भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 108 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा परिवार में करणीय प्रयास-2)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

भारत में परिवार, शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यह संस्कृति की शिक्षा है। हमारे यहाँ शास्त्र शिक्षा को छोड़कर सब प्रकार की शिक्षा देने की व्यवस्था परिवार में ही रही है। शास्त्र शिक्षा गुरुकुल में होती है। व्यवहार शिक्षा घर में होती है। गुरु-शिष्य और पिता-पुत्र के रूप में पुरानी और नई पीढ़ी का सम्बन्ध बनता है।

इस सम्बन्ध का मुख्य सूत्र ‘पुत्रात् शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्’ है। अर्थात गुरु अपने शिष्य से तथा पिता अपने पुत्र से पराजित होने की कामना करता है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि शास्त्र में और व्यवहार में नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से सवाई होनी चाहिए। जब एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार व कौशल आदि हस्तान्तरित करती है तब कालबाह्य बातें दूर करने उसे समृद्ध बनाने और  युगानुकूल रचना करने का कार्य होता है। यह परिष्कृति का लक्षण है।

एकात्म परिवार व्यवस्था बनाना

एक परिवार में अपनी संतानों को पति-पत्नी बनने की, गृहस्थ और गृहिणी बनने की और माता-पिता बनने की शिक्षा मिलनी चाहिए। इस रूप में परिवार सांस्कृतिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। इस सूत्र को लेकर विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवार की वर्तमान स्थिति में बहुत कुछ बदल करने की आवश्यकता है।

उसका प्रथम चरण है, पुत्री को पुत्री की तरह और पुत्र को पुत्र की तरह विकसित और शिक्षित करना चाहिए। परिवार को स्वायत्त, स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होना चाहिए। परिवार कैसे चलेगा, यह परिवार के सदस्य तय करेंगे। उनका निर्वाह कैसे होगा, इसका दायित्व परिवार के सभी सदस्यों का साँझा होगा।

घर गृहिणी का होता है। घर स्त्रियों से चलता है। पारिवारिक कलह का कारण भी अधिकतर घरों में स्त्रियाँ होती हैं। इससे घर की शान्ति और सुख नष्ट होते हैं। इस दृष्टि से पुत्रियों की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। पारिवारिक समरसता बनाने और उसे बनाए रखने में घर की स्त्रियों की भूमिका क्या हो? यह शिक्षा का विषय बनना चाहिए। यह शिक्षा घर में घर की पुरानी पीढ़ी की महिलाओं को और साधु-सन्तों को देनी चाहिए।

परिवार में कभी-कभी किसी सदस्य के स्खलन की घटना घट जाती है। कभी किसी को व्यसन की लत पड़ जाती है। ऐसे समय में विवेकपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है। दोष यदि व्यक्तिगत स्तर पर है तो उसे दूर करने में कठोरता, परामर्श, सहानुभूति आदि का प्रयोग कर उसे दूर करना चाहिए। परिवार के अन्दर ही एक दूसरे के प्रति क्षमाशीलता और उदारता का पुट भी होना चाहिए।

परिवार का एक व्यवसाय होना

परिवार में अर्थार्जन भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। परन्तु अब अर्थार्जन एक व्यक्तिगत विषय बन गया है। इसे पुनः पारिवारिक विषय बनाना चाहिए। पूरा परिवार मिलकर व्यवसाय करे, यह सभी दृष्टियों से लाभदायक है। सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि परिवार का एकत्व बना रहता है। अलग-अलग व्यवसाय होने से एकात्म भाव क्षीण होता है। नई पीढ़ी अर्थार्जन हेतु नौकरी की खोज में भटकती रहती है। जब परिवार का एक ही व्यवसाय होता है तो यह भटकने की समस्या ही नहीं आती।

जन्म के साथ ही उसका अर्थार्जन सुरक्षित हो जाता है। बचपन से ही उस व्यवसाय के वातावरण में पलने के फलस्वरूप व्यवसाय की शिक्षा जब से वह माँ की कोख में आता है, तब से ही शुरु हो जाती है। वह भी बिल्कुल नि:शुल्क होती है। घर से बाहर जाकर मनमाना शुल्क देकर सीखने नहीं जाना पड़ता। व्यवसाय के स्वामी को अर्थात घर के मालिक को व्यवसाय में जो सहयोगी चाहिए, वे घर में ही मिल जाते हैं। ये सहयोगी ही आगे जाकर उस व्यवसाय के स्वामी बनते हैं।

गृहस्वामिनी अर्थात घर की मालकिन भी व्यवसाय में बराबर हाथ बँटाती है। उसे भी अर्थार्जन हेतु परायों की नौकरी करने घर से बाहर नहीं जाना पड़ता। वह घर के व्यवसाय में नौकर नहीं, हिस्सेदार होती है। घरेलू व्यवसाय होने के कारण उत्पादन में निपुणता, सृजनशीलता और उत्कृष्टता आती है। व्यवसाय का निश्चय बचपन में ही हो जाने के कारण निश्चिन्तता आती है। काम करने में आनन्द आता है। ‘कारीगरी कला बनती है और काम भगवान विश्वकर्मा की पूजा बनता है।’ अभी-अभी भगवान रामलला की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार अरुण योगीराज का उदाहरण हमारे सामने है। उनके परिवार में पाँच पीढ़ी से मूर्ति बनाने का ही व्यवसाय होता है। इसलिए वे इतनी मनमोहक मूर्ति बना पाये, जिसे देखते ही हर कोई मन्त्रमुग्ध हो जाता है।

घर को सद्गुणों का केन्द्र बनाना

संयम और ब्रह्मचर्य की शिक्षा का केन्द्र तो घर ही है। लड़के-लड़कियों का निजी व्यवहार, लड़कों की मित्र-मंडली में होने वाली बातचीत, लड़कियों की वृत्तियाँ, लड़के-लड़कियों का परस्पर व्यवहार जैसी छोटी-छोटी बातें भी माता-पिता की जानकारी में रहनी चाहिए। उन पर पहरा न रखते हुए भी नियमन, नियंत्रण, निषेध आदि यथा आवश्यकता होने चाहिए। उन्हें उचित शिक्षा, उचित पद्धति से मिले ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए।

जिस प्रकार माता घर के सभी सदस्यों के लिए स्वाभाविक रूप से भोजन बनाती है, उसी प्रकार दस वर्ष की आयु तक बच्चों को माता-पिता ही पढ़ाएँ, यह भी उतना ही स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। आज तीन वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लेकर अनेक प्रकार की समस्याएँ आ रही हैं, वे सब समाप्त हो जायेंगी।

घर का सारा उपस्कर (फर्निचर), चलने-फिरने के लिए खुला स्थान नहीं रखना, नीचे सुखासन में बैठने नहीं देना, खड़े-खड़े भोजन बनाना, डायनिंग टेबल पर बैठकर भोजन करना आदि बातें स्वास्थ्य की दृष्टि से विपरीत व्यवस्थाएँ हैं। भोजन बनाने के पदार्थों की गुणवत्ता तथा भोजन बनाने की प्रक्रिया की वैज्ञानिकता हेतु अनेक प्रश्न खड़े हैं। हमें इन सबको छोड़ना चाहिए।

दान और तप के समान यज्ञ भी भारतीय परिवार के दैनन्दिन जीवन का अविभाज्य अंग बनना चाहिए। दान करना गृहस्थ का परम धर्म है। सुपात्र को आवश्यकता के अनुसार दान देना चाहिए। अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा दान करना चाहिए। दान सात्त्विक होना चाहिए। किसी ने कुछ माँगा तो हमारे मुँह से ना नहीं निकलना चाहिए। यज्ञ को सही कर्मकाण्ड से करने के साथ-साथ यज्ञ का वैज्ञानिक महत्त्व और यज्ञ भावना का विकास भी करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है। दान के समान ही तप परिवार जीवन में एक महत्त्वपूर्ण आचार है। मन को संयमित करने के अनेक उपाय छोटे सदस्य बड़ों से प्रेरणा के रूप में ग्रहण करें, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए। दूसरों के लिए अपनी रुचि को ढ़ालना अथवा अपनी प्रिय वस्तु का त्याग करना सिखाना चाहिए। किसी को देते समय खराब वस्तु न देकर अच्छी वस्तु देने का सहज स्वभाव बनना चाहिए।

आधुनिकता की हवा में न बहना

हमारे देश में अधिकांश लोग धनी व्यक्तियों की देखा-देखी करते हैं। वे इतना भी नहीं सोचते कि हम जिन कार्यों की नकल कर रहे हैं, वे कार्य हमारे स्वास्थ्य और प्रकृति के पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले तो नहीं हैं। जैसे- सिमेन्ट, कंक्रीट की छतें व दीवारें, सनमाइका या उसके जैसे पदार्थों के खिड़की व दरवाजे, प्लास्टिक और एल्युमिनियम की पैनल, प्लास्टर आँफ पेरिस की कलात्मक छतें, दीवारों पर प्लास्टिक पेन्ट आदि सभी बातें हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण की घोर विरोधी हैं। इनसे बचने की चाह तक न होना घोर सांस्कृतिक पाप है।

इसी प्रकार हमारे घरों में अनेक ऐसी वस्तुएँ आती हैं, जो नहीं आनी चाहिए। परन्तु हम लाते हैं क्योंकि हमें उनके दोषों की जानकारी नहीं है। यदि जानकारी है भी तब हम यह सोच लेते हैं कि पैसे वालों के घरों में भी तो यही सब वस्तुएँ आती हैं, इसलिए हमारे घर में भी आनी चाहिए। जैसे- डिटर्जेंट साबुन, टूथपेस्ट, पानी शुद्धिकरण के नाम पर आरो तथा बिजली के उपकरण मिक्सर, ग्राइण्डर, स्वच्छता हेतु सिन्थेटिक सामग्री, रासायनिक प्रक्रिया से बनी खाद्य सामग्री जैसी अनेक वस्तुएँ होती हैं। ये सब हमारे लिए और अन्यों के लिए भी पीड़ा पहुँचाने का काम करती हैं। इन्हें गंदी वस्तुओं की भाँति त्याज्य मानकर चलना चाहिए।

आज लोगों की मानसिकता यह बन गई है कि ये लोग गरीब हैं इसलिए इनके घरों में ये अत्याधुनिक वस्तुएँ नहीं हैं। अनेक लोग इस गरीबी की हीन भावना से ग्रसित भी हो जाते हैं। हमें परिवार में गरीबी की शर्म नहीं होनी चाहिए। गरीब होना कोई पाप नहीं है, परन्तु गरीब होने के कारण जूते, कपड़े या गहने माँगकर पहनना या मिठाई खाने के लिए बिना निमंत्रण के किसी भोज में चले जाना, दूसरों के पहने हुए कपड़े पहन लेना या नकली आभूषण पहनना आदि कर्म हमें नहीं करने चाहिए। इन कर्मों को करने में लज्जा का अनुभव अवश्य होना चाहिये।

परम्परा निभाने की मानसिकता बनाना

हमारे घर में श्रम प्रतिष्ठा, उद्यमशीलता और सेवा परायणता का वातावरण बनाना चाहिए। प्रसन्नता, उत्साह, सृजनशीलता का वावावरण निर्मित करना चाहिए। हास्यविनोद, वार्तालाप, सहयोग और सहभागिता आदि बातें भी होनी चाहिए। परिवार में कोई आश्रित नहीं होता। इसलिए हमारे होते हुए परिवार के किसी भी सदस्य को निराश्रित न रहना पड़े। घर में ऐसे सगे-सम्बन्धियों को आश्रय मिलना चाहिए और घर के सदस्य की भाँति उसे भी सम्मान देना चाहिए।

घर में परम्परा निभाने के कर्तव्य स्वरूप छोटे सदस्यों को अपने पूर्वजों का परिचय देना चाहिए। उनसे हमें क्या-क्या प्राप्त हुआ है, उन्होंने कैसे-कैसे श्रेष्ठ कार्य किए हैं,उनकी कौनसी मूल्यवान बातें हमें विरासत में मिली हैं? ऐसी सभी बातों की जानकारी हमें नई पीढ़ी को अवश्य देनी चाहिए। इसके साथ-साथ घर के छोटे सदस्यों को आज्ञाकारिता, संस्कारिता, अनुशासन, शिष्टाचार, सदाचार, विनय और सेवाभाव आदि सिखाना घर के बड़ों का ही काम है। ‘बच्चे हमारा कहना नहीं मानते’ ऐसी शिकायत करने का अवसर आना बड़ों की असमर्थता का ही द्योतक है।

हमें अपने पड़ौसी के साथ आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए। यथा आवश्यकता पड़ौसी की सहायता करना और उनसे सहायता लेना चाहिए। परन्तु यह सब बिना उपकार की भावना से करना चाहिए। खान-पान की सामग्री पड़ौसी के साथ बाँटनी चाहिए। परस्पर प्रेम व सेवा का आदान-प्रदान होते रहना चाहिए।

शेष बातें अगले अंक में ………

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 107 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा-परिवार में करणीय प्रयास-1)

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