर रहे थे पर आरती दृढ़ थी।
“आप कहेंगे तो हम चले जाएंगे। बस पंडित जी इतना बता दें कि मंदिर में आपका कोई यजमान कहां से आ रहा है, किसे छू चुका है, यह सब पता किए बिना ही उस पर भरोसा करके आप पूजा-पाठ करवाते हैं न?”
“पूजा के पहले मंत्रों से शुद्धिकरण किया जाता है मूर्ख लड़की।” पंडित जी झल्ला पड़े। “अपवित्रं पवित्रो वा मंत्र पढ़ कर जल के छींटे दे देने से सब पवित्र हो जाता है। यह आप कहते भी हैं, और करते भी हैं। फिर क्यों छुआछूत का प्रश्न इतना भयंकर बनाकर डरा रहे हैं?”
“हमें धर्म-कर्म सिखाती है ये? हमें!! देखा आप लोगों ने?” वे तमतमा कर लोगों से बोले।
“डरने की अपेक्षा लड़ना न आने से, अपने ही हिन्दू धर्म की कितनी हानि हुई है मेरे बापू ने बताई हैं वे कहानियां। काशी, मथुरा, सोमनाथ, अयोध्या, तुलजापुर, पंढरपुर और ऐसे ही हजारों मंदिर, लड़ने वाले कम और डरने वाले ही लोग अधिक थे तभी अपवित्र और ध्वस्त हुए न ये धर्मस्थल?” छोटी-सी आरती में जाने कौन-सी सी अदृश्य शक्ति समा गई थी कि उसकी बात सब स्तब्ध होकर सुन रहे थे। वह बोले जा रही थी “अपने ही लोगों को हमने अछूत, अपवित्र कहकर अपमानित कर-करके हमने उन्हें पराया हो जाने, यहां तक कि विरोधी और विधर्मी तक बन जाने को विवश कर दिया और समझते रहे कि हम धर्म की रक्षा कर रहे हैं?”
“तुम इस भिखारिन के लिए इतना बोल रही हो? क्या उपयोग है इसका गांव के लिए?” एक ग्रामीण ने पूछा।
“नहीं इस भिखारिन के लिए नहीं धर्मं के लिए बोल रही हूँ।” स्वर में अटल निश्चय था।
“मंदिरों के बाहर फैली जीती-जागती गंदगी हैं ऐसे भिखारी।” यह एक महिला ने आरती की बात काटकर टोका।
“अधिक नहीं जानती, आपको उपदेश भी नहीं दे रही हूँ, पर जब रात को मंदिर के पट बंद करके पंडित जी और आप हम सब भी चले जाते हैं न अपने अपने घर, तो यही रह जाती है यहां। ठंड, गर्मी, बरसात झेलते, मच्छरों, कीड़े-मकोड़ों और आवारा कुत्तों का सामना करते रात-रात भर जागती रहती है यह। न यह जानती है न, हम मानते हैं, पर आपकी बासी रोटी, कभी कोई फटा पुराना कपड़ा और धर्म कमाने के लिए इसकी ओर उछाल दिए गए छोटे-छोटे सिक्के पाकर, यह रक्षा करती है इस मंदिर की। बीमारी से चलती इसकी खांसी, चोरों के लिए चेतावनी बन जाती है, यह भी सोचा है?”
सबको देर हो रही थी वे जाने लगे तो पंडित जी भी मंत्रों के द्वारा ही शुद्ध होकर मंदिर में प्रवेश कर गए। आरती पंचामृत के लिए रखे शहद की कटोरी से अंगुली भर शहद लेकर पंडित जी के हाथ पर बच्चे के काटने से बने हल्के घाव पर लगाने लगी तो वे बोले उस बच्चे के होठ पर अधिक घाव है, उसे भी लगा दो।”
आरती मुस्कुराते हुए बाहर गई और बच्चे को मंदिर में ही ले आई। शहद की कटोरी आगे करके बोली “आप लगाएंगे?” पंडितजी की आंखें भर आईं। अंगुलीभर शहद बच्चे के होठों पर लगाने लगे तब आरती के मुंह से अपने आप फूट पड़ा “ॐ अपवित्रं पवित्रो वा सर्वास्थानि गतोऽपि वा…” बच्चा पंडित जी की अंगुली मुंह में लिए शहद चाटने लगा। पूजा का मुहूर्त ठहर गया था।
पंडित जी के सुझाव पर बच्चे की माँ अब भिखारिन नहीं मंदिर की स्वच्छता करने वाली सेविका बन गई थी।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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